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जलवायु परिवर्तन से निपटने को कितने तैयार हैं देश

विवेक ओझा

जलवायु परिवर्तन, आज ऐसी ज्वलंत समस्या बन चुका है जिससे विश्व का कोई देश अछूता नहीं है। हाल ही में दुबई में हुई कॉप-28 की बैठक में भी यह मुद्दा छाया रहा। वैश्विक समुदाय ने इस चुनौती से निपटने का सामूहिक संकल्प लिया है। इस कड़ी में सभी देशों ने कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने का फैसला किया है। मगर जीवांश ईंधन पर निर्भर छोटे व गरीब देशों के लिए कार्बन उत्सर्जन को शून्य कर पाना बेहद चुनौतीपूर्ण रहेगा। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए गंभीर दिखने वाले विकसित देश क्या इस संकट के समय छोटे व गरीब देशों की मदद को बड़ी पहल करेंगे? कॉप-28 बैठकों में लिए गए कुछ महत्वपूर्ण फैसले सदस्य देशों पर वैधानिक रूप बाध्यकारी होंगे या नहीं और सबसे प्रमुख मुद्दा जिस पर नजर रहती हैं वो है जलवायु वित्तीयन (क्लाइमेट फाइनेंस) का प्रश्न। खासकर विकासशील देशों, निर्धन देशों, द्वीपीय देशों में यह जिज्ञासा ज्यादा देखी जाती है कि विकसित देश अनुकूलन और कटौती रणनीति के तहत उन्हें कितनी वित्तीय सहायता हस्तांतरित करने के लिए सहमत हुए हैं। इन्हीं प्रश्नों के साथ ही इस बार यूएनएफसीसीसी के कॉप-28 का आयोजन 30 नवंबर 2023 से 13 दिसंबर 2023 तक दुबई में हुआ। कॉप-28 की बैठक पूरी होने पर दुबई डिक्लेरेशन में कुछ महत्वपूर्ण फैसलों का उल्लेख किया गया था।

कॉप-28 के मुख्य निष्कर्ष
जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे सर्वाधिक सुभेद्य देशों को मदद देने के लिए एक लॉस एंड डैमेज फंड की स्थापना के लिए ड्राफ्ट डिक्लेरेशन। इस फंड की निगरानी शुरुआती चरण में विश्व बैंक करेगा। वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है। इसके लिए जीवाश्म ईंधन से दूरी बनाने की बात पहली बार की गई है जिससे वर्ष 2050 तक ‘शुद्ध शून्य’ लक्ष्य प्राप्त किया जा सके। दरअसल अभी तक कई देश जो जीवाश्म ईंधन पर बड़े पैमाने पर निर्भर रहे हैं उन्होंने जीवाश्म ईंधन की कटौती के लक्ष्य को गंभीरता से लिया नही था। कॉप-28 की बैठक में ग्लोबल स्टॉकटेक और ग्लोबल गोल ऑन एडेप्टेशन से जुड़ा निर्णय महत्वपूर्ण रहा। इसमें ग्लोबल रिन्यूएबल एनर्जी कैपेसिटी को 2030 तक तिगुना करने और ऊर्जा दक्षता को इतने ही समय में दुगना करने की बात की गई है। 2030 तक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन से भिन्न अन्य उत्सर्जन खासकर मिथेन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए राष्ट्र सहमत हुए हैं। लेकिन मिथेन उत्सर्जन में कटौती के प्रयासों को लीगली बाइंडिंग नहीं बनाया गया है। सदस्य देश ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 2030 तक 43 प्रतिशत की कटौती और 2035 तक 60 प्रतिशत की कटौती 2019 केस्तर के सापेक्ष करेंगे। परमाणु ऊर्जा क्षमता को 2050 तक तीन गुना करने की घोषणा। साथ ही विश्व के देशों को अधिक महत्त्वाकांक्षी और ठोस जलवायु कार्रवाई लक्ष्यों को प्रतिबिंबित करने के लिये अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान को संशोधित एवं सुदृढ़ करने की आवश्यकता पर इस बैठक में बल दिया गया। भारत के नेतृत्व में कॉप-28 में ग्लोबल रिवर सिटीज़ एलायंस को लॉन्च करने की घोषणा की गई।

जलवायु वित्तीयन का मुद्दा है सर्वाधिक महत्वपूर्ण
जलवायु वित्तीयन के लिए यह कहा गया कि वर्ष 2025 से पूर्व एक नया सामूहिक मात्रात्मक लक्ष्य निर्धारित किया जाए। यह लक्ष्य प्रति वर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर से शुरू होगा। 2015 में पेरिस में आयोजित कोप 21 में इन देशों ने तय किया था कि 100 बिलियन डॉलर की राशि से एक ग्रीन क्लाइमेट फंड तैयार होगा जिसके जरिए विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने में सक्षम बनाने के लिए वित्तीय मदद दी जाएगी। साथ ही इस बात को भी जरूरी समझा गया है कि विकासशील देश, छोटे छोटे द्वीपीय देशों के पास ऐसी प्रौद्योगिकी नहीं है जिनसे वे बड़ी प्राकृतिक आपदाओं से निपट सकें। समुद्र के बढ़ते जलस्तर के प्रभाव से निपट सकें, इसलिए उन्हें टेक्नोलॉजी का भी ट्रांसफर किए जाने पर लंबी चौड़ी बहस कई कोप समिट्स में हो चुकी है, लेकिन उसका कोई खास परिणाम नहीं निकल सका था। अब इस पर नए सिरे से प्रतिबद्धता प्रदर्शित की गई है।

जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए कार्रवाई जरूरी
जिस गति से आज विश्व में शहरीकरण बढ़ा है, उससे स्पष्ट है कि आगामी समय में दुनिया की सर्वाधिक आबादी शहरों में होगी। सुविधाओं के बड़े केन्द्र के रूप में माने जाने वाले इन शहरों में संसाधनों के ऊपर बोझ भी बढ़ता जा रहा है। अर्बन फ्लड, क्षरित होती आद्र्रभूमियों, विलुप्त होने जीव जंतुओं और वनस्पतियों को बचाने के लिए शहरों की सस्टेनेबिलिटी पर ध्यान रखना दुनिया के सभी देशों के लिए जरूरी हो गया है। इसी प्रकार सतत विकास लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जलवायु परिवर्तन की मार से निपटने की मजबूत रणनीति जरूरी है। जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के क्षरण के साथ कृषि, उद्योग, स्वास्थ्य से लेकर सभी क्षेत्रों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। ऐसे में पर्यावरण बनाम विकास के द्वंद को दूर करना होगा।

इस दिशा में महासागरीय विवादों को दूर करने, ब्लू इकोनॉमी के विकास के लिए सहमति बनाने, अवैध मत्स्यन, समुद्री डकैती, सागरीय कचरे और प्लास्टिक प्रदूषण, सागरों पर ग्लोबल वार्मिंग की मार से महासागरों को बचाना जरूरी है। लुप्त होती समुद्री जैवविविधता के लिए राष्ट्रों को बिना शर्त एक साथ आने की जरूरत है। संयुक्त राष्ट्र के मंच से ऐसा किया जाना जरूरी है। सभी राष्ट्रीय कानूनों में महासागरीय सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्धता का भी प्रावधान होना चाहिए। आज जिस तरह से जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग उत्प्रेरित माइग्रेशन, विस्थापन और जलवायु शरणार्थियों की चुनौती बढ़ी है उसके लिए ठोस रणनीति वैश्विक स्तर पर बननी जरूरी हो गई है। इंडोनेशिया तो समुद्र के जल स्तर के बढ़ने के चलते अपनी राजधानी भी किसी दूसरे सुरक्षित स्थान पर शिफ्ट करने के लिए बाध्य हो गया। दुनिया के कई देश जलवायु असंतुलन के चलते कृत्रिम वर्षा की व्यवस्थाओं में लगने लगे हैं।

जलवायु परिवर्तन के दौर में जल संसाधन का प्रबंधन भी आवश्वयक
यूनाइटेड नेशंस का भी अनुमान है कि वर्ष 2050 तक 4 बिलियन लोग जल की कमी से गंभीर रूप से प्रभावित होंगे जिसके चलते जल को साझे करने को लेकर कई संघर्षों को बढ़ावा मिलेगा। यूएन का मानना है कि वैश्विक स्तर पर वर्तमान में 31 देश जल की कमी के संकट का सामना कर रहे हैं और 2025 तक 48 देशों को गंभीर जल संकट का सामना करना होगा और इसलिए संयुक्त राष्ट्र ने इसलिए राष्ट्रों से ‘वन वॉटर एप्रोच’ अपनाने की अपील की है। वन वॉटर एप्रोच सभी जल के मूल्य और महत्व को मान्यता देता है। जल के स्रोत या उत्पत्ति के आधार पर किसी भी प्रकार के जल संसाधन के साथ संरक्षण के स्तर पर भेदभाव न करने की बात वन वॉटर एप्रोच की मूल बात है। वन वॉटर एप्रोच सभी जल स्त्रोतों को एकीकृत, समावेशी और धारणीय ढंग से प्रबंधन करने पर बल देता है। इसमें जल संरक्षण के लिए विभिन्न समुदायों, बिजनेस लीडर्स, नीति निर्माताओं, एकेडेमिक्स से जुड़े लोग और अन्य साझेदारों को एकीकृत स्तर पर काम करने का आवाहन किया गया है। जल संरक्षण की दिशा में वैश्विक स्तर पर जल साक्षरता को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त राष्ट्र हर साल विश्व जल दिवस का भी आयोजन करता है जिसका मुख्य उद्देश्य अब ‘सतत विकास लक्ष्य’ (एसडीजी) 6 की उपलब्धि का समर्थन कर 2030 तक सभी के लिए पानी और स्वच्छता उपलब्ध करना है। सुरक्षित पानी तक पहुंच के बिना रहने वाले 2.2 अरब लोगों तक जल जागरूकता बढ़ाने के लिए निश्चित रूप से दुनियाभर के देशों को एकीकृत दृष्टिकोण के साथ काम करना जरूरी है।

भूमि संरक्षण की वैश्विक चुनौती पर ध्यान जरूरी
संयुक्त राष्ट, के नवीनतम आंकड़े कहते हैं कि हमारी पृथ्वी ग्रह की 40 प्रतिशत तक भूमि का अवमूल्यन हो चुका है। यह प्रत्यक्ष रूप से आधी मानवता को प्रभावित करेगा और यह ग्लोबल जीडीपी के लगभग 50 प्रतिशत (अथवा लगभग 44 ट्रिलियन डॉलर) के समक्ष एक खतरा होगा। इसलिए वैश्विक नेताओं ने इस बात का निश्चय किया है कि 2030 तक 1 बिलियन हेक्टेयर लैंड का रेस्टोरेशन करने के प्रयासों को गति दी जाय। लैंड रेस्टोरेशन से जुड़ी वचनबद्धताओं को पूरा करने के लिए इससे जुड़े आंकड़ों के संग्रहण और निगरानी तंत्र में सुधार करने की आवश्यकता भी अब कुछ राष्ट्रों द्वारा समझी जा रही है। इसी कड़ी में ‘ड्रॉट इन नंबर्स 2022’ भी यूएनसीसीडी के नेतृत्व में जारी किया जा चुका है जिससे सूखे से निपटने के लिए देशों को अपनी तैयारियां करने में मार्गदर्शन मिल सके। यूएनसीसीडी के कोप 15 में ड्रॉट प्रीपेयर्डनेस और ड्रॉट रिजीलियेन्स को लेकर ब्लूप्रिंट बनाने के लिए ही ड्रॉट इन नंबर्स 2022 जारी किया गया है। आबिदजान कॉल इस मामले में एक वैश्विक फ्रेमवर्क देता है जिसमें यूएनसीसीडी के कोप 15 के लीडर्स से लैंड रेस्टोरेशन में लैंगिक समानता अथवा महिलाओं की भूमिकाओं को उचित मान्यता देने का आह्वान करते हुए आबिदजान उद्घोषणा जारी की गई है। यूएनसीसीडी के कोप 15 में ‘लैंड , लाइफ एंड लीगेसी’ उद्घोषणा भी जारी की गई है जिसमें संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण निपटान अभिसमय (यूएनसीसीडी) के फ्लैगशिप रिपोर्ट ‘ग्लोबल लैंड आउटलुक 2’ के निष्कर्षों को अमल में लाने से जुड़ी प्रतिक्रिया दी गई है।

वैश्विक जलवायु परिवर्तन प्रबंधन और भारत का सीबीडीआर दृष्टिकोण
वैश्विक स्तर पर आने वाली प्राकृतिक आपदाओं के प्रबंधन में सक्रिय भूमिका निभाने का दृष्टिकोण भारत की विदेश नीति में एक लक्ष्य के रूप में विकसित हुआ है जिसके पीछे मुख्य उद्देश्य सतत विकास, वैश्विक अर्थव्यवस्था की सुरक्षा और विकसित और विकासशील देशों को प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए एक फोरम पर लाना है । भारत संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन रूपरेखा अभिसमय के तहत समान किंतु विभेदित उत्तरदायित्व और संबंधित क्षमता सिद्धांत में विश्वास करता है जो जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग से निपटने में विकसित और विकासशील देशों की सामूहिक और गैर भेदभावकारी भूमिका पर बल देता है। भारत द्वारा प्राकृतिक आपदाओं से निपटने वाली अवसंरचना हेतु एक वैश्विक संगठन के गठन का प्रस्ताव वर्ष 2017 में किया गया और अब यह अस्तित्व में आ चुका है।

भारत समान किन्तु विभेदित उत्तरदायित्व और संबंधित क्षमता (सीबीडीआर- आरसी) सिद्धांत का अनुसरण करते हुए विकसित और विकासशील देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन से लड़ने पर बल देता है और इसे ग्लोबल क्लाइमेट जस्टिस के लिए सबसे बड़े विजन के रूप में पेश करता आया है। जलवायु परिवर्तन से निपटने और ग्रीन हाउस गैसों व कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने हेतु अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सन् 1997 में ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ के तहत लाया गया। इसमें ‘सीबीडीआर-आरसी (समान किन्तु विभेदित उत्तरदायित्व और सम्बन्धित क्षमताएं)’ द्वारा मुख्यत: विकसित देशों की जवाबदेही ग्रीन हाउस गैसों व कार्बन उत्सर्जन के लिए निर्धारित की गई थी। गौरतलब है कि विगत 150 वर्षों में 80 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन के लिए प्रमुख रूप से विकसित देश ही उत्तरदायी हैं। अत: न्यायसंगत निर्णय करके उन विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन में कटौती और उनके द्वारा विकासशील देशों को तकनीकी व वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने की भूमिका निर्धारित हुई थी।

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