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कृषि कानून-2020 : सियासत-आशंका-उम्मीदों का भंवरजाल

कृषि कानून: सियासत-आशंका-उम्मीदों के भंवरजाल
ज्ञानेंद्र शुक्ला

नई दिल्ली : कृषि प्रधान देश भारत में खेत-किसान-फसल अहम रहे हैं। आबादी का बड़ा हिस्सा कृषि से जुड़ा होने से वोटों के गणित के हिसाब से किसान कीमती तो हो जाते हैं।

पर विडंबना है कि किसानों की बेहतरी के नारे बस चुनावी रस्साकशी के दौर तक ही गूंजते हैं बाकि मौकों पर किसानों के हिस्से में संघर्ष-चुनौतियां और समस्याएं ही दर्ज होती हैं। केन्द्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ ताल ठोंक रहे किसानों के दिल्ली पहुंचने से एकबारगी फिर से किसान सियासत गरमा गई है। 

राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद प्रभावी हो चुके कृषि कानून-2020 को किसान हितैषी बताते हुए सरकार की दलील रही है कि न तो मंडी न ही सरकारी प्लेटफार्म बंद हुए हैं। नए प्रावधानों से किसानों को अपने उत्पाद बेचने के ज्यादा मौके और विकल्प मिल गए हैं। मंडी या मंडी के बाहर भी अनाज बेचने के अवसर उपलब्ध हो गए हैं।

किसानों को पूरी आजादी मिल गई है कि फसल बोने से पहले कॅान्ट्रैक्ट करना है या नहीं। अपनी अपनी मर्जी के मुताबिक फसल बेचना संभव हो गया है। किसानों को व्यापारियों का चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे, उनकी फसल में किसी का दखल नहीं होगा न ही बहुत ज़्यादा नियम और कानून का सामना करना पड़ेगा, किसान हर तरीके से अपने फसल का मालिक होगा।

पर इन दलीलों और आश्वासनों के बावजूद किसान बुरी तरह आशंकित हैं उन्हें सबसे बड़ा डर है कि नए कानून मंडियों को तो खत्म करेंगे ही साथ ही न्यूनतम समर्थन मूल्य के खात्मे की राह भी खुल जाएगी।

आशंका इस बात की भी है कि फसल बोने से पहले ही कॅान्ट्रैक्ट करने से किसानों को नुकसान होगा फसल की अच्छी कीमत नहीं लग पाएगी, छोटे किसान खस्ताहाल हो जाएंगे, किसी विवाद की दशा में बडे़ काश्तकारों-व्यापारियों को ही फायदा होगा, बड़े व्यापारी फसल को स्टोरेज कर लेंगें जिससे बाजारों में कालाबाजारी बढ़ेगी और अनाज को तब मंहगें दामों पर बेचा जाएगा।

विधेयक पेश करने के वक्त से ही मुखर विरोध में कांग्रेस और अकाली दल रहे हैं। अकाली दल की हरसिमरत कौर ने तो विरोध में केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और अकाली दल ने एनडीए से गठबंधन भी तोड़ लिया।

वहीं, कांग्रेस की बात करें तो इस वक्त तो नए कानून पर तल्ख नजर आ रही है पर पर खुद उसके चुनावी घोषणापत्रों में कहा जाता रहा है कि सत्ता में आने पर सरकारी मंडी में फसल बेचने की अनिवार्यता खत्म कर दी जाएगी। यूपीए के शासनकाल में वर्ष 2011 में इस कानून को लाने की हिमायती कांग्रेस खुद थी।

नए कृषि कानूनों को लेकर किसानों और सरकार में छिड़ी रार को समझने के लिए प्रावधानों के तमाम पहलूओँ को सिलसिलेवार समझते हैं।

पहले बात करते हैं कृषक उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) एक्ट 2020 (The Farmers’ Produce Trade and Commerce (Promotion and Facilitation) act, 2020) की।

इस कानून के मुताबिक किसानों को अपने उत्पाद नोटिफाइड ऐग्रिकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी यानी तयशुदा मंडियों से बाहर बेचने की छूट मिल गई है। इसके तहत किसानों से उनकी उपज की बिक्री पर कोई सेस या फीस नहीं ली जाएगी।

पक्ष: इसका मकसद है कि किसानों को अपनी उपज के लिए प्रतिस्पर्धी वैकल्पिक व्यापार माध्यमों से लाभकारी मूल्य उपलब्ध कराना। इससे किसानों को नए मौके हासिल होंगे, बेहतर कीमत मिल सकेगी। उपज बेचने पर आने वाली लागत या खर्च में कमी होगी। ज्यादा उत्पादन वाले इलाकों के किसान अपनी उपज दूसरे प्रदेशों में बेचकर अधिक दाम पा सकेंगे। निजी खरीदारों से बेहतर दाम मिलेंगे।

विरोध: इस प्रावधान के विरोधी आशंकित हैं कि धीरे धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य यानि एमएसपी आधारित खरीद सिस्टम, जिससे सरकार किसानों से अनाज खरीदती है, खत्म कर दिया जाएगा। जिससे किसानों का शोषण बढ़ेगा। वैसे, केंद्र सरकार साफ कर चुकी है कि एमएसपी खत्म नहीं किया जाएगा। इस कानून ने जहां मंडियों को एक सीमा में बांध दिया है। वहीं, इसके जरिये बड़े कॉरपोरेट खरीदारों को खुली छूट दे दी गई है।

बिना किसी पंजीकरण और बिना किसी कानून के दायरे में आए हुए वे किसानों की उपज खरीद-बेच सकते हैं। किसानों को भय है कि फसल उत्पादन ज्यादा होने पर व्यापारी किसानों से मंडियों के बाहर ही कम कीमत पर फसल खरीदकर उन्हें नुकसान पहुंचाएंगे। पंजीकृत कृषि उपज मंडी समिति के दायरे से निकल कर बाहर उपज बेचने पर मंडी शुल्क से वंचित होने से राज्यों के राजस्व पर आंच आना तय है। वहीं, कृषि व्यापार का बड़ा हिस्सा मंडियों से बाहर चले जाने पर कमीशन एजेंट की हालत खराब होगी।

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दूसरा है, मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध एक्ट 2020 (The Farmers (Empowerment and Protection) Agreement of Price Assurance and Farm Services act, 2020), इस कानून के तहत कृषि उत्पादों को पहले से तय दाम पर बेचने के लिये कृषि व्यवसायी फर्मों, प्रोसेसर, थोक विक्रेताओं, निर्यातकों या बड़े खुदरा विक्रेताओं के साथ कांट्रेक्ट यानि अनुबंध करने का अधिकार किसानों को दिया गया है।

इसमें व्यवस्था की गई है कि किसान की जमीन को एक निश्चित राशि पर एक पूंजीपति या ठेकेदार किराये पर ले सकेगा और अपने हिसाब से फसल का उत्पादन कर बाजार में बेचेगा।

पक्ष: इसका फायदा ये होगा कि मौसम की मार या बाजार की अनिश्चितता की वजह से फसल से जुड़े जोखिम से किसान को निजात मिल जाएगी। क्योंकि कोई भी घाटा खरीददार के खाते में ही दर्ज होगा किसान को तय रकम मिल ही जाएगी।

किसानो को आधुनिक तकनीक हासिल हो सकेगी, विपणन लागत कम होगी तो आय का जरिया बढ़ेगा। इस कानून के तहत अनुबंध करने वाले व्यापारी को फसल की डिलीवरी के समय ही दो तिहाई राशि का भुगतान करना होगा और बाकी राशि तीस दिन के भीतर देनी होगी। साथ ही खेत से फसल उठाने की जिम्मेदारी भी व्यापारी की ही होगी।

विरोध : आशंका जतायी जा रही है कि ये कानून भारतीय खाद्य व कृषि जगत पर कब्जा करने की महत्वाकांक्षा पालने वाले उद्योगपतियों के लिए मददगार है। इससे किसानों की मोलतौल की की क्षमता प्रभावित होगी। बड़े कारपोरेट हाऊस, निर्यातकों, थोक विक्रेताओं और प्रोसेसर इससे कृषि क्षेत्र में कब्जा जमा लेंगे। फसल की कीमत तय करने व विवाद की स्थिति का बड़ी कंपनियां लाभ उठाएंगी छोटे किसानों के साथ समझौता नहीं करेंगी। नतीजतन किसान की हालत नाजुक ही रहेगी।

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अब तीसरे आवश्यक वस्तु (संशोधन) एक्ट 2020 (Essential Commodities (Amendment) act 2020) को समझते हैं, इस संशोधऩ से आवश्यक वस्तुओँ की फेहरिश्त से अनाज, दाल, तिलहन, प्याज और आलू जैसी कृषि उपज बाहर हो गई हैं। इससे वस्तुओं पर लागू भंडारण यानि स्टोरेज की सीमा भी खत्म हो गई है।सरकार सिर्फ अति असाधारण हालातों जैसे युद्ध, अकाल, असाधारण मूल्य वृद्धि व प्राकृतिक आपदा की दशा में ही वस्तुओँ की आपूर्ति पर नियंत्रण लगाएगी।

पक्ष: इससे मूल्य स्थिरता लाने में मदद मिलेगी। कृषि क्षेत्र में निजी निवेश बढ़ेगा, एफडीआई आकर्षित होगी। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की दलील है कि फसलों के न्यमनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था निर्बाध जारी रहेगी, ये कानून किसी भी सूरत में राज्यों के कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) कानूनों का हनन नहीं करता है।

इससे सुनिश्चित होगा कि मंडियों के नियमों के अधीन हुए बिना किसानों को उनकी उपज का बेहतर मूल्य मिले। इससे प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और निजी निवेश के साथ ही कृषि क्षेत्र में इँफ्रास्ट्र्क्चर विकसित होगा। रोजगार के ज्यादा अवसर पैदा होंगे।

विरोध : बड़ी कंपनियों को कृषि जिंसों के भंडारण की छूट मिल जायेगी, जिससे किसान उनके चंगुल में फंस जाएंगे। यह न सिर्फ किसानों बल्कि आम जन के लिए भी खतरनाक है। इसके चलते कृषि उपज जमा करने की कोई सीमा नहीं होगी। उपज जमा करने के लिए निजी निवेश को छूट होगी और सरकार को पता ही नहीं चलेगा कि किसके पास कितना स्टॉक है और कहां है।

किसानों का मानना है कि सरकार ने भले ही फसल स्टोरेज करने की किसानों को अनुमति दे दी हो पर किसानों के पास स्टोरेज व्यवस्था है ही नहीं जबकि व्यापारियों के पास स्टोरेज की मुक्कमल व्यवस्था है इसकी वजह से फसल की कीमत तय करने का अधिकार बड़े व्यापारियों या कंपनियों के पास आ जाएगा और किसानों की भूमिका कमजोर पड़ जाएगी।

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कृषि कानूनों से जुड़े विरोध के तमाम पहलूओँ को परखें तो पाएंगे कि आशंकाओँ के बादल गहरे हैं, पहली आशंका इस बात की है कि ये कानून निजी कंपनियों-कारपोरेट घरानों के लिए ही लाभकारी हैं किसान इनके चंगुल में फंस जाएंगे। सबसे बड़ा भय है कि इन कानूनों के लागू होने के बाद फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था खत्म कर दी जाएगी।

फिलहाल कानून को लेकर यूटर्न की सरकार की मंशा कतई नहीं है, तो किसान भी हर कीमत पर मांग मनवाने को अड़ गए हैं। चूंकि किसानों के आक्रोश की आंच में सियासी रोटियां सेंकने की कोशिशें शुरू हो गई हैं तो वहीं, सरकार मौजूदा तनातनी से उपजे समीकरणों को परख रही है हालात पर नजर रखे हुए है। सियासत-समीकरण-संवाद-स्थितियों के मुताबिक ही अगले कदम तय होंगे।

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किसानों की पांच बड़ी मांगे हैं

  1. कृषि के निजीकरण को प्रोत्साहित करने वाले-बड़े कारपोरेट घरानों को फायदा पहुंचाने वाले किसान हित विरोधी तीनों कृषि कानून वापस लिए जाएं।
  2. एक विधेयक के जरिए किसानों को ठोस आश्वासन दिया जाए कि एमएसपी और कन्वेंशनल फूड ग्रेन खरीद सिस्टम खत्म नहीं होगा।
  3. किसान संगठन इन तीन कृषि कानूनों के साथ ही केन्द्रीय बिजली बिल 2020 का भी विरोध कर रहे हैं। इनका मानना है कि इससे बिजली वितरण प्रणाली का निजीकरण किया जा रहा है। ऐसा हुआ तो सब्सिडी पर या फ्री बिजली सप्लाई की सुविधा खत्म हो जाएगी।
  4. खेती का अवशेष जलाने पर किसान को 5 साल की जेल और 1 करोड़ रुपये तक का जुर्माना वाले प्रावधानो को भी खत्म करने की मांग है।
  5. प्रदर्शनकारी यह भी मांग कर रहे हैं कि पंजाब में पराली जलाने के इल्जाम में गिरफ्तार किए गए, जुर्माना सह रहे किसानो को मुक्त किया जाए।

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