विवेक ओझा

ईश्वर चंद्र विद्यासागर: बंगाल में सामाजिक सुधारों का जननायक

( जयंती विशेष )

नई दिल्ली ( विवेक ओझा) : आधुनिक भारत के सामाजिक धार्मिक पुनर्जागरण आंदोलन से शायद ही ऐसा कोई होगा जो परिचित न हो। भारत में स्वतंत्रता, समानता, अधिकार, तर्क और चिंतन शक्ति के पक्ष में कई सुधारकों ने काम किया था। उन्हीं में से एक महान व्यक्तित्व के सुधारक थे ईश्वर चंद्र विद्यासागर। आज उनकी बर्थ एनिवर्सरी है। विद्यासागर एक जाने-माने लेखक, बुद्धिजीवी और मानवता के एक कट्टर अनुयायी थे। वो बंगाल में पुनर्जागरण के आधार स्तंभ थे। उन्होंने बंगाल की शिक्षा प्रणाली में एक क्रांति लाई। विद्यासागर ने बांग्ला भाषा परिष्कृत किया और इसे समाज के आम तबके के लिए सुलभ बनाया। लगभग सभी विषयों में अपने विशाल ज्ञान के कारण उन्हें ‘विद्यासागर’ (ज्ञान के सागर) की उपाधि डी गयी थी।

कवि माइकल मधुसूदन दत्त, ईश्वर चंद्र के बारे में लिखते हुए कहा: “प्रतिभा और ज्ञान एक प्राचीन ऋषि का, एक अंग्रेज की ऊर्जा और एक बंगाली मां का दिल”। ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने प्रतिष्ठित बंगाली कवि माइकल मधुसूदन दत्ता को फ्रांस से इंग्लैंड जाकर बार की पढ़ाई करने में मदद की। उन्होंने भारत लौटने पर उनका स्वागत भी किया और उन्हें बंगाली में कविता लिखने के लिए प्रेरित किया, जिससे इस भाषा में कुछ सबसे प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियाँ बनीं।

बांग्ला लिपि और बांग्ला भाषा के पितामह कहे जाने वाले ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने अपने जीवन के अंतिम 18 वर्ष व्यतीत करने के लिए झारखंड स्थित कर्माटांड का चयन किया जो अब जामताड़ा जिला में स्थित है। वहां उन्होंने अपने निवास स्थान का नाम ‘नंदन कानन’, रखा था। करमाटांड में वे केवल संथालों के साथ रहे ही नहीं बल्कि उन्होंने उनके सामाजिक उत्थान के लिए भी काफी प्रयास किया। उन्होंने संथाल लड़कियों के लिए सबसे पहला औपचारिक विद्यालय प्रारम्भ किया जो शायद देश का संभवत: पहला औपचारिक बालिका विद्यालय था। उन्होंने इन आदिवासी लोगों के लिए चिकित्सा प्रदान करने के लिए एक नि: शुल्क होम्योपैथी क्लिनिक खोला। उन्होंने जनजातीय आबादी के वयस्कों को भी शिक्षित करने की कोशिश की। उन्हें जनजातीय समाज द्वारा भगवान की तरह पूजा जाता था। उनके सम्मान में अब करमाटांड़ स्टेशन का नाम ‘विद्यासागर रेलवे स्टेशन’ कर दिया गया है।

ईश्वर चंद्र विद्यासागर की जीवन यात्रा:

ईश्वर चंद्र बंदोपाध्याय का जन्म 26 सितंबर 1820 को वीरसिंघा गांव जो तत्कालीन हूगली (वर्तमान में मिदनापुर जिला, पश्चिम बंगाल) में था , में हुआ था। विद्यासागर ने बेहद गरीबी में अपने बचपन बिताया। लेकिन गरीबी उनकी सोच, विजन, लक्ष्य को छू तक न सकी। उनके पिता ठाकुरदास बंदोपाध्याय और मां भगवती देवी बहुत धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे। ईश्वर चंद्र एक मेधावी छात्र थे। ज्ञान के प्रति उनकी जिज्ञासा इतनी तीव्र थी कि वे स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठकर पढ़ा करते थे क्योंकि उनके पास घर में जलाने के लिए गैस लैंप के पैसे नहीं थे।।साल 1839 में, ईश्वर चंद्र विद्यासागर क़ानून की परीक्षा उत्तीर्ण करने में सफल रहे। 1841 में, इक्कीस साल की उम्र में, ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने फोर्ट विलियम कॉलेज के संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष के रूप में सेवा प्रारम्भ किया था। 1841 में फोर्ट विलियम कालेज में पचास रुपए मासिक पर उन्हें मुख्य पंडित के पद पर नियुक्ति मिली। तभी वे ‘विद्यासागर’ की उपाधि से विभूषित हुए। 1851 में वे उस कालेज में मुख्य अध्यक्ष बने। 1855 में असिस्टेंट इंस्पेक्टर, फिर पांच सौ रुपए मासिक पर स्पेशल इंस्पेक्टर नियुक्त हुए। 1858 में मतभेद होने पर फिर त्यागपत्र दे दिया फिर साहित्य तथा समाजसेवा में लग गए।

ईश्वर चंद्र विद्यासागर द्वारा किए सुधार कार्य:

ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह की अवधारणा शुरू की और बाल-विवाह और बहुविवाह प्रथा के उन्मूलन का मुद्दा उठाया। उन्होंने निम्न जाति के छात्रों के लिए कॉलेजों व अन्य शैक्षणिक संस्थानों के दरवाजे खोले जो पहले केवल ब्राह्मणों के लिए आरक्षित किये गए थे। अपनी विशाल उदारता और सहृदयता के कारण लोग उन्हें “दयासागर” (दया के सागर) के रूप में संबोधित करने लगे। आज शायद ही ऐसा कोई बांग्ला मानुष होगा जिसने विद्यासागर के बारे में सुना नहीं होगा या जिसने अपनी शिक्षा का प्रारम्भ वर्णमाला की अपनी पहली पुस्तक “वर्ण परिचय” (भाग १ एवं २) से न की हो जिसका प्रकाशन उन्होंने सर्वप्रथम 1855 में किया था। उनके अति उत्कृष्ट कार्य आज भी याद किए जाते हैं। जैसे- उन्होंने बांग्ला गद्य की आधारशिला रखी और अगणित संस्कृत कृतियों का बांग्ला में अनुवाद किया। गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर ने उनकी भूमिकाओं को देखते ही उन्हें ‘आधुनिक बांग्ला गद्य का पिता’ कहा है । बांग्ला भाषा के गद्य को सरल और आधुनिक बनाने का उनका कार्य सदा याद किया जाएगा। उन्होंने बांग्ला लिपि की वर्णमाला को सरल और तर्कसम्मत बनाया।

बांग्ला पढ़ाने के लिए उन्होंने सैकड़ों विद्यालय स्थापित किए तथा रात्रि पाठशालाओं की भी व्यवस्था की। उन्होंने हुगली, मिदनापुर, बर्दवान और नादिया में 20 मॉडल स्कूल स्थापित किए। उन्हें बंगाली वर्णमाला के पुनर्निर्माण का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने बंगाली टाइपोग्राफी को संस्कृत ध्वनियों को हटाकर 12 स्वरों और 40 व्यंजनों की वर्णमाला में सरल बनाया।उनकी पुस्तक ‘बोर्नो पोरिचोय’ जिसका अर्थ है ‘अक्षर का परिचय’, आज भी बंगाली वर्णमाला सीखने के लिए परिचयात्मक पाठ्य के रूप में प्रयोग की जाती है।उन्होंने पूरे बंगाल में लड़कियों के लिए 35 स्कूल स्थापित किए। कलकत्ता का मेट्रोपॉलिटन स्कूल उनमें से एक था। इन स्कूलों का एकमात्र उद्देश्य महिलाओं को आत्मनिर्भर और सशक्त बनाना था। उन्होंने कुलीन ब्राह्मण बहुविवाह की तत्कालीन प्रचलित सामाजिक प्रथा के खिलाफ भी दृढ़ लड़ाई लड़ी । इस भयानक प्रथा की प्रकृति इतनी अधिक थी कि कुछ पुरुषों ने अस्सी महिलाओं से विवाह कर लिया।

साहित्य के क्षेत्र में वे बांग्ला गद्य के प्रथम प्रवर्त्तकों में थे। उन्होंने बावन पुस्तकों की रचना की। जिन पुस्तकों से उन्हें विशेष प्रतिष्ठा मिली वे हैं, ‘वैतालपंचविंशति’, ‘शकुंतला’ तथा ‘सीता वनवास’। वे अपना जीवन एक साधारण व्यक्ति के रूप में जीते थे, लेकिन दान पुण्य वे एक राजा की तरह करते थे।ईश्वर चंद्र ने विधवाओं के प्रति अपनी दयालुता का प्रमाण उन्होंने स्वयं अपने बेटे का विवाह एक विधवा से करा कर दिया। आखिरकार उन्हीं के प्रयासों से 26 जुलाई 1856 को ‘विधवा विवाह’ सरकार द्वारा वैध कर दिया गया था। वे अपना जीवन एक साधारण व्यक्ति के रूप में जीते थे लेकिन लेकिन दान पुण्य के अपने काम को एक राजा की तरह करते थे। वे घर में बुने हुए साधारण सूती के वस्त्र धारण करते थे जो कि उनकी माता जी बुनती थीं जब तक वे जीवित थीं। विद्यासागर झाडियों के वन में एक विशाल वट वृक्ष के समान थे। क्षुद्र व स्वार्थी व्यवहार से तंग आकर उन्होंने अपने परिवार के साथ संबंध विच्छेद कर दिया और अपने जीवन के अंतिम 18 वर्ष आदिवासी जनता के कल्याण हेतु समर्पित कर दिया।

ईश्वर चंद्र विद्यासागर का 70 वर्ष की उम्र के 29 जुलाई 1891 को निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा, “लोग आश्चर्य करते हैं, कैसे ईश्वर ने, चालीस लाख बंगालियों में, एक मनुष्य को पैदा किया!” उनकी मृत्यु के बाद, विद्यासागर के निवास “नंदन कानन” को उनके बेटे ने कोलकाता के मलिक परिवार बेच दिया। इससे पहले कि “नंदन कानन” को ध्वस्त कर दिया जाता बंगाली एसोसिएशन, बिहार ने घर घर से एक एक रूपया अनुदान एकत्रित कर 29 मार्च 1974 को उसे खरीद लिया। बालिका विद्यालय पुनः प्रारंभ किया गया जिसका नामकरण विद्यासागर के नाम पर किया गया ।

Related Articles

Back to top button