किसान आंदोलन और चौरी चौरा कांड
दिल्ली की सीमा पर चल रहे किसान आंदोलन को अगर आंदोलन मान भी लिया जाए तो 26 जनवरी को हुई लाल किले के चीरहरण की घटना की तुलना उस चौरी चौरा प्रकरण से की जा सकती है जो असहयोग आंदोलन के दौरान हुआ। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के गोरखपुर जिले के चौरी चौरा इलाके में आंदोलनकारियों ने पुलिस चौकी फूक दी जिसमें 22 पुलिस वालों की मौत हो गई। इससे दु:खी हो गांधी जी ने तमाम विरोध व अपनों की नाराजगी के बावजूद इस आंदोलन वापिस ले लिया। प्रश्न पैदा होता है कि गांधी जी की दृष्टि से क्या अब इस कथित किसान आंदोलन में इतनी नैतिकता बची है कि इसको जारी रखा जाए ? गांधी जी होते तो क्या आज इन्हीं आंदोलनकारियों के खिलाफ ही झंडा बुलंद नहीं कर चुके होते ?
कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर ने प्रदर्शनकारी किसानों के साथ 11 वें दौर की बात असफल होने के बाद आंदोलन की पवित्रता का जो प्रश्न उठाया तो वह शायद गांधी जी के इसी मार्ग की बात कर रहे होंगे। गांधी जी का विचार था कि अपवित्र साधन व मार्ग से कभी पवित्र लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता, लेकिन खालिस्तान व नक्सलवाद की अवैध संतान मौजूदा किसान आंदोलन प्रारम्भ से ही पवित्रता की विपरीत धुरी पर खड़ा दिखाई दिया। यही कारण है कि गणतंत्र दिवस पर जिस तरह शर्मनाक हिंसक प्रदर्शन हुए वह अप्रत्याशित नहीं, पहले दिन से ही कोई भी साधारण बुद्धि का इंसान भी इसकी भविष्यवाणी कर सकता था। पूरे आंदोलन में कुछ अप्रत्याशित था तो वह आंदोलनकारियों के इस आश्वासन पर विश्वास कर लेना कि उनकी ट्रैक्टर परेड से तिरंगे का सम्मान ही बढ़ेगा। आंदोलनकारियों की संदिग्ध पृष्ठभूमि से परिचित होने के बावजूद इन पर विश्वास करना पूरे देश को महंगा पड़ा। आखिर पुलिस ने यह कैसे मान लिया कि किसानों के रूप में एकत्रित भीड़ अपने नेताओं का अनुशासन मानेगी और उनके वायदे के अनुसार निर्धारित मार्ग पर ही जुलूस निकालेगी ? दो महीने पहले ही इन आंदोलनकारियों के पंजाब से दिल्ली पहुंचते समय किए गए हिंसक प्रदर्शनों के बावजूद कैसे इस वायदे पर विश्वास कर लिया गया कि ये लोग भीड़ नियंत्रित में सहायता व सहयोग करेंगे ? विश्वास दिलवाने वाले ये सभी लोग एक ऐसी भीड़ के नेता थे, जिसे उकसाने पर हिंसक होने की आदत तो है, पर विवेक प्रयोग करने की नहीं। न ही उसके नेताओं में इतना नैतिक बल है कि वे प्रदर्शनकारियों को बात मनवा लेते और न ही लोगों में अनुशासन की आदत। किसानों के 40 से अधिक संगठन इस आंदोलन में शामिल हैं। सबका अलग एजेंडा और अलग राजनीति है और यही कारण है कि उनका किसी एक फैसले पर पहुंचना लगभग असंभव सा हो चुका है।
पवित्रता विहीन आंदोलनों की यही समस्या होती है कि यह शेर की सवारी सरीखा होता है, जिस पर चढ़ा तो जा सकता है परंतु उतरे तो जान का खतरा बन जाता है। याद करें साल पहले ही हुआ शाहीन बाग का एक और इसी श्रेणी का आंदोलन, जिसकी परिणती दिल्ली के नरभक्षी दंगों के रूप में निकली। कथित किसान आंदोलन के दौरान भी हर वार्ता के बाद किसान नेता दबे स्वरों में यही कहता मिलता था कि वे धरने पर बैठे लोगों को क्या जवाब देंगे ? शायद वह दिन गुजर चुके जब नेता लोगों का नेतृत्व करते थे, अब तो भीड़ का रुख देख कर नेता अपनी दशा और दिशा तय करते हैं। ऐसा न होता तो अकाली दल बादल कृषि सुधार कानूनों का समर्थन कर बाद में विरोध में न उतरता, कांग्रेस पार्टी अपने चुनावी घोषणापत्र में इसका वायदा करने के बावजूद इसका विरोध न कर रही होती और दिल्ली के मुख्यमंत्री ने नए कानूनों की अधिसूचना तक जारी करने के बाद पलटी नहीं मारी होती।
देश ने इससे पहले भी चौधरी चरण सिंह, महेंद्र सिंह टिकैत, स. प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में किसान आंदोलन देखे हैं। स्वतंत्रता से पूर्व बिहार के चंपारन में गांधी जी, पंजाब में स. भगत सिंह के चाचा स. अजीत सिंह, लाला लाजपत राय, गुजरात में सरदार वल्लभ भाई पटेल, सर छोटू राम सहित अनेक महापुरुष किसानों की समस्याएं आंदोलन के रूप में उठाते रहे हैं परंतु इनमें पवित्रता का तत्व होने के चलते ये अपने-अपने लक्ष्य तक पहुंचे परंतु वर्तमान कथित किसान आंदोलन में किसी सर्वमान्य नेता का अभाव देखने को मिला जिसका निर्णय हर एक को स्वीकार हो। यही कारण रहा कि कोई प्रदर्शनकारियों से सार्थक बात करना चाहे तो सर्वमान्य नेता नहीं मिलता था और दंगा होने पर तर्क दिया जा रहा है कि दंगा करने वाले किसान नहीं। किसान नेताओं में अगर पवित्रता व नैतिकता होती तो वह ट्रैक्टर परेड के आगे चल कर इसका नेतृत्व कर रहे होते और किसी प्रदर्शनकारी के इधर-उधर होने पर उसको सही रास्ते पर ला रहे होते। इन कथित किसान नेताओं में नैतिकता की और प्रदर्शनकारियों में अनुशासन की कमी के चलते वही हुआ जिसका डर था, अपवित्र आंदोलन दंगे में बदल गया।
किसान आंदोलन की पवित्रता पर इस बात से भी सवालिया निशान लगा जब गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर परेड निकालने की घोषणा की गई। मीडिया से लेकर देश के बुद्धिजीवी वर्ग तक ने चेताया कि किसी राष्ट्रीय पर्व पर रोष मार्च करना लोकतांत्रिक मूल्यों व संवैधानिक मर्यादा के अनुरूप नहीं हो सकता। देश में जब अपात्काल था तो भी उस वर्ष भी प्रदर्शनकारियों ने गणतंत्र दिवस व स्वतंत्रता दिवस समारोहों की मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं किया। लेकिन इन बुद्धिजीवियों की तमाम तरह के निवेदन को खारिज कर हठधर्मी किसान नेताओं ने इस अहंकार भरे दावों के साथ गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर परेड निकालने की बात कही कि सबकुछ उनके नियंत्रण में रहेगा और जवान के साथ-साथ किसान भी इस दिन तिरंगे को सलामी देंगे। हुआ इसके उलट, किसानों के नाम पर गुंडे दिल्ली में घुस आए और लाल किले पर पहुंच कर तिरंगे झंडे के स्थान पर अलगाववाद का प्रतीकात्मक चीथड़ा लाल किले पर फहरा दिया। केवल इतना ही नहीं, बहुत से कथित किसान दंगाई का रूप धारण कर जवानों पर लाठियों, किरपानों, भालों, ट्रैक्टर की मार से टूट पड़े। दिल्ली पुलिस के दावों के अनुसार इन कथित किसानों ने 394 जवानों को घायल कर दिया। यहां तक कि इन गुंडों ने महिला पुलिस कर्मियों को भी नहीं छोड़ा और उनको घेर कर अपनी मर्दानगी का प्रदर्शन करते रहे। आंदोलन की पवित्रता तार-तार होती रही।
एक डाकू ने संत के कपड़े पहन कर राहगीर से घोड़ा छीन लिया। राहगीर ने डाकू से आग्रह किया कि वह इस घटना को किसी से न कहे अन्यथा लोग भगवा वेष पर विश्वास करना बंद कर देंगे। दिल्ली में तो सरेआम किसानों के नाम पर लाल किले में घुसे खालिस्तानी आतंकी दंगे करते नजर आए, अब किसान संगठनों के सामने प्रश्न पैदा हो गया है कि वे दुनिया को क्या जवाब देंगे ? अगर किसान नेता अपने आंदोलन की पवित्रता बनाए रखते तो उन्हें इन हालातों से दोचार नहीं होना पड़ता। इस बदनाम किसान आंदोलन ने देश के अन्नदाता किसान की प्रतिष्ठा को कितना धुमिल किया है, कथित किसान नेताओं को इसका चिंतन करना होगा और देश के भूमिपुत्रों को भी सोचना होगा यूं ही ऐरों-गैरों नत्थू खैरों को अपना नेता नहीं मान लेना चाहिए।
(यह लेखक के स्वतंत्र विचार है)