भारतीय अभिनय आकाश में इरफ़ान खान सा चमकने वाला सितारा दूजा नहीं आएगा “मानो या न मानो”
इरफ़ान खान पर विशेष
स्तम्भ: साल 2005 की बात है, मैं आठवीं कक्षा सफलतापूर्वक लांघने के बाद, साहित्य और राजनीति के पुरोधावों की धरती इलाहाबाद में आगे की पढ़ाई करने वास्ते चला गया था । बचपन से ही मुझे हिन्दी फिल्मों का बड़ा शौक था । उन दिनों फ़िल्मी सितारों का नाम मेरी जुबान पर यूँ धरा रहता था जैसे सीमा पर तैनात सैनिक के बन्दूक में गोली । कोई हरकत हुयी, खटका दबा और गोली बाह । तमाम मंझे हुए कलाकारों के नाम की एक लम्बी सूची उनकी हस्ताक्षर फिल्मों या यूँ कहें उनके सिग्नेचर रोल के साथ, मेरे जेहन में बनी हुयी काफी सहेजकर रखी थी । उन दिनों हर रविवार शाम 4 बजे दूरदर्शन पर कोई फिल्म दिखाई जाती थी । एक रविवार अपने कुछ दोस्तों के साथ, होस्टल में क्रिकेट मैच देखने के लिए चुपके से रखे गए स्वेत श्याम टेलीवजन पर, मैं कोई फिल्म देख रहा था । तभी फिल्म के बीच में कमर्शियल ब्रेक आया और “हच” नाम की टेलिकॉम कम्पनी का प्रचार हमारे सामने था।
“मानो या न मानो” का दमदार संवाद बोलते हुए छोटा रिचार्ज का प्लान समझाता हुआ एक अभिनेता स्क्रीन पर दिखाई दिया। वैसे तो प्रचार में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी लेकिन उस अभिनेता का बोलने का अंदाज़ मुझे भा गया मैंने अपने दोस्तों से कहा यार ये कलाकार “मानो या न मानो” बड़ा अच्छा बोलता है । उसमें से एक दोस्त मुझपे हैरान होते हुए मुझसे पूछ बैठा – “अबे भाई तुम इनका नाम नहीं जानते क्या ?” मैंने कहा- “नहीं बे ये कोई फ़िल्मी कलाकर थोड़ी है”। उसने कहा – “अबे पागल हो गये हो ? ये अभिनेता इरफ़ान खान है। इसने इलाहाबाद विश्वविद्यलय पर बनी फिल्म “हासिल” में गुंडे का किरदार निभाया है, भाई बहुत धाकड़ बोलिस है इलाहाबादी” ।
उस दिन कुछ इस अंदाज़ में पहली बार मुझे इरफ़ान खान का परिचय दिया गया था । उन दिनों इन्टरनेट इतना सर्वसुलभ नहीं था कि कोई भी जानकारी वन क्लिक पर उपलब्ध हो जाये । बड़ी मेहनत और शिद्दत से जानकारियां जुटानी पड़ती थीं । मैं लगातार पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में इरफ़ान खान को ढूंढ ढूंढकर पढ़ता रहा और पन्ना दर पन्ना मैं इस युग पुरुष का दीवाना बनता चला गया ।
राजस्थान के जयपुर की धरती पर साल १९६५ में जन्मा ‘शहज़ादा इरफ़ान अली खान’ बचपन से ही भावुक और विचारवान था । पिता के साथ शिकार पर जाते हुए बालक शिकार किये हुए जानवर को देखकर रो पड़ता था और मन ही मन सोचता था कि इस मृतक जानवर के परिवार का अब क्या होगा! शायद यही वजह रही कि यह बालक कभी मांसाहारी नहीं बना । इसकी सात्विक प्रवृत्ति को देखकर पिता “पठान के घर में ब्राह्मण जन्मा है” कहकर चुटकी लिया करते थे । बाद के दिनों में साहबजादे इरफ़ान अली खान अपना नाम छोटा करते हुए इरफ़ान खान बन गए और हिन्दी सिनेमा में भूचाल मचाने के लिए एनएसडी में प्रवेश ले लिया ।
साल १९८८ की सलाम बॉम्बे से एक धारदार जबर और धाकड़ अभिनय लेकर अभिनेता इरफ़ान खान ने जो आगाज़ किया था, उसके बाद हिन्दी सिनेमा के इतिहास में न जाने कितने पन्ने इरफ़ान खान के नाम से जुड़ते चले गए । मैंने इरफ़ान की लगभग हर फिल्म देख डाली । मुझे अच्छे से याद है ‘हासिल’ का रणविजय जब अपनी आँखों को दोष देते हुए अभिनेता जिमी शेरगिल से संवाद करता है तब मेरा गला इस महान अभिनय से तृप्त होकर रुंध जाता है । जब मैंने ‘मकबूल’ को स्क्रीन पर देखा था तब मुझे कत्तई यकीन नहीं हुआ था की ये आदमी कभी किसी को हंसा भी सकता है लेकिन जब ‘क्रेजी ४’ में इरफ़ान को देखा तो मेरा सारा भ्रम टूट गया था।
मुझे उसी दिन एहसास हो गया था कि हिन्दी फिल्मों का असली ‘मदारी’ यही शख्स है जो ‘हिन्दी मीडियम’ और ‘इंग्लिश मीडियम’ दोनों का चहेता है । ‘पान सिंह’ आर्मीमैन के बाद ‘किलर’ ये इस महात्मा के आलावा कौन कर सकता था भला । आपके लिए ‘थैंक्यू’ शब्द बहुत छोटा है इरफ़ान साब आपकी मौजूदगी से एक के बाद एक नायाब हीरेनुमा किरदार भारतीय फिल्म उद्योग की फेहरिस्त में जुड़ता चला गया ।
इरफ़ान खान के चहेते उस “किस्से” को कैसे भूल सकते हैं! जो एक अवार्ड फंक्शन में इरफ़ान साब ने शो के होस्ट शाहरुख़ खान पर सवाल उठाते हुए पूरी महफ़िल को चौंका दिया था । चेहरे पर इतनी वास्तविक भाव भंगिमा और जुबान इतनी सधी हुयी कि किसकी मजाल जो भाप लेता कि ये सब अभिनय हो रहा है । वो तो बाद में शाहरुख़ और इरफ़ान खान ने स्वयं जता दिया था वरना दर्शक इस वाकये को बोलीवूड से इरफ़ान साब के शिकायत के रूप में ही याद रखते ।
आज जब मैं इस आर्टिकल को लिख रहा हूँ तब मेरा हाथ काँप रहा है और मेरे नेत्र अश्रुपूर्ण हो गए हैं । मैं और मेरे जैसे सभी इरफ़ान प्रशंसकों ने कभी नहीं सोचा था कि हिन्दी सिनेमा का ये दीपक इस कदर बुझेगा कि चमकती हुयी अर्धरात्रि के बाद की बेला हमें यूँ घनघोर अँधेरे में काटनी होंगी ।
इरफ़ान साब अद्वितीय थे, उनका अंदाज़ ही सबसे अलग था इत्तेफाक तो देखिये कि जीवन भर जिस फिल्म में भी अभिनय किया उस फिल्म को लोगों की जुबां पर ला दिया और अंत समय में ‘न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर’ नाम की ऐसे मरदूद ‘रोग’ से जूझे कि उसे भी फेमस करते हुए हम सबसे अलविदा कह गए । फ़िल्में अब भी बनती रहेंगी अभिनेता आते-जाते रहेंगे लेकिन तमाम दिलों की धड़कन रहे इरफ़ान खान साब ?
सोशल मीडिया पर धर्म- देश के सीमाओं को भुलाकर जिस कदर इरफ़ान साब के लिए लोग जार जार हुए जा रहे हैं वो किसी साधारण मानव के बस की नहीं। आपको जन्नत नसीब हो इरफ़ान दादा ।