भारतीय पुलिस, लोकतंत्र और सिविल सोसाइटी
स्तम्भ: हाल के दिनों में पुलिस दमन-उत्पीड़न की बढ़ती हुई घटनाओं के चलते मन में कई सवाल उबल रहे हैं। तमिलनाडु के तूतिकोड़ी में पुलिस कस्टोडियल टार्चर और मौत की घटना हो, गुजरात के बड़ोदरा की घटना या फिर दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि की घटनायें सभी हमारे सामने ढेर सारे दहकते सवाल छोड़ गईं हैं। इस जनतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में इससे ज्यादा अखरने वाली बात सिविल सोसाइटी की इन मामलों में संदिग्ध चुप्पी है।
हाल ही की तीन घटनाओं और उस पर सिविल सोसाइटी की प्रतिक्रियाओं प्रतिरोधों को याद कीजिए तो मामला काफ़ी संगीन नज़र आता है। पहली घटना याद कीजिए अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक जॉर्ज फ्लोयेड की, अमेरिकी पुलिस द्वारा हत्या की जिस पर भारतीय सोशल मीडिया, अखबार, टेलीविजन चैनल सभी #ब्लैक लिव्स मैटर पर उबल पड़े थे।
सच मायने में घटना अमानवीयता की थी और भारतीय सिविल सोसाइटी का यह दायित्व बनता था कि वह इस मामले में वैश्विक एकता प्रदर्शित करे। भारतीय सिविल सोसाइटी ने अपना कर्तव्य इस मामले में बखूबी पूरा किया। दूसरी घटना याद कीजिए केरल में एक हथिनी को विस्फोटक खिला देने से मौत वाली। हमने देखा इसका भी बहुत विरोध हुआ। बल्कि काफ़ी कलात्मक तरीके के मीम वगैरह बनाकर सोशल मीडिया में चलाए गए। हालांकि इस बारे में कुछ लोगों का कहना था कि इस घटना को तूल देने के पीछे केरल सरकार को कोरोना से निपटने में मिल रही प्रशंसा को धूमिल करने की मंशा थी लेकिन सच में यह घटना भी बेहद अमानवीय थी जिसका विरोध बेहद जरूरी था।
तीसरी घटना याद कीजिए सुशांत सिंह राजपूत की कथित आत्महत्या की, हमने देखा कि सिविल सोसाइटी को इस घटना ने भी काफ़ी उद्वेलित किया। तीनों घटनाओं में यह देखा गया कि सोशल मीडिया, अखबार, टेलीविजन चैनल खूब जोर-शोर से बोले लेकिन यह देखकर दुख और हैरानी होती है कि कस्टोडियल टार्चर और मौत की तूतिकोड़ी, बड़ोदरा आदि घटनाओं पर भारतीय सिविल सोसाइटी ने संदिग्ध चुप्पी अख्तियार कर ली।
इस संदिग्ध चुप्पी के दो कारण हो सकते हैं पहला-ये घटनायें लोगों को पता ही ना चली हों दूसरा-इसे जानबूझकर या डरकर नजरअंदाज कर दिया गया हो। हाल के वर्षों में घटित घटनाओं और उस पर सिविल सोसाइटी की चयनात्मक प्रतिक्रियाओं से दूसरा कारण ही ज्यादा मजबूत लगता है। इन मामलों पर छोटी-छोटी खबरें न्यूज़ की शक्ल में दिखी किन्तु आलोचना-प्रत्यालोचना, टिप्पणी और बातचीत नहीं के बराबर दिखी। एक जनतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में किसी मुद्दे पर असहमति आलोचना संवाद बेहद जरुरी है, अगर हम नहीं बोलेंगे तो हम अपना हासिल किया हुआ जनतंत्र खो देंगे।
नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टॉर्चर की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में कस्टोडियल डेथ की रोजाना पांच घटनाएं होती हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि 2019-20 में 1731 मौतें हुई। 1731 में 1606 मौतें जुडिशल कस्टडी में हुई हैं और 125 मौतें पुलिस कस्टडी में। इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 125 मौतों में उत्तर प्रदेश 14 मौतों के साथ पुलिस कस्टडी में हुई मौतों में सबसे ऊपर है। दूसरे नंबर पर तमिलनाडु, पंजाब 11 और बिहार 10 के साथ तीसरे नंबर पर है।
यह बताया कि 125 मौतों में 93 मौतें कथित तौर पर टॉर्चर के चलते हुईं या फिर उन कारणों से जिन्हें संदेहास्पद कहा जा सकता है। एक और रिपोर्ट- स्टेटस ऑफ़ पुलिसिंग इन इंडिया-2019 जिसे कॉमन कॉज और सीएसडीएस ने संयुक्त रूप से प्रकाशित किया है, को देखना कई मायनों में महत्वपूर्ण होगा। कॉमन कॉज और सीएसडीएस मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से सपोर्टेड फंडेड गैरसरकारी संस्थान हैं। इस रिपोर्ट के लिए 21 राज्यों में 12000 पुलिसकर्मियों और उनसे जुड़े 10000 परिवार के सदस्यों को भी शामिल किया गया।
इस रिपोर्ट में पुलिस कर्मियों की स्थितियों, संसाधनों, काम करने के तरीकों और उनकी मानसिकता आदि का विस्तृत अध्ययन किया गया। पुलिस कस्टडी और जुडिशल कस्टडी दोनों अलग-अलग हैं। दोंनो को मिलाकर कस्टोडियल आंकड़े बनते हैं। पुलिस कस्टडी का मतलब स्टेशन के लॉकअप में हुई मौतों से है। इन मौतों के वार्षिक आंकड़ों को देखें तो यह काफी चौंकाने वाले हैं- 2011-12 में 108, 2012-13 में 118, 2013-14 में 93, 2014-15 में 97, 2015-16 में 92, 2016-17 में 145, 2017-18 में 146, 2018-19 में 136 मौतें।
पुलिस कस्टडी के साथ यदि जुडिशल कस्टडी के आंकड़ों को भी मिला दिया जाए तो पिछले 3 सालों में 5476 मौतें हुई हैं। ह्यूमन राइट्स वॉच-2016 की रिपोर्ट बताती है- पुलिस वालों का मानना है इनमें से ज्यादातर मौतें सुसाइड, बीमारी और प्राकृतिक कारणों से हुईं जबकि इस बारे में उनके परिवारवालों का कहना था कि उनकी मौतें पुलिस टॉर्चर के चलते हुईं। ये वे आंकड़े हैं जो रिपोर्ट किये गये, वास्तविक आंकड़े निश्चित ही इससे भिन्न होंगे।
दहाड़ता हुआ सवाल यह है कि इतनी बड़ी संख्या में अमानवीय कस्टोडियल मौतों के पीछे कौन से कारक हैं। स्टेटस ऑफ़ पुलिसिंग इन इंडिया-2019 की रिपोर्ट कुछ कारणों की पड़ताल करती है। इस सर्वे में पाया गया कि 74 प्रतिशत पुलिस वाले अपराधियों के प्रति बड़े कारणों के लिए वायलेंस करना गलत नहीं मानते हैं।
5 में से 4 पुलिसकर्मियों का मानना है कि सीरियस केसेस में कन्फेशन के लिए पुलिस का अपराधियों को मारना पीटना, वायलेंस करना बिल्कुल गलत नहीं है। यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि 50 प्रतिशत आम लोग भी पुलिस वालों के अपराधियों के प्रति इस किस्म के व्यवहार को गलत नहीं मानते हैं। इसी सर्वे में पाया गया कि कर्नाटक, छत्तीसगढ़, बिहार और नागालैंड की पुलिस की मजबूत मान्यता है यदि वे अपराधी को सजा देते हैं तो यह कोई गलत बात नहीं।
पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, केरल और पंजाब पुलिस थोड़ी सी बात पर भी अपराधियों के साथ सख्ती करती है। 36 प्रतिशत पुलिस वालों ने माना कि यह छोटे-मोटे अपराध का अल्टरनेट है और कनविक्ट की हत्या हीनिअस क्राइम्स में न्यायिक प्रक्रिया में होने वाली देरी के मुकाबले सही है। उनका मानना है कि यह तरीका न्यायिक प्रक्रिया से इतर झटपट मामला सुलझाने वाला है। न्यायिक प्रक्रिया में देर होती है इसलिए कई बार इनफॉर्मल जस्टिस जरूरी है। यह सब जनता का भरोसा बनाये रखने के नाम पर भी किया जाता है।
पुलिस के कस्टोडियल टॉर्चर और वायलेंस के कई कारण जान पड़ते हैं। जो पहला कारण लगता है वह है- भारतीय पुलिस सिस्टम औपनिवेशिक शासन तंत्र की देन है। इस कारण से पुलिस सिस्टम में औपनिवेशिक दौर से ही कस्टोडियल टॉर्चर और वायलेंस का चलन चला आ रहा है जिसमें रिफॉर्म की बेहद जरूरत है। हमारे यहां कस्टोडियल टॉर्चर और वायलेंस दरअसल उस पुरातन सिस्टम की सबसे बड़ी खामी हैं जिसमें पहले पकड़ना और उसके बाद इन्वेस्टिगेट करना आज भी जारी है। जबकि दुनिया भर में विकसित देशों में इन्वेस्टिगेशन पहले होते हैं और पकड़-धकड़ बाद में। कस्टोडियल टॉर्चर दरअसल उस दबाव की भी उपज है जिसमें परफॉर्म करना और रिजल्ट देना बेहद जरुरी होता है।
दूसरा बड़ा कारण लगता है- पुलिस वालों पर अतिरिक्त काम का दबाव। स्टेटस ऑफ़ पुलिसिंग इन इंडिया-2019 की रिपोर्ट बताती है कि एक पुलिस वाला प्रतिदिन 14 घंटे ड्यूटी करता है वह भी पूरे हफ्ते, साथ ही यह अनिश्चितता भी होती है कि उन्हें काम पर कभी भी बुलाया जा सकता है। पुलिस स्टाफ की कमी इसका एक बड़ा कारण है।
इस किस्म की अमानवीय कार्य पद्धतियां भी इस किस्म की मानसिकता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती होंगी अन्यथा जो आदमी पुलिस में भर्ती होने से पहले चीटी तक मारने में संकोच करता हो वह अचानक हाथी का शिकारी हो जाए तो यह व्यक्तिगत उपलब्धि भर नहीं। इसमें व्यवस्था का कमाल भी जरूर शामिल होगा।
तीसरा कारण लगता है-माडर्न ट्रेनिंग का आभाव। स्टेटस ऑफ़ पुलिसिंग इन इंडिया-2018 की रिपोर्ट बताती है- केवल 06% पुलिस वालों को ही ट्रेनिंग दी गई है। चौथा बड़ा कारण लगता है-न्यायिक प्रक्रिया। हमारे न्यायालयों में पेंडिंग क्रिमिनल केसेस की संख्या 2.2 करोड़ हैं। जिनमें से 60 प्रतिशत साल या साल भर से ज्यादा समय से चल रहे हैं। विलंबित न्याय की प्रक्रिया त्वरित कार्रवाई वाली पुलिसिया पद्धति के समर्थन का भी कई बार कारण बनती है।
इसीलिए कस्टोडियल डेथ, रेप, टार्चर आदि अमानवीयताओं को रोकने के लिए नियमों कानूनों और मानसिकता में भारी बदलाव की जरूरत है। भारतीय पुलिस रिफार्म के लिए निम्न पांच बिंदुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए। पहला-पुलिस इंफ्रास्ट्रक्चर बेहतर किया जाय। अन्य संसाधनों के साथ पुलिसवालों को बॉडी कैमरा पहनना अनिवार्य किया जाय। यह सिर्फ प्रताड़ित नागरिकों के लिए ही नहीं बल्कि पुलिस सुरक्षा के लिए भी बेहतर होगा। इसके जरिए दोनों की मनमानी पर अंकुश लगेगा। दूसरा-भारत में पुलिसिंग को मॉडर्न करने की जरूरत है।
मॉडर्न ट्रेनिंग, साइंटिफिक इन्वेस्टिगेशन, साइकोलॉजिकल काउंसलिग़ की ट्रेनिंग भी दी जाय। यह मॉर्डनाइजेशन पुलिस व्यवस्था के लिए, पुलिस वालों के लिए, भारतीय नागरिकों के लिए और भारतीय जनतंत्र के लिए बेहतर होगा। तीसरा-विलंबित न्यायिक प्रक्रिया में सुधार किया जाय, जिससे पुलिस और जन समाज में दंड के प्रति भय और न्याय के प्रति भरोसा बढ़े। चौथा-सामाजिक मान्यता मानसिकता में बदलाव के प्रयास किये जांय।
बीट्राइस जौरेगी ने अपने एक लेख-बीटिंगस, बीकंस एंड बिग मेन: पुलिस डिसइम्पावरमेंट एंड डीलेजिटिमाईजेशन इन इंडिया में लिखा है कि वायलेंस का रूट हमारी अपनी पारिवारिक व्यवस्था में है। जहां एक हायरार्की सिस्टम है। हम सबको पालतू बनाने के लिए जहां वायलेंस बेहद सामान्य तरीके से इस्तेमाल किया जाता है। दरअसल यह कल्चरल करेक्शन ऑफ़ मिसबिहेवियर ही पुलिस ब्रूटालिटी जैसी चीजों को लेजिटिमेसी देने का काम करता है।
संभवत इसी कारण से हम इसका कड़ा विरोध नहीं कर पाते क्योंकि नैतिक तौर पर हम कहीं न कहीं इसे सही मानते हैं। हमारा धर्म, जाति, व्यवस्था, संस्कृति, पापुलर कल्चर, मनोरंजन उद्योग आदि भी इसी का समर्थन करते हैं यदि हम इसे किसी भी रूप में ग्लोरीफाई करते हैं तो हम इसके विरोध की नैतिकता खो देते हैं।
पांचवा- प्रिवेंशन ऑफ़ टार्चर बिल लाया जाय, इसके विरुद्ध कड़ा कानून बने। कस्टोडियल डेथ टॉर्चर को पुलिस द्वारा शक्ति के दुरुपयोग की तरह देखा जाए। सच मायने में यह मानव अधिकारों का उल्लंघन है इसकी निंदा की जानी चाहिए। इसे कतई सेलिब्रेट नहीं किया जाना चाहिए। इसका किसी भी रूप में पक्ष नहीं लिया जाना चाहिए इसीलिए सिविल सोसाइटी को इस तरह के मामलों में चुप्पी तोड़कर इसके विरुद्ध बोलने की जरुरत है, वॉच डॉग की अपनी बौद्धिक भूमिका निभाने की जरूरत है जिससे हमारा जनतंत्र मजबूत हो सके।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक एनसीईआरटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)