वन नेशन वन इलेक्शन की राह पर आगे बढ़ती भारत की संघीय व्यवस्था
नई दिल्ली ( दस्तक ब्यूरो ) : भारतीय पीएम नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली केंद्रीय कैबिनेट ने ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ प्रस्ताव को हाल ही में मंजूरी दे दी है। यह बिल संसद के आगामी शीतकालीन सत्र में पेश किए जाने की संभावना है। यह फैसला ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ पर बनी उच्चस्तरीय समिति की रिपोर्ट कैबिनेट के सामने पेश होने के बाद आया है। वन नेशन वन इलेक्शन का प्रस्ताव, लोकसभा और राज्य विधानसभा के चुनावों को एक साथ कराने की दिशा में एक बड़ा कदम है। यदि वन नेशन वन इलेक्शन आधिकारिक तौर पर एक राजनीतिक वास्तविकता बनती है तो सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव एक साथ कराए जायेंगे, एक चुनावी बूथ में दो मशीनें होंगी और वोटर एक मशीन में सांसद चुनेगा तो दूसरी में विधायक। 11 घंटे की वोटिंग में प्रधानमंत्री भी तय हो जाएगा और सारे मुख्यमंत्री भी।
वन नेशन वन इलेक्शन पर पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था। मोदी सरकार 2.0 ने इस समिति का गठन किया था ताकि एक साथ चुनाव कराने की व्यवहार्यता के बारें में पता किया जाये। यह सत्ताधारी दल बीजेपी के लोकसभा चुनावी घोषणा पत्र के प्रमुख वादों में से भी एक था। समिति ने इस साल मार्च में राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। समिति की 18,626 पन्नों की विस्तृत रिपोर्ट में पहला कदम लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने का सुझाव दिया गया है, जिसके लिए राज्यों की सहमति आवश्यक नहीं होगी, बल्कि संविधान संशोधन की आवश्यकता होगी। 47 राजनीतिक दलों ने अपने विचार समिति के साथ साझा किए थे जिनमें से 32 राजनीतिक दल ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के समर्थन में थे।
रिपोर्ट में कहा गया है है “केवल 15 राजनीतिक दलों को छोड़कर शेष 32 दलों ने न केवल साथ-साथ चुनाव प्रणाली का समर्थन किया बल्कि सीमित संसाधनों की बचत, सामाजिक तालमेल बनाए रखने और आर्थिक विकास को गति देने के लिए ये विकल्प अपनाने की ज़ोरदार वकालत की है। उल्लेखनीय है कि जब आज़ादी के बाद देश में पहली बार 1951-52 में चुनाव हुए थे, तब लोकसभा चुनाव और सभी राज्यों में विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए थे। इसके बाद तीन और टर्म्स – 1957, 1962 और 1967 – में यही क्रम रहा। एक अपवाद के साथ, जब 1959 में केरल की तत्कालीन नंबूदरीपाद सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया गया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा। 1968 और 1969 में कुछ राज्यों की विधानसभाएं भंग कर दी गईं और आख़िर में साल 1970 में लोकसभा भी भंग हो गई। ऐसे में देश में चुनावी प्रबंधन पर पुनर्विचार जरूरी हो गया था।
वन नेशन वन इलेक्शन के संबंध में सरकार के समक्ष चुनौती:
एक देश-एक चुनाव विधेयक पर मुहर तभी लगेगी, जब इससे संबंधित विधेयक संसद के दोनों सदनों से पारित हो जायेगा । इसके लिए संविधान में संशोधन जरूरी होगा। संविधान के अनुच्छेद 83, 85, 172, 174 और 356 में संशोधन करना होगा। सरकार के सामने बड़ी चुनौती संविधान संशोधन की होगी।। इसके लिए दो तिहाई बहुमत होना जरूरी है। आम चुनाव में संविधान बदलने का मुद्दा भी तीखे विमर्श का कारण रहा है। विपक्ष इसे हथियार बना सकता है और नैरेटिव सेट कर सकता है। सरकार को देश के संघीय व्यवस्था को भी क्षति न होने देने के मुद्दे पर देश और राजनीतिक दलों को विश्वास में लेना होगा।
वन नेशन वन इलेक्शन के विपक्ष में तर्क :
इस प्रस्ताव के विरोधियों की दलील है कि एक साथ चुनाव करवाने से देश के संघीय ढांचे पर सीधा असर पड़ेगा, क्षेत्रीय मुद्दे नज़रअंदाज हो जाएंगे और जनता के प्रति जवाबदेही पर ख़तरा होगा। भारत में 7 राष्ट्रीय पार्टियां और 50 से ज़्यादा क्षेत्रीय पार्टियां हैं। चुनावी ट्रेंड्स के आधार पर कहा जा सकता है कि जनता आम चुनाव और विधानसभा चुनाव में अलग-अलग मांगों, अलग-अलग एजेंडे के लिए वोट करती है। राष्ट्र के मुद्दे अलग हैं, राज्य के अलग, हर राज्य के भी अलग। आम चुनावों के दौरान विदेश नीति, आयकर या राष्ट्रीय सुरक्षा की चर्चा होती है जबकि लोकल बॉडीज़ और प्रदेश के चुनावों के दौरान पानी, सड़कों और ऐसी सुविधाओं से जुड़े मुद्दे एजेंडे पर हावी रहते हैं। ऐसे में हर चुनाव को एक साथ कराना तार्किक नही होगा। क्षेत्रीय दल ऐसा कहते हैं कि अगर लोकसभा और राज्यों की विधानसभा के चुनाव एक साथ करवाए गए, तो राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे ढक जाएंगे। राज्य स्तर पर बार-बार चुनाव होने से क्षेत्रीय मुद्दों पर जो ध्यान दिया जाता है, वो केवल राष्ट्रीय मुद्दों पर केंद्रित हो जाएगा। राष्ट्रीय पार्टियां भर-भर के डबल इंजन वाली सरकार का हवाला देंगी और इससे क्षेत्रीय पार्टियों के वोटर बंटेंगे। राज्य सरकारों की स्वायत्ता पर असर पड़ेगा। सीधे-सीधे केंद्र सरकार में जो भी प्रमुख पार्टी होगी, एक नीतिगत फ़ैसले की आड़ में उसे ज़्यादा फ़ायदा हो सकता है। समय-समय पर चुनाव होते रहने की वजह से जनप्रतिनिधियों को लगातार जवाबदेह बने रहना पड़ता है। कोई भी पार्टी या नेता एक चुनाव जीतने के बाद निरंकुश होकर काम नहीं कर सकता। चुनाव निकालना है, तो बस प्रचार से काम नहीं चलेगा। उसके लिए काम भी कराना पड़ेगा लेकिन अगर एक ही पार्टी को प्रभुत्व मिल जाए या एक नेता को ये भरोसा हो जाए कि वही सब कुछ है तो इससे निरंकुशता की आशंका बढ़ जाएगी।
वन नेशन वन इलेक्शन के पक्ष में तर्क:
जो इस धारा के पक्ष में है, उनका तर्क है कि ख़र्च कम होगा, सुविधा होगी और काम में बाधा नहीं होगी। देश में जब भी, जहां भी चुनाव होते हैं, तब एक आदर्श आचार संहिता लागू की जाती है और चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद सरकार किसी प्रोजेक्ट की घोषणा नहीं कर सकती, नई स्कीमें नहीं शुरू कर सकती, कोई वित्तीय मंज़ूरी या नई नियुक्ति नहीं कर सकती है। अब हर साल ही कोई न कोई चुनाव पड़ता है, तो हर साल ही आदर्श आचार संहिता लागू की जाती है। प्रशासन तो काम में बझता ही है, नेतागण भी प्रचार में ही जुटे रहते हैं। चुनाव के दौरान ज़रूरी नीतिगत फ़ैसले नहीं लिए जाते और कई योजनाओं को लागू करने में समस्या आती है। इसलिए सीधे-सीधे विकास कार्य प्रभावित होते हैं। इसलिए कहा जाता है कि अगर देश में एक ही बार में लोकसभा और विधानसभा चुनाव हो जाएं, तो आदर्श आचार संहिता कुछ ही समय तक लागू रहेगी। इसके बाद धड़ल्ले से ‘विकास ही विकास’ होगा। फिर देश में चुनाव के दौरान शिक्षकों और सरकारी मुलाज़िमों की सेवाएं ली जाती हैं। भारी संख्या में पुलिस और सुरक्षा बलों की तैनाती होती है। ऐसा भी कहा जाता है कि अगर सभी चुनाव साथ होंगे, तो सरकारी मुलाज़िमों और सुरक्षा बलों को बार-बार चुनावी ड्यूटी पर लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। उनका समय बचेगा, वो अपनी ड्यूटी ठीक से कर पाएंगे।
सेंटर फ़ॉर मीडिया स्टडीज़ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 1951-52 में भारत के पहले चुनाव के दौरान कुल 68 चरण हुए थे और लागत आई थी, 10.5 करोड़ रुपये। 2019 में यही लागत बढ़कर 50,000 करोड़ पहुंच गई और 2024 के लिए इसी रिपोर्ट में 1.35 लाख करोड़ का अनुमान बताया गया है। इसके आलावा, प्रति मतदाता ख़र्च भी बढ़ा है. जो 1951 में प्रति मतदाता 6 पैसे था, 2014 में 46 रुपये हो गया है। एक देश-एक चुनाव के पक्षकार कहते हैं कि जितनी बार चुनाव होता है, देशवासियों का उतना ही पैसा ज़ाया होता है. सरकारी ख़ज़ाने पर आर्थिक बोझ बढ़ता है। इसीलिए एक बार में चुनाव हो जाए, तो एक ही बार ख़र्चा होगा।
वन नेशन वन इलेक्शन पर कोविंद समिति की सिफारिशें:
वन नेशन वन इलेक्शन’ राम नाथ कोविंद उच्च समिति ने इस विषय पर अपनी जो महत्वपूर्ण सिफारिशें दीं उनमें से प्रमुख हैं : आजादी के बाद पहले दो दशकों तक साथ में चुनाव न कराने का नकारात्मक असर अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाज पर पड़ा है. पहले हर दस साल में दो चुनाव होते थे, अब हर साल कई चुनाव होने लगे हैं। इसलिए सरकार को साथ-साथ चुनाव के चक्र को बहाल करने के लिए क़ानूनी रूप से तंत्र बनाना करना चाहिए।चुनाव दो चरणों में कराए जाएं। पहले चरण में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए चुनाव कराए जाएं। दूसरे चरण में नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनाव हों। इन्हें पहले चरण के चुनावों के साथ इस तरह कोऑर्डिनेट किया जाए कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव के सौ दिनों के भीतर इन्हें पूरा किया जाए। इसके लिए एक मतदाता सूची और एक मतदाता फोटो पहचान पत्र की व्यवस्था की जाए। इसके लिए संविधान में ज़रूरी संशोधन किए जाएं। इसे निर्वाचन आयोग की सलाह से तैयार किया जाए।
समिति की सिफ़ारिश के अनुसार त्रिशंकु सदन या अविश्वास प्रस्ताव की स्थिति में नए सदन के गठन के लिए फिर से चुनाव कराए जा सकते हैं। इस स्थिति में नए लोकसभा (या विधानसभा) का कार्यकाल, पहले की लोकसभा (या विधानसभा) की बाकी बची अवधि के लिए ही होगा। इसके बाद सदन को भंग माना जाएगा। इन चुनावों को ‘मध्यावधि चुनाव’ कहा जाएगा, वहीं पांच साल के कार्यकाल के ख़त्म होने के बाद होने वाले चुनावों को ‘आम चुनाव’ कहा जाएगा।
कोविंद समिति के अनुसार कैसे कराए जाएं चुनाव : आम चुनावों के बाद लोकसभा की पहली बैठक के दिन राष्ट्रपति एक अधिसूचना के ज़रिए इस अनुछेद के प्रावधान को लागू कर सकते हैं। इस दिन को “निर्धारित तिथि” कहा जाएगा। इस तिथि के बाद, लोकसभा का कार्यकाल ख़त्म होने से पहले विधानसभाओं का कार्यकाल बाद की लोकसभा के आम चुनावों तक ख़त्म होने वाली अवधि के लिए ही होगा. इसके बाद लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के सभी एक साथ चुनाव कराए जा सकेंगे। एक समूह बनाया जाए जो समिति की सिफारिशों के कार्यान्वयन पर ध्यान दे। लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए ज़रूरी लॉजिस्टिक्स, जैसे ईवीएम मशीनों और वीवीपीएटी खरीद, मतदान कर्मियों और सुरक्षा बलों की तैनाती और अन्य व्यवस्था करने के लिए निर्वाचन आयोग पहले से योजना और अनुमान तैयार करे। वहीं नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनावों के लिए ये काम राज्य निर्वाचन आयोग करे।