रामराज्य में मुद्रा नहीं, भक्ति और ज्ञान का होता है महत्व
राम का राज्य, अल्लाह की हुकूमत या किंगडम ऑफ गॉड सभी पर्यायवाची हैं। चाहे जो भी कह लें, बोध एक सत्य का ही होता है। शब्द अलग-अलग भाषा के हैं किन्तु भाव एक ही है। भारतवासियों के मन में रामराज्य के प्रति सदा से ही एक विशेष आदर का भाव रहा है और उसे आदर्श माना गया है। गांधीजी ने भी स्वतंत्रता के बाद रामराज्य की ही स्थापना की कल्पना की थी। रामराज्य का मुख्य आकर्षण यह है कि वैसे राज्य में दु:ख, विषमता, शोषण आदि का अभाव होता है किन्तु रामराज्य की स्थापना की एक अनिवार्य शर्त है, रावण का वध। जब तक रावण मरेगा नहीं तब तक रामराज्य नहीं आ सकेगा। रावण का शाब्दिक अर्थ रुलाने वाला होता है। वह मोह (अन्धकार) का प्रतीक है। अब समाज में ऐसे रुलाने वाले या कष्ट देने वाले नहीं रहेंगे और अन्धकार का अभाव हो जायेगा, तब राम राज्य के आविर्भाव को कोई रोक नहीं सकता। रामायण में ऐसे रामराज्य का वर्णन किया गया है-
बयरू न कर काहू सन कोई।
राम प्रताप विषमता खोई।।
बरनाश्रम निज निज धरम
निरत वेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं
नहिं भय सोक न रोग।।
दैहिक दैविक भौतिक तापा,
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती,
चलहिं स्वधर्म निरत स्रुति नीती।।
चारिउ चरन धर्म जग माहीं,
पूरि रहा सपनेहु अघ नाहीं।।
राम भगति रतनर अरु नारी,
सकल परमगति के अधिकारी।।
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा,
सब सुन्दर सब बिरूज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना,
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
सब निर्दभ धर्मरत पुनी,
नर अरू नारि चतुर सब गुनी।।
सब गुनग्य पण्डित सब ज्ञानी,
सब कृतग्य नहिं कपट सयानी।।
सब उदार सब परहितकारी,
विप्र चरन सेवक नर नारी।।
एक नारि ब्रतरत सब झारी,
ते मन बच-क्रम पतिहितकारी।।
राम-राज्य समतावादी।
बाजारू रुचिर न बनइ
बरनत बस्तु बिनु गथ पाईये।।
बाजार लगी है, परन्तु खरीद-बिक्री नहीं होती। कोई मनमाने ढंग से एक की जगह दस चीज नहीं उठा ले जाता। सभी अपनी आवश्यकता के अनुसार ही लेते हैं तथा अपनी क्षमता के अनुसार देते हैं। आवश्यकता से अधिक कोई व्यक्ति नहीं लेता और अपनी क्षमता के अनुसार ही देता था। यही है न समाजवाद या साम्यवाद का सिद्धान्त (फ्राम ईच एकार्डिंग टू हिज कैपेसिटी टू ईच एकार्डिंग टू हिज नीड) यह रामराज में सहज ही सुलभ था।
बैठे बजाज सराफ बनिक
अनेक मनहुं कुबेर ते।
सब सुखी सब सच्चरित्र
नारि नर सिंसु जरठ जे।।
समाज में एक कुटुम्ब (वसुधैव कुटुम्बकम्) की भावना आ जाय तब रामराज स्थापित हो जायेगा। राम का जीवन हमारी संस्कृति का आधार है। राम के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता है नि:स्वार्थता, निष्कलुषता। उनके अन्दर सब कुछ निर्मल है। उत्पादक तथा उपभोक्ता के मध्य प्रत्यक्ष आदान-प्रदान होता है, मुद्रा लेन-देन का माध्यम नहीं होती । मुद्रा शोषण को प्रश्रय देती है तथा वह साधनों पर प्रभुत्व जमा लेती है। राम राज्य में मुद्रा का लोगों के व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में मूल्य गिर जाता है। इसमें किसी का भी आर्थिक, सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक शोषण नहीं होता। रावण सदृश लोगों का सर्वांश में नाश इसकी मूल शर्त है, जिसका एक निश्चित क्रम है।
रावण के कुल में काम, क्रोध, लोभ, अहंकारादि रूप मेघनाद, कुम्भकर्ण आदि थे और ‘रावण’ के विनाश पर ‘रहा न कोउ कुल रोवनि हारा’ की स्थिति आई। किन्तु उसका विनाश तब तक नहीं होगा जबतक उनका मूल दुराशा (ताड़का), दोष (सुबाहु ), दु:ख (मारीच) क्रमश: न समाप्त होंगे। रावण के विनाश का जो तरीका अपनाया गया था, उसके तीन अंग हैं-
गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। अर्थात् पहाड़, पेड़ तथा नाखून ये तीनों क्रमश: ध्यान सेवा, अभोग तथा उपवास के प्रतीक हैं, ये मोह के नाश की एक सीढ़ी है और उसी क्रम में मोह का नाश होगा। सर्वप्रथम जीवन से ताड़का (दुराशा अर्थात भोजन, दवा, आनन्द ज्ञान एवं प्रेम से सुख प्राप्ति की आशा) का वध (नाश) होगा। इसके पश्चात भी यह नहीं समझना चाहिए कि दु:ख (मारीच) मिट गया, वह टल सकता है क्योंकि अभी दोष (सुबाहु) मरा नहीं। अत: दोष (सुबाहु) अर्थात् शरीर में मल, मन में आसक्ति तथा बुद्धि में ‘मैं’ को मिटाना होगा, तत्पश्चात् दु:ख (मारीच अर्थात रोग-चिन्ता भय) मिटेगा। इसके बाद ही मोहनाश (रावण-वध) सम्भव हो पायेगा जिसका रास्ता (साधना) ध्यान सेवा तथा उपवास है। ध्यान से ‘मैं’ मिटकर ज्ञान तथा निर्भयता, सेवा से मन का ममत्व मिटकर आनन्द तथा शांति उपवास से शरीर का मल निकलकर स्वास्थ्य तथा शक्ति का सहज प्रस्फुटन होगा और किसी प्रकार का दु:ख स्वप्न में भी नहीं रहेगा और सच्चे राम राज्य की स्थापना होगी। भगवान जगत में सर्वत्र हैं, यह दृढ़ विश्वास हो जाना ही ज्ञान है और उनके स्वरूप को जानकर उनकी सेवा करना भक्ति है।
(पूज्य ‘योगीजी’ के प्रवचनों से संकलित)