कश्मीर : छंट गए खौफ के बादल

कश्मीर से भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 हटे छह साल होने जा रहे हैं। वादी में अब शांति है। खौफ के बादल पूरी तरह से छंट चुके हैं। धुंध और धुएं में घिरी वादियां पर्यटकों से गुलजार हैं। कश्मीर के लोग अपनी रोजमर्रा की जिं़दगी में लौट आए हैं। जानी-मानी साहित्यकार गीताश्री ने ‘दस्तक टाइम्स’ के लिए बदलते कश्मीर पर स्थानीय लोगों से बातचीत की। पढ़िए श्रीनगर से गीताश्री की यह लाइव रिपोर्ट।
वो गीत है न-आप यूं ही अगर हमसे मिलते रहे, देखिए एक दिन प्यार हो जाएगा। यह बात मैं कश्मीर के लिए कह सकती हूं। पिछले कुछ सालों में इतनी बार यहां आई हूं, चप्पा-चप्पा घूम चुकी हूं कि इसके आंतरिक सौंदर्य से मेरी आँखें चौंधिया गई हैं। मुझे कश्मीर और कश्मीर के लोगों, दोनों से ही प्यार हो गया है। हर बार अलग-अलग जगहों की यात्रा की। टुकड़ों-टुकड़ों में देखा और सबका बनता कोलाज मुझमें कश्मीरियत भर रहा है। पिछले चार दिन से यहां हूं और हर दिन अनदेखे इलाक़ों का भ्रमण कर रही हूं। मेरा लगाव कश्मीर से ज्यादा कश्मीरी अवाम से है। यहां प्रकृति और लोग मिलकर सौंदर्य का सृजन करते हैं। यहां की अवाम के दुख चिनार के पत्तों की तरह झड़ रहे हैं और मार्च में नईं कोंपलें फूटेंगी। लोग भी इसी तरह उम्मीदों के साये में बसर कर रहे हैं। संगीनों का साया हटा है, माहौल और मौसम सब बदल रहा है। श्रीनगर अब बहुत व्यस्त है और लोग काम पर लगे हैं। जहां युवा अपने करियर पर ध्यान दे रहे हैं वहीं व्यवसायी अपने व्यवसाय को लेकर चिंतित हैं कि उसे कैसे और बढ़ाया जाए। इन चार दिनों में बहुत कुछ सुंदर-असुंदर देखा, समझा और जाना। तस्वीर के हमेशा दो पहलू होते हैं। मेरा मानना है कि दोनों पर बात होनी चाहिए। कश्मीरी लोग अब खुलकर बोलने लगे हैं।
पहले दिन मिलते ही मेरे ड्राइवर मुस्तफा भाई कहते हैं ‘हम तो प्रो-इंडिया हैं। मैंने अपने बेटे की नसों में प्रो-इंडिया का इंजेक्शन भरा है। और मेरी भांजी तो पक्की इंडियन है, हिंदी में ही बात करती है। हमारी शिकायतें अपनी जगह रहेंगी जब तक यहां के हालात पूरी तरह से नहीं सुधरते। क्या मिल जाएगा पाकिस्तान-परस्त होकर।’ 23 फ़रवरी को जिस दिन भारत-पाक मैच था, उस दिन शहर में सन्नाटा फैला था। मुझे कश्मीर के इतिहासकार, पद्मश्री मोहम्मद यूसुफ़ तैंग से मिलने जाना था। उनको फोन किया तो उन्होंने दोपहर में मिलने से मना कर दिया। वे अगले दिन का समय दे रहे थे और मैं उसी दिन मिलना चाह रही थी। बड़े मनुहार के बाद उन्होंने शाम का वक्त दिया। उन्होंने न मिलने का कारण बताते हुए कहा- ‘आज भारत-पाक मैच है। आज नहीं मिल पाऊंगा। या तो आप शाम को आएं।’ मेरे साथ स्थानीय परिचित राजू भाई थे। वो खूब मुखर हैं और बेबाक़ी से हर मुद्दे पर अपनी राय व्यक्त करते हैं। मैंने उन्हें पूरा वाकया सुनाया तो वो सुनते ही हंसने लगे और बोले, ‘जब भी भारत-पाक क्रिकेट मैच होता है, शहर में कफ्र्यू लग जाता है। एक पत्ता भी सड़क पर नहीं मिलेगा। आज सब मैच देखेंगे।’ मैंने कहा- ‘समूचे देश में यही हालत होती है। क्रिकेट मैच को एक तरह के सामरिक युद्ध की तरह लेते हैं लोग।’

उस दिन मैं जहां भी गई, लोग टेलीवीजन सेट से चिपके हुए मिले, हारकर मैं गेस्ट हाउस वापस लौट आई। सोचा कि अब शाम को ही निकलेंगे, मैच हो जाए, तैंग साब भी मिल सकेंगे। उनसे मिलने का वाक़या भी मज़ेदार रहा। तैंग साब ने अपने घर का पता कुछ इस ढंग से राजू भाई को समझाया था- फ़लां रोड पर, फ़लां दुकान पर आकर पूछ लेना। बस, न मकान नंबर न कुछ।
हम शाम को तय समय पर उनके घर के लिए निकले। उस रोड पर वो दुकान बंद थी। लंबी सड़क पर दोनों तरफ़ मकान थे। बड़े-बड़े गेट थे। किसी में नेम प्लेट था तो किसी में नहीं। तैंग साब का घर मिल ही नहीं रहा था। उनसे बात हो तो कैसे? अपना मोबाइल ऑफ करके मैच में डूबे होंगे। बेमन से हमें अनुमति दी थी। हम करें तो क्या? कई जगह पूछा, किसी ने नहीं बताया। उस बंद दुकान के खुलने की राह देखी थोड़ी देर। अंधेरा घिर रहा था। राजू भाई हिम्मत नहीं हारते। उन्होंने कहा- ‘कुछ भी हो जाए, मैं उनको ढूंढ़ कर रहूंगा।’ उसके बाद हमने हर दुकान में पूछना शुरू किया। एक लकड़ी की दुकान पर एक बुज़ुर्ग बैठे थे, उनसे पूछा तो झट से बताया कि बगल वाला उनका गेट है। गेट पर बाहर कोई नेम प्लेट नहीं। गेट खुला था। अंदर सन्नाटा। बड़ा परिसर था जिसमें दो बड़ी-बड़ी कोठियां बनी हुई थीं। हम थोड़े ऊहापोह की हालत में थे। किसी तरह दूसरी कोठी तक पहुंचे। तैंग साब अंदर से निकले, मैच छोड़ कर अनजान आगंतुक से मिलना उन्हें उस वक्त क़तई न रुचा होगा। यह अलग बात है कि हमसे मिलने के बाद वो मैच भूलकर इतिहास की सुरंग में घुस गए। हमने बाद में राजू भाई से चकित होते हुए पूछा कि यहां इतनी दीवानगी क्यों है? पाकिस्तान प्रेम इतना ज़ोरदार है? वे स्वीकारते हैं- ‘पाकिस्तान प्रेमी तो हैं यहां के लोग। लेकिन सब नहीं। केवल कुछ बुज़ुर्ग और ओल्ड सिटी के निवासी। मैच खत्म होने दो, फिर देखना, पाक जीता तो उधर पटाखे चलेंगे।’ ‘और भारत जीता तो?’ मैंने तपाक से पूछा।
‘पटाखे तो बैन हैं यहां नहीं चलेंगे। ओल्ड सिटी वाले थोड़े-बहुत चला लेते हैं।’ राजू भाई हंस रहे थे। मुझे अफ़सोस हो रहा था। बाद में एक पूर्व परिचित ने तर्क दिया- ‘ये बड़ी बात नहीं। ऐसा होना नेचुरल है। विभाजन के बाद हमारे कुछ लोग उधर चले गए, कुछ इधर आ गए। यहां के लोगों के कई रिश्तेदार उधर रह गए। ज़ाहिर है, थोड़ी मोहब्बत उधर के लिए होगी। कभी हम सब एक थे। हम सब साथ होते तो दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क होते।’ मैच खत्म हुआ तो मैं लोगों के चेहरे पढ़ने और उनकी प्रतिक्रिया देखने निकली। सब विराट कोहली का नाम लेकर कहकहे लगा रहे थे। विराट उनका हीरो बन चुका था।
काबुलीवाले के एक गांव में एक दोपहर मैं सोनमर्ग की बर्फीली वादियों से लौट रही हूं। दोपहर का वक्त है। मेरे गाइड आमिर चाहते हैं कि हम एक गांव में उनके परिचित ग्रामीण के घर पर लंच करें। पहले नून-चाय का लालच दिया। मैंने कश्मीर की नून चाय पी है, मुझे जमी नहीं। मैंने इंकार कर दिया। फिर कहवा का लालच दिया। अब भला कहवा से कैसे इंकार करते। जब हम गांव में प्रवेश कर रहे थे तब तक नहीं पता था कि मैं एक ऐतिहासिक गांव में प्रवेश कर रही हूं। गांव का नाम गुटली बाग- यह गांदरबल जिले में पड़ता है और ये अफ़ग़ानों का गांव है। सोनमर्ग हाईवे से नीचे उतर कर ढलानों पर, ऊंची नीची पहाड़ियों पर बसा है यह गांव जहां सिर्फ अफ़ग़ानी रहते हैं जिनकी संस्कृति कश्मीरी संस्कृति से थोड़ी भिन्न है। हालांकि नीचे बैठकर खाने की रिवायत दोनों में एक जैसी है। मेहमानों को नीचे कालीन पर बैठकर खाना पड़ता है। घर में उस समय मेराज दीन खान मौजूद थे, हमारी मेहमाननवाज़ी के लिए। उनके पास अपने पुरखों का इतिहास है। उन्होंने ही बताया कि कश्मीर के महाराजा गुलाब सिंह-प्रताप सिंह के काल में उनके पुरखे अफ़ग़ानिस्तान से कश्मीर आए थे और उन्हें यहां बसने के लिए ज़मीन दी गई।
मेराज आज भी अफ़ग़ानी भाषा बोलते हैं। उन्होंने अपनी भाषा नहीं छोड़ी। वे बताते हैं- ‘हमारे रिश्तेदार आज भी अफ़ग़ानिस्तान में हैं। कभी हम सब भारत का हिस्सा थे। आप महाभारत पढ़िए, उसमें गांधार का जिक्र होगा, वही तो आज कांधार है।’ मेराज काफ़ी जानकार और राजनीतिक रूप से सुलझे हुए व्यक्ति लगे। मैंने उन्हें ज्यादा कुरेदा नहीं। लेकिन वे भीतर से भरे बैठे थे। मुझे पत्रकार के रूप में सामने पाकर जैसे उनके भीतर का लावा फूट पड़ा। कहने लगे- ‘हम लोग यहां बहुत आराम से रहते थे। ड्राई फू्रट और सेव का व्यापार करते थे। हमारे एक अखरोट के पेड़ से तीन ठेला अखरोट निकलता है लेकिन मजहब के चक्कर में यहां का माहौल ख़राब हो गया। धार्मिक उन्माद से कुछ हासिल नहीं होता। जुड़ना है तो परमात्मा से जुड़िए। धर्म के नाम पर बेगुनाहों का खून बहाना, दहशत फैलाना ग़लत है।’ मैंने हस्तक्षेप किया- ‘अब तो सब ठीक है न! माहौल बदल गया है। आप लोग सुकून में होंगे।’ ‘बेशक! हमारे जो नये हुक्मरान हैं, उन्होंने हालात बदल दिए। भारत के संबंध अफ़ग़ानिस्तान से भी बेहतर हो गए हैं। हम अब आना-जाना शुरु करने वाले हैं।’ मैंने उन्हें अफ़गान की तालिबानी सरकार की याद दिलाई।

मेराज ने तर्क दिया- ‘आप जो समझ रही हैं, वैसी सरकार नहीं है वहां। वो तो पहले पाकिस्तान ने तालिबानी पैदा किए और अफ़ग़ानिस्तान को बर्बाद कर दिया। उसे बदनाम किया। वो भारत से अफ़ग़ानिस्तान के रिश्ते ख़राब करना चाहता था। अब ऐसा नहीं है। भारत सरकार ने वहां की सरकार को मान्यता दी है, उनकी मदद भी कर रही है।’ मेराज दबी ज़ुबान ही सही, अलगाव के मुद्दे पर कश्मीरी अवाम की निंदा भी कर रहे थे। हमने जब अपने ड्राइवर मुस्तफा से इस गांव के बारे में बताया तो वे भड़क उठे- ‘अरे, आपको पता नहीं मैम, अफ़ग़ानियों ने दो गांवों पर क़ब्ज़ा कर रखा है। ये तो खानाबदोश थे। पठान लोग थे। इन्हें तो बसाया गया। ये अपने मवेशियों के साथ यहां आए थे, महाराजा ने इन्हें शरण दे दी।’ फिर वो कहते हैं- ‘ये सरकार की तारीफ क्यों नहीं करेंगे, इन्हें शरणार्थियों वाली पूरी सुविधा जो मिली हुई है। इन्हें तो फायदा ही फायदा है। उधर भी घर, इधर भी घर।’ मुझे ध्यान आया कि थोड़ी देर पहले मेराज ऐसा कुछ कह रहे थे- ‘दो सौ साल पहले जब अफ़ग़ानिस्तान में हालात ख़राब हो गए थे, हम अपने परिवारों और मवेशियों के साथ यहां चले आए थे।’ जाने क्यों टैगोर की कहानी की बच्ची, मिन्नी मेरे भीतर से झांक कर उम्मीद कर रही थी कि काबुलीवाला एक मुट्ठी ड्राई फू्रट थमाएगा। ऐसा नहीं हुआ। वो काबुलीवाला कहानी में ही रह गया, नन्हीं बंगाली बच्ची मिन्नी जरूर कहानी से बाहर आकर धरती का चक्कर काट रही है।
जग घूमेया थारे जैसा ना कोई
इन दिनों वहां एक जुमला खूब बोला जा रहा है ‘टेररिज्म से टूरिज्म तक!’ चाहे कितना भी टूरिज्म कम होने का रोना रोये कश्मीरी आवाम, लेकिन सच यह है कि कश्मीर का दामन देसी पर्यटकों ने ही भर दिया है। एक आधिकारिक आंकड़े के अनुसार पिछले साल यानी 2024 में कश्मीर में 2.35 करोड़ सैलानी आए। दो साल पहले जी-20 कार्यशाला हुई थी, उस दौरान कश्मीर की सड़कें बनीं, टनल बने, स्मार्ट सिटी के रूप में इसे चमकाया गया। सोनमर्ग टनल बनने से यात्रा आसान हो गई है। गांदरबल से लद्दाख व करगिल तक की यात्रा का समय कम हो गया है। 6.5 किलोमीटर लंबी सुरंग पलक झपकते पार हो जाती है। पहले इस रास्ते से गुजरने में कई घंटों लगते थे, ऊपर से ट्रैफिक जाम अलग से होता था। सोनमर्ग की बर्फीली वादियां अब दूर नहीं हैं। इस समय मैं बर्फ की चादर पर चल रही हूं और पैर धंस रहे हैं। बर्फ पर चलने वाली गाड़ियां ऊंची चोटियों तक पर्यटकों को ले जा रही हैं। बर्फ पर खेलने वाले खेल रहे हैं हर तरफ, हर जगह बेशुमार लोग। गाड़ियों की लंबी कतारें खड़ी हैं, या तो वे लद्दाख की तरफ जा रही हैं या फिर करगिल। टूरिज्म बढ़ा है और कश्मीर इस मायने में देश का नंबर वन पसंदीदा टूरिस्ट प्लेस बना हुआ है। इसका मुकाबला सिर्फ गोवा कर सकता है और कोई नहीं। बस कश्मीरी अवाम का रोना यही है कि स्मार्ट सिटी के नाम पर श्रीनगर को ठगा जा रहा है। बेहतर होता कि चरमराते पुल का पुर्नर्निमाण होता, टूटी-फूटी सड़कें नयी बनाई जातीं। रहमत भाई नाखुश होकर सवाल उठाते हैं- ‘सुना है कि केन्द्र ने तीन सौ करोड़ का बजट दिया है, कहां गया पैसा। जाने राज्य सरकार क्या जवाब देगी।’ यहां की अवाम को अहसास है कि उनके राज्य के नेताओं ने ही उन्हें लूटा है। वे चाहते तो शहर की सूरत बदल जाती। असली बात तो यही है कि घाटी की शिकायतें सुनी जाएं और उन पर काम हो। हम तभी यकीन दिला पाएंगे कि हमें कश्मीर, कश्मीरी और कश्मीरियत तीनों से मोहब्बत है। मोहब्बत से ताकतवर कोई शय नहीं।
उड़ता कश्मीर
रहमान साब बेहद चिंतित हैं। दिनभर गोल्ड फ्लेक सिगरेट के छल्ले उड़ाते हैं लेकिन चिंता में डूबे हैं कि उड़ता पंजाब कहीं पीछे छूट गया और अब ‘उड़ता कश्मीर’ हो गया है। सिगरेट की महक से श्रीनगर की हवा गंधाती रहती है। खुद रहमान बताते हैं कि यहां हर कोई सिगरेट पीता है। लेकिन ड्रग की लत हमारे यहां पहले नहीं थी। पिछले कुछ सालों में यहां काफ़ी ड्रग डीलर पकड़े गए हैं। यहां का एक जॉगर्स पार्क नशेड़ियों का अड्डा बन गया है। ये रोज पकड़े जाते हैं। उन्हें कोई ख़ौफ़ ही नहीं, वे अपना सब कुछ बर्बाद कर रहे। रहमान के अनुसार पहले यहां शराब की दुकानें भी कम थीं। सिर्फ टूरिस्ट ख़रीद सकते थे। अब हर मोहल्ले में एक दुकान खुल गई है और कोई भी ख़रीद सकता है। कोई रोक-टोक नहीं। उनकी भी यही शिकायत है कि युवा पीढ़ी ज्यादा इसकी तरफ़ झुकी हुई है जबकि पुरानी पीढ़ी अभी भी सिगरेट तक सीमित है। हमारे धर्म में सिगरेट की मनाही नहीं है।
मैंने उनसे पूछा- ‘एक भी लड़की या महिला कहीं सिगरेट पीती नहीं दिखी जबकि बड़े शहरों में ऐसा नहीं है। ईरान जैसे मुल्क में खुलेआम लड़कियों के लिए हुक्का बार बने हुए हैं। वहां तो कोई रोक टोक नहीं। यहां क्यों बंदिशें?’ ‘हुक्का पीती हैं औरतें, सिगरेट नहीं। सड़क पर सवाल ही नहीं। आज भी यहां औरतें अपने मर्दों के खिलाफ नहीं जाएंगी। वे हमारे मज़हब के क़ायदे में रहती हैं। हमारे यहां वैसी आवाज़ें नहीं सुनाई देंगी कि औरतें बगावत कर रही हैं मर्दों से।’ ऐसा कहते हुए उनके चेहरे पर मज़हबी गुरूर था। वे मेरे भाव भांप गए। उन्होंने बात संभालते हुए कहा- ‘यहां औरतें ग़ुलाम नहीं हैं। पढ़ रही हैं, नौकरी कर रही हैं, बाहर जा रही हैं। आप विश्वविद्यालय की तरफ़ जाइए, वहां बात करिए लड़कियों से। वो बताएंगी सब कुछ।’ मुझे ये सुझाव जमा। मुझे उस तरफ़ जाना भी था। एक मीटिंग थी। मुझे झुंड में लड़कियां मिलीं। उनके हाव-भाव या पहनावे में कोई बदलाव नज़र नहीं आया लेकिन उनकी बातों में बदलाव की झलक थी। पहनावा वही उनका पारंपरिक फिरन और हिजाब या बुर्का। कश्मीरी भाषा की एक छात्रा आफ्शा ने बदले हुए हालात और औरतों की स्थिति के बारे में खुल कर बयां किया।
‘हिजाब हम अपनी मर्जी से पहनते हैं। हम पर इन दिनों कोई दबाव नहीं है। एक दौर था जब हमें धमकी दी गई थी। फिर हम सबने आदत ही बना ली। इन मसलों में उलझना नहीं। मैं तो बाहर जाने की तैयारी कर रही हूं। हमें कहीं आने-जाने पर रोक नहीं, बल्कि हमारी इज्ज़त करते हैं लोग। हम बस में चढ़ते हैं तो लड़के सीट ही नहीं देते बल्कि बस छोड़ कर उतर जाते हैं। हमें स्पेस देते हैं।’खिलखिलाती हुई लड़कियों का झुंड दूर जाता दिखाई देता रहा।

बर्फ की बेला में विदाई
मैं कश्मीर से विदा ले रही हूं, आज आखिरी दिन है। फिर न जाने कब आना हो। इससे बेपनाह मोहब्बत होने और बार-बार आने की चाहत होने के बावजूद कहां आना हो पाता है। जि़ंदगी के पास चाहत पूरी करने के लिए मोहलतें कम, जीने के लिए काम ज्यादा है। मेरे गेस्ट हाउस के केयर टेकर शाहिद मुझसे घुलमिल गए हैं। उनसे खुल कर कश्मीर के ताज़ा हालात पर बात होती रहती है। मैंने उनसे यहां टूरिज्म के उफान के बारे में और ज़मीनों के रेट के बारे में पूछा। टंगमर्ग एक ख़ूबसूरत हिल स्टेशन है। मैं पिछली बार वहीं द्रंग झरने के पास रुकी थी। शाहिद भी वहीं के रहने वाले हैं। वे बताने लगे, ‘वहां जमीनें बहुत महंगी हो गई हैं। सब लोकल लोग ही ख़रीद रहे। बाक़ी कई बिज़नेस यहां ठप्प हैं। ’ मैं पूछती हूं ‘ऐसा क्यों? टूरिज्म तो शबाब पर है। मई-जून के महीने में यहां सारी व्यवस्था चरमरा जाती है। हम झेल चुके हैं।’ शाहिद निराशाभरे स्वर में कहते हैं, ‘आप तो हमारे मुल्क के हो, आप टूरिस्ट नहीं हो। आप जो पैसा खर्च करते हो वो तो हमारे ही मुल्क का पैसा है, हमारे मुल्क में ही रह जाता है। पैसा बाहर से आना चाहिए। विदेशी मुल्कों से टूरिस्ट आएं तो टूरिज्म फले-फूलेगा। उनके न आने से हमें नुक़सान है।’ वहीं इसी सवाल पर टूरिस्ट गाइड अहमद खान हंसते हुए कहते हैं- ‘देशी टूरिस्ट तीन चार दिन से ज्यादा यहां नहीं रुकते और न ही अधिक खर्च करते हैं। जबकि विदेशी पर्यटक लंबे समय के लिए आते हैं, वे महीनेभर भी रहते हैं। वे डॉलर में खर्च करते हैं, और खूब खर्च करते हैं। असली घुमक्कड़ वो होते हैं। उनसे होने वाली आमदनी ही हमारी अर्थव्यवस्था को सुधारती है।’ शाहिद और अहमद खान से विदेशी टूरिस्ट को लेकर लंबी बातें हुई। उनकी चिंता वाजिब लगी। कई देश अपने नागरिकों को भारत-यात्रा के दौरान कश्मीर जाने के लिए मना करते हैं। वे आना चाहते हैं लेकिन उन्हें अनुमति नहीं है। भारत सरकार भी विदेशी पर्यटकों को कुछ क्षेत्रों में जाने की अनुमति नहीं देती।
आतंक का इतिहास कश्मीर का पीछा नहीं छोड़ रहा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि दूसरे देश की सरकारों ने कश्मीर को अभी भी आतंकवादग्रस्त क्षेत्र घोषित कर अपने नागरिकों के कश्मीर टूर को प्रतिबंधित कर रखा है। यहां के अधिकारी भी बताते हैं कि करीब 25 मुल्कों ने कश्मीर को अपने नागरिकों के लिए फिलहाल प्रतिबंधित कर रखा है। वे केन्द्र सरकार को भी इस बात से अवगत करवा चुके हैं। इन मुल्कों के राजदूतों को कई बार कश्मीर बुलाकर वहां पर लौटते चैन और अमन से साक्षात्कार करा चुके है। परंतु नतीजा वही ढाक के तीन पात वाला ही निकला है। इन मुल्कों ने अभी भी यात्रा चेतावनियों को नहीं हटाया है। शाहिद टूरिज्म कम होने का एक कारण बर्फ़ को बताते हैं। उनके अनुसार पिछले दो साल से बर्फ़ कम गिरी है। हर झील में पानी कम और झरने, चश्मे सूख रहे हैं। यहां साल भर टूरिस्ट सीजन होता है। मेरे ड्राइवर मुस्तफ़ा कहते हैं- ‘यही हाल रहा तो सूखा पड़ेगा। देखना, हम पीने के पानी को तरस जाएंगे।’ संयोग देखिए, मैं एयरपोर्ट पर बैठी हूं, मौसम विभाग ने बर्फबारी की घोषणा की है। मैं फ्लाइट के इंतज़ार में बैठी, बड़े से शीशे के बाहर देख रही हूं, बर्फ बस गिरने ही वाली है। मेरे मोबाइल पर टूरिस्ट गाइड अहमद खान का मैसेज चमकता है स्क्रीन पर- स्नोइंग!
(लेखिका पत्रकार भी हैं। पिछले दिनों एक शोध के सिलसिले में कश्मीर भ्रमण पर थीं।)