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” कैसी हो यह ईद? “

अहमद रज़ा

स्तम्भ: कुछ ही दिनों में ईद का त्यौहार आने वाला है। ऐसे में कोरोना को लेकर सरकार और समाज दोनों की जिम्मेदारी काफ़ी बढ़ जाएगी। हालांकि ज्यादातर राज्य लॉकडाउन-4 के पक्ष में हैं और प्रधानमंत्री भी इसका संकेत दे चुके हैं। लिहाजा सरकार की तरफ से साफ है कि ईद तक लॉकडाउन में कोई विशेष छूट नही मिलने वाली है। धार्मिक स्थल, मस्जिद और ईदगाह से लेकर सभी प्रकार के सामाजिक व धार्मिक जमावड़ों पर प्रतिबंध जारी रहने की उम्मीद है। सरकार क़ानून बनाकर और कानून-व्यवस्था का प्रयोग कर अपनी जिम्मेदारी तो निभायेगी ही। लेकिन समझना ये है कि कोरोना जैसी महामारी से लड़ने में समाज की भूमिका भी सरकार से कम नही है।

ऐसे में इस बार मुस्लिम समुदाय को अपने सबसे बड़े त्योहार को लेकर कुछ अलग तरह की तैयारी करने की ज़रूरत है। एक तैयारी सामुदायिक स्तर पर करनी है और दूसरी व्यक्तिगत स्तर पर। सामुदायिक स्तर पर एक आम जागरूकता फैलाने की ज़रूरत है कि ईद की नमाज़ ईदगाह, मस्जिद या किसी निजी जगह पर बाजमात(समूह में) न पढ़कर अपने-अपने घरों में तन्हा पढ़ी जाए।

ज्ञात हो कि इस्लाम में पवित्र और उच्च स्थान रखने वाले मक्का की ‘मस्जिदे हरम’ और मदीना की ‘मस्जिदे नबवी’ में पूरे रमज़ान तरावीह की नमाज़ नही हुई। न ही इन शहरों में हज (उमरा) की इजाज़त थी। जब इतने बड़े फैसले अरब देश ले सकते हैं तो यह ईद की नमाज़ के लिए भी होना चाहिए। इसलिए अपने देश में भी मस्जिद और ईदगाह में ईद की नमाज़ अदा करने से बचना होगा। अलबत्ता घरों में भी दूरी का पूरा ख़याल जरूर रखें। ध्यान रहे कि देश के क़ानून का पालन करना भी दीन-ओ-ईमान का अहम हिस्सा है। ख़ुद को और दूसरों को जोखिम में डालना भी कानूनी और दीनी दोनों ऐतबार से जुर्म है। लिहाजा किसी भी प्रकार के जमावड़े से बचें।

ये कहने की ज़रूरत इसलिए पड़ रही है, कि शुरुआत में यह देखा गया था कि कर्फ्यू और महामारी अधिनियम लागू होने के बाद भी लोग मस्जिदों में जमा होते रहे। देश भर में पुलिस महकमें को अपनी मुख्य जिम्मेदारी छोड़कर मस्जिदों की पहरेदारी करनी पड़ी थी। लोगों को समझाने में दो-तीन हफ्ते लग गए थे। ये निहायत लाइल्मी और जबरदस्ती थी। क्या ख़ुदा को हमारी इबादतों की कोई ग़रज़ है?

धर्म, पूजा, नमाज़ और सभी इबादतें इंसान की अपनी आत्मिक शुद्धता के लिए होती हैं। हदीसों के अंदर विपरीत परिस्थितियों में घर में नमाज़ अदा करने की पूरी छूट दी गयी है तो मस्जिद ही क्यों? यह छूट आम दिनों की (फ़र्ज़) नमाज़ के लिए दी गयी है फिर ईद की नमाज़ तो वाज़िब और नफ्ली इबादत है। अर्थात यह छोड़ भी दिया जाए तो कोई गुनाह की बात नही।

कोरोना के शुरुआती दिनों में तब्लीग़ी जमात से सम्बंधित मामला ख़ूब चर्चा में रहा। जमात के लोग क़ानून और लॉकडाउन के समय को लेकर दुहाई देते रहे। लेकिन सच्चाई तो यही है न कि उनकी लाइल्मी, लापरवाही और चूक की वजह से देश में कोरोना का विस्फोट हुआ था? लिहाजा मुस्लिम समुदाय को अब ऐसा मौका नही देना है जिससे देश, समाज और स्वयं पर कोई ख़तरा सामने आए। आज मुस्लिम समुदाय में एक आम धारणा बन चुकी है कि कुछ लोग उनके मजहब और संस्कृति के खिलाफ नफ़रत फैला रहे हैं।

यह बात कुछ हद तक सही हो सकती है लेकिन पूरी नही। यह बात भी उतनी ही सही है कि जब तक गलतियाँ नही होती कोई यूँही धारणा नही बनाता। यदि गलत धारणा और पूर्वाग्रह बन गए हैं तो इसे तोड़ना तो ख़ुद पड़ेगा। समाज में अच्छे उदाहरण दिखाने होंगे। इसलिए आने वाला ईद का त्यौहार एक अच्छा मौका है गलत बन चुकी धारणा को तोड़ने का। इसके लिए कोशिश हो कि कोई व्यक्ति मस्जिदों, ईदगाहों और सड़कों पर न दिखे।

ये तो हुई सामुदायिक स्तर की तैयारी। व्यक्तिगत स्तर की तैयारी भी कुछ कम जिम्मेदारी भरी नहीं है। चूँकि ईद का अर्थ ‘ख़ुशी’ होता है। कहा गया है कि “खुशियाँ बाँटने से बढ़ती है।” इसलिए ईद पर मेलजोल का अपना महत्व होता है, शिक़वा-गिला भूलकर एक दूसरे के गले लगा जाता है। नए कपड़े लिए जाते हैं। खाने-पीने पर दिल खोलकर ख़र्च किये जाते हैं। गरीबों को ज़कात की रक़म दी जाती है। फ़ितरा (ईद का टैक्स) ग़रीब को दिया जाता है, ताकि वह भी अपनी ईद की ज़रूरतों को पूरा कर सके। घर के लोग एक दूसरे को ईदी (ईद का तोहफा) देते हैं। ये सब किस लिए होता है? निःसंदेह इसका पूरा आशय यह है कि हर व्यक्ति तक ईद की खुशियां पहुँचनी चाहिए।


लेकिन कोरोना के दौर में समय की माँग, दीन-ओ-ईमान की माँग और समझदारी यही कहती है कि इस ईद पर कपड़े, खानपान और ईद की अन्य ज़रूरतों को लेकर खर्चे से बचा जाए। क्योंकि इसबार हमारे सामने व्यक्तिगत खर्चे से ज़्यादा अहम और एक बड़ी जिम्मेदारी है। आज पूरा देश आर्थिक संकट से गुज़र रहा है। बड़े स्तर पर मजदूर बेरोजगार हो चुके हैं। ग़रीब लोग भूखमरी की कगार पर हैं। देश भर में मजदूर सड़कों पर दरबदर हो रहे हैं। इसलिए इस ईद पर अपनी झोली इन बेरोजगार और भूख से बेबस लोगों के लिए खोल देनी चाहिए। इनकी ख़ुशी में ही इस बार अपनी ईद की ख़ुशी समझें। अपने ईद के खर्चे को काटकर इन लोगों की ज़िन्दगी बचाने की पहल करनी चाहिए।

हर व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के अनुसार सदका, फ़ितरा और ज़कात दें। अपने आस-पड़ोस में जो भी हो कमजोर हो उसकी आर्थिक मदद करें। यदि इन बेबस लोगों को थोड़ी राहत पहुँचायी जा सके तो इससे अच्छी और खूबसूरत ईद कोई नही हो सकती। इसके अलावा लोग ‘पीएम केयर्स’ में भी अपने जकात की रकम को भेज सकते हैं। याद रहे कि ख़ुदा को सभी इबादतों में ‘ख़िदमत-ए-ख़ल्क़’ अर्थात जनसेवा सबसे ज़्यादा पसंद है।

एक और अहम बात ये ध्यान रखना है, कि इस ईद पर न किसी को घर अपने घर बुलाये न ही किसी के घर जाएं। चाहे वे कितना ही अज़ीज़ क्यों न हो। सामाजिक दूरी का पूरा ख़्याल रखें। इसी में सबकी भलाई है। एक दिलचस्प बात ये है कि इस लॉकडाउन में सामाजिक मेलजोल के लिये वीडियो कॉलिंग काफी लोकप्रिय हो गयी है। अब एक साथ कई लोगों से जुड़ने के लिए बहुतेरे मोबाइल एप्प आ चुके हैं। फिर क्यों न ईद मिलन के लिए टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल हो ? कोरोना संक्रमण का जब तक ईलाज नही है तब तक सामाजिक दूरी, जागरूकता और सतर्कता से ही इससे बचा जा सकता है। इसलिए आने वाली ईद पर मुस्लिम समुदाय से बहुत अपेक्षाएं हैं। इस तरह से ईद मनाए कि आने वाली ईद तक सभी लोग स्वस्थ और कुशल मंगल रहें।

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