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21वीं सदी में भारत : खेती किसानी अब महंगा सौदा

नई सदी में कृषि के क्षेत्र में भारत ने कई झंडे गाड़े। दुनिया में दुग्ध उत्पादन में हम पहले और फलों एवं सब्जियों के उत्पादन में दूसरे स्थान पर आ चुके हैं। साल 1950 में खाद्यान्न पैदावार पांच करोड़ टन थी और आज 50 करोड़ टन है लेकिन विडंबना देखिए, देश की आधी आबादी खेती-किसानी में लगी है, बावजूद इसके कृषि का जीडीपी में योगदान केवल 17 फीसदी है। यानी एक बड़ी आबादी खेती के नाम पर पल रही है। जिसका देश के विकास में कोई सीधा योगदान नहीं है। यह वे लाखों किसान और उनके आश्रित हैं जो खेती छोड़ना चाहते हैं क्योंकि यह एक महंगा सौदा हो चुकी है। भारत में खेती-किसानी के हाल का ब्योरा पेश कर रहे हैं कृषि विशेषज्ञ अखिलेश मिश्र।

पिछले 20 सालों में एक अजब ट्रेंड देखने को मिला है। अर्थव्यवस्था के विकास में मैन्यूफैक्र्चंरग और सेवा क्षेत्रों का योगदान तेजी से बढ़ा है, जबकि कृषि क्षेत्र के योगदान में गिरावट हुई आई है। 1950 के दशक में जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान जहां 50% था, वहीं स्थिर मूल्यों पर ये 2015-16 में गिरकर 15.4% ही रह गया। कुछ तथ्यों पर गौर करें, भारत का खाद्यान्न उत्पादन प्रत्येक वर्ष बढ़ रहा है और हमारा देश गेहूं, चावल, दालों, गन्ने और कपास जैसी फसलों के मुख्य उत्पादकों में से एक है। यह दुग्ध उत्पादन में पहले और फलों एवं सब्जियों के उत्पादन में दूसरे स्थान पर है। दाल उत्पादन में भारत का 25% का योगदान था जो कि किसी एक देश के लिहाज से सबसे अधिक है।

इसके अतिरिक्त चावल उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 22% और गेहूं उत्पादन में 13% थी। पिछले कई वर्षों से दूसरे सबसे बड़े कपास निर्यातक होने के साथ-साथ कुल कपास उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 25% है। हालांकि अनेक फसलों के मामलों में चीन, ब्राजील और अमेरिका जैसे बड़े कृषि उत्पादक देशों की तुलना में भारत की कृषि उपज कम है। गौरतलब है कि चावल उत्पादन में भारत का स्थान तीसरा है लेकिन उसकी उपज ब्राजील, चीन और अमेरिका से कम है। केवल पिछले पांच वर्षों के दौरान कृषि क्षेत्र में खाद्यान्नों के उत्पादन और उत्पादकता में शानदार प्रगति देखी गई है। तिलहन, वाणिज्यिक फसलें, फल, सब्जियां, खाद्यान्न, मुर्गीपालन और डेयरी के क्षेत्र में भारत एक बड़ा नाम बनकर उभरा है। दुनिया में भारत फलों और सब्जियों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक बन गया है। वहीं काजू और मसालों का वह सबसे बड़ा निर्यातक है।

इन दिलकश आकड़ों के बावजूद भारत में फसलों की औसत पैदावार दुनिया के कई देशों की औसत पैदावार से कम है। कई फसलों के मामले में हमारे यहां प्रति हेक्टेयर या एकड़ उत्पादन दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में कम है। गौरतलब है कि अमेरिका के बाद भारत में सबसे ज्यादा खेती की योग्य ज़मीन है, लेकिन फसल उत्पादन अमेरिका से चार गुना कम है। चीन भारत से कम ज़मीन पर खेती करता है लेकिन इससे अधिक फसल उपजाता है। जैसा कि कृषि अर्थशास्त्री प्रो़फेसर अशोक गुलाटी बताते हैं कि ‘चीन के पास हमसे कम ज़मीन है। उसकी ‘ग्रॉस लैंड र्होंल्डग साइज़’ भी भारत से छोटी है। हमारे पास 1.08 हेक्टेयर की लैंड र्होंल्डग साइज़ है, जबकि उसके पास महज 0.67 हेक्टेयर की। लेकिन उनका कृषि उत्पादन हमसे तीन गुना ज्यादा है। ऐसा इसलिए क्योंकि वो रिसर्च और डेवलपमेंट पर ज्यादा खर्च करते हैं। वहां की खेती में विविधता है। किसान जो निवेश करते हैं, उस पर सब्सिडी मिलती है। हमें उनसे सीखना चाहिए।’

21वीं सदी में कृषि क्षेत्र का ये हाल होगा किसी ने सोचा न था। इसके पीछे कई कारण हैं जो कृषि उत्पादकता को प्रभावित कर रहे हैं। सबसे बड़ा कारण तो यह है कि खेती की योग्य जमीन का आकार घट रहा है। आबादी बढ़ रही है और खेत छोटे हो रहे हैं। आजादी के 77 साल बाद भी किसान काफी हद तक मानसून पर निर्भर है। सिंचाई की पर्याप्त सुविधा नहीं है, साथ ही उर्वरकों का असंतुलित प्रयोग किया जा रहा है जिससे मिट्टी का उपजाऊपन कम होता है। देश के विभिन्न भागों में सभी को आज भी किसानों को कृषि की आधुनिक तकनीकें उपलब्ध नहीं है, न ही उन्हें कृषि के लिए औपचारिक स्तर पर ऋण उपलब्ध हो पाता है। सरकारी एजेंसियों द्वारा खाद्यान्नों की पूरी खरीद नहीं की जाती है और किसानों को लाभकारी वाजिब मूल्य नहीं मिल पाता है।

पिछले 20 साल में भारतीय कृषि में कई महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं। इन बदलावों ने कृषि क्षेत्र को और अधिक आधुनिक, उत्पादक और लाभप्रद बनाया है। दो दशकों में खाद्यान्न उत्पादन में विशेष रूप से वृद्धि हुई है, जिससे देश की खाद्य सुरक्षा में सुधार हुआ है। चावल, गेहूं और दाल जैसे प्रमुख खाद्यान्नों के उत्पादन में वृद्धि हुई है, जिससे देश की खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद मिली है। कृषि तकनीक में सुधार हुआ है जिसने फसलों के कृषि उत्पादन की वृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ट्रैक्टर, थ्रेशर, और अन्य कृषि मशीनों के उपयोग से कृषि कार्यों में गति और दक्षता में वृद्धि हुई है। इसके अलावा, ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकलर सिंचाई जैसी तकनीकों के उपयोग से पानी की बचत हुई है और फसलों की उत्पादकता में वृद्धि हुई है।

नई सदी में कृषि बीमा योजना किसानों के लिए वरदान साबित हुई है। कृषि बीमा योजनाओं के माध्यम से किसानों को फसलों के नुकसान होने के एवज़ में आर्थिक सुरक्षा मिली। इसके अलावा, कृषि वित्तीय सेवाएं के जरिए किसानों को ऋण और अन्य वित्तीय सेवाएं प्रदान होने लगीं, जिससे किसानों को अपने कृषि कार्यों को बढ़ाने में मदद मिली। इस दौरान जैविक कृषि का एक नया कान्सेप्ट आया। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग से बचने लगे जिससे पर्यावरण संरक्षण में भी मदद मिली लेकिन इन सबके बावजूद बीते बीस वर्षों में भारत में कृषि क्षेत्र की चुनौतियां और बढ़ी हैं।

छोटी जोत की समस्या
केंद्र सरकार ने साल 2011 में एक सर्वे कराया था, जिसमें पता चला कि देश में लैंड र्होंल्डग आकार दो एकड़ से भी कम का है। ग्रामीण इलाकों में एक चौथाई फीसदी परिवारों के पास महज 0.4 एकड़ जमीन है और एक चौथाई लोग भूमिहीन हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि आधुनिक कृषि तकनीकों को अपनाने, इनपुट्स लगाने, जमीन की उर्वरा को सुधारने, जल संरक्षण और पौधों को कीटों से बचाव के वैज्ञानिक तरीके अपनाने में यह छोटी जोत बड़ी समस्या है। खेती का आधुनिकीकरण मशीनीकरण इन हालातों में मुश्किल है। ज्यादातर राज्यों में भूमि सुधार की धीमी रफ्तार इस समस्या को और बढ़ाने में कोढ़ में खाज का काम करती है। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि छोटी जोत वाली जमीनों को एक जगह कर उनका आकार बड़ा कर देने से पैदावार बढ़ाने में मदद मिलेगी।

छोटी होती जोतों ने किसानों की सम्मानजनक आजीविका कमाने की क्षमता को सीमित किया है। आंकड़े बताते हैं कि जोतों का औसत आकार वर्ष 1970-71 के 2.28 हेक्टेयर से घटकर वर्ष 1980-81 में 1.84 हेक्टेयर रह गया। और 2015-16 में तो यह घटकर मात्र 1.08 हेक्टेयर ही रह गया है। भारत की कृषि जनगणना 2015-16 के अनुसार, 86.1 प्रतिशत भारतीय किसान छोटे और सीमांत किसान हैं, जिनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम भूमि है। समय के साथ किसान वाकई बहुत गरीब हुआ है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की वर्ष 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, मजदूरी, फसल उत्पादन और पशुधन सहित सभी स्रोतों से प्राप्त एक किसान परिवार की औसत मासिक आय लगभग 10,218 रुपए थी। वर्ष 2019 में हुए आयोजित एनएसएस सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में आधे से अधिक कृषक परिवार कर्ज में डूबे हैं।

मिट्टी की उपेक्षा
कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि भारत में 40 फीसदी खेती योग्य ज़मीन की मिट्टी को नुकसान पहुंचा चुका है और इसकी भरपाई में लंबा समय लग जाएगा। मिट्टी के क्षरण से इसकी उपज क्षमता कम हो जाती है। अवैज्ञानिक तरीके से खेती, एक ही मिट्टी का बार-बार इस्तेमाल, पानी की बर्बादी, जंगलों की कटाई और रासायनिक खादों के बहुत अधिक इस्तेमाल से मिट्टी की ऊपरी परत को नुकसान पहुंचता है। जैसा कि मशहूर मृदा वैज्ञानिक डॉक्टर रतन लाल कहते हैं- मिट्टी की भी एक जदगी होती है और हमें इसे संवारना पड़ता है। मिट्टी एक जीवित इकाई है। उपजाऊ मिट्टी में ‘जीवित पदार्थ’ होते हैं। जैसे-कीटाणु और जीवित ऑर्गेनिज्म, जैसे हम हैं, वैसी ही मिट्टी भी है। मिट्टी को भी भोजन चाहिए।’ भारत के किसान मिट्टी को उसका भोजन नहीं दे पा रहे हैं। मिट्टी को खुराक पशुओं के मल-मूत्र, खर-पतवार या खेत में छोड़ दी गई फसलों के सड़ने से मिलती है। अब श्रम संकट के कारण ये नहीं हो पा रहा। किसान खर-पतवार या पराली जला रहे हैं।

बाजार अभी दूर
आधुनिक तकनीकों के बारे में जागरूकता की कमी और बदलाव के प्रति प्रतिरोध, उन्नत कृषि पद्धतियों को अपनाने में की राह में बाधा उत्पन्न करते हैं। आज भी भारत के किसानों का बाजार से सीधा नाता नहीं जुड़ पाया है। बिचौलियों और मूल्य सूचना की कमी के कारण मूल्य में उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ता है। कृषि विपणन में किसानों के सामने आने वाली समस्याओं में परिवहन लागत, अपर्याप्त बाजार अवसंरचना, मूल्य में उतार-चढ़ाव, बाजार से जुड़ी जानकारी का अभाव और स्थानीय व्यापारियों और बिचौलियों का शोषण शामिल है। ग्रामीण क्षेत्रों में भंडारण सुविधाओं की कमी फसल कटाई के बाद होने वाले नुकसानों के लिए एक कारण सीमित कारक रही है। भंडारण सुविधाओं की कमी के कारण हर साल लगभग 16% फल और सब्जियां, 10% तिलहन, 9% दलहन और 6% अनाज बर्बाद हो जाते हैं। चूंकि अधिकांश कृषि उपज जल्दी खराब हो जाती है, इसलिए किसान फसल कटाई के तुरंत बाद कम कीमत पर भी उपज बेचने के लिए मजबूर होते हैं। इससे उन्हें मामूली आय होती है। अपर्याप्त भंडारण सुविधाओं के कारण किसानों के लिए ऑफ-सीजन के दौरान लोगों की मांंगों को पूरा करना मुश्किल हो जाता है।

मशीनें काम की नहीं
इस 21वीं सदी में भारतीय किसानों का एक बड़ा हिस्सा अभी भी पारंपरिक और पुरानी पड़ चुकी कृषि पद्धतियों पर निर्भर है। भारत में मशीनीकरण के विस्तार के बावजूद, अधिकांश कृषि कार्य अभी भी मजदूरों से ही किए लिए जा रहे हैं। भारत में मशीनीकरण का उच्चतम स्तर लगभग 60-70% जुताई, कटाई, थ्र्रेंसग और्र ंसचाई में देखा जाता है। हालांकि बीज बोने, निराई और अन्य कृषि कार्यों में मशीनरी के लिए भी मशीनों का आविष्कार किया गया है, लेकिन केवल कुछ ही किसान फसल उत्पादन के लिए इसका उपयोग करते हैं। छोटी भूमि जोत के कारण, छोटे किसानों को मशीनीकरण को अपनाने में कठिनाई होती है। ग्रामीण किसानों में जागरूकता की कमी और पूंजी की कमी इस समस्या को जन्म देती है। किसान नीतिगत चुनौतियों का भी सामना कर रहा है। सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से बहुत कम कीमत पर अनाज उपलब्ध कराती है। इससे किसानों को उनकी फसलों के लिये मिलने वाली कीमतें कम हो जाती हैं, जिससे उन्हें अपनी जीविका के लिए पर्याप्त आय अर्जित कर पैसा कमाना कठिन हो जाता है।

जलवायु परिवर्तन
इन 20 वर्षों में जलवायु परिवर्तन भी बड़ी मुसीबत समस्या बन कर सामने आया है। अनियमित मौसम पैटर्न ने कृषि उत्पादकता को प्रभावित किया है। अप्रत्याशित मौसम पैटर्न, जलवायु परिवर्तन और बाढ़, चक्रवात एवं सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएं भारतीय भारत के कृषि उद्योग के लिए गंभीर चुनौतियां पेश करती रही हैं। भारत में, 2015-16 और 2021-22 के बीच भारी वर्षा और बाढ़ सहित जल व अन्य मौसम संबंधी आपदाओं के कारण लगभग 33.9 मिलियन हेक्टेयर फसल क्षेत्र को नुकसान पहुंचा है। जलवायु परिवर्तन प्रभाव, अनुकूलन उपायों को अपनाए बिना, भारत में वर्षा आधारित चावल की पैदावार वर्ष 2050 तक 20% और वर्ष 2080 तक 47% कम हो जाने का अनुमान है।

यूएन संयुक्त राष्ट्र संघ की एक हालिया स्टडी के मुताबिक अमेरिका में कुल आबादी का सिर्फ दो फीसदी हिस्सा ही खेती के काम में लगा है। गौरतलब है कि यह दो फीसदी आबादी ही इतना खाद्यान्न और दूसरे कृषि उत्पाद पैदा करती है कि यह दो अरब लोगों की ज़रूरत पूरी कर सकते हैं जबकि भारत में 60 से 70 फीसदी आबादी खेती पर निर्भर है। भारत की कुल जीडीपी में कृषि और इसके सहायक सेक्टरों की 17 फीसदी भागीदारी है। यह 2018-19 का आंकड़ा है। जबकि जीडीपी में सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी 54.3 फीसदी है, जबकि औद्योगिक सेक्टर की हिस्सेदारी 29.6 फीसदी है। इसका मतलब यह है कि सर्विस और औद्योगिक सेक्टर में कृषि सेक्टर से कम लोग काम करते हैं लेकिन जीडीपी में उनका योगदान कहीं ज्यादा हैं। जाहिर है खेती बहुत सारे लोगों का सहारा नहीं बन सकती। एक बड़ी आबादी को वैकल्पिक पेशा अपनाना ही होगा।

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