देहरादून। वसंत के आगमन के साथ ही देवभूमि उत्तराखंड पर होली का रंग चढ़ने लगा है। खासकर कुमाऊं में तो होली के रंग बिखरने लगे हैं। बरसाने की लट्ठमार होली की तरह ही कुमाऊं की होली का भी अपना अलग महत्व है। कुमाऊं में होली की शुरुआत दो महीने पहले हो जाती है। अबीर-गुलाल के साथ ही होली गायन की विशेष परंपरा है। यहां की होली पूरी तरह से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय अंदाज में खेली जाती है। होली गायन गणेश पूजन से शुरू होकर पशुपतिनाथ शिव की आराधना के साथ-साथ ब्रज के राधाकृष्ण की हंसी-ठिठोली से सराबोर होता है। अंत में आशीष वचनों के साथ होली गायन खत्म होता है।
कुमाऊं में होली दो तरह की होती है, खड़ी होली और बैठकी होली। बैठकी होली के गायन से होली की शुरुआत होती है। बैठकी होली घरों और मंदिरों में गाई जाती है। मान्यता है कि यहां वसंत पंचमी से होली शुरू हो जाती है लेकिन कुमाऊं के कुछ हिस्सों में पौष माह के पहले रविवार से होली की शुरुआत होती है। उस समय सर्दी का मौसम अपने चरम पर होता है। सर्द दुरूह रातों को काटने के लिए सुरीली महफिलें जमने लगती हैं। हारमोनियम व तबले की थाप पर राग-रागिनियों का दौर शुरू हो जाता है। बैठकी होली में महिलाओं की महफिल अलग जमती है, तो पुरुषों की अलग। महिलाओं की होली में लोकगीतों का अधिक महत्व होता है। इसमें नृत्य-संगीत के अलावा हंसी-ठिठौली अधिक होती है। पुरुषों की बैठकी होली का अपना महत्व है। इसमें फूहड़पन नहीं होता है।
हारमोनियम, तबले व चिमटे के साथ पुरुष टोलियों में गाते नजर आते हैं। ठेठ शास्त्रीय परंपरा में होली गाई जाती है। कुमाऊं की होली में रागों का अपना महत्व है। धमार राग होली गायन की परंपरा है। पीलू, जंगलाकाफी, सहाना, विहाग, जैजवंती, जोगिया, झिझोटी, भीम पलासी, खयाज और बागेश्वरी रागों में होली गाई जाती है। दोपहर में अलग तो शाम को अलग रागों में महफिल सजती है। पौष मास के पहले रविवार से होली गायन शुरू हो जाता है और यह सिलसिला फालगुन पूर्णिमा तक लगातार चलता है।
पौष मास से वसंत पंचमी तक होली के गीतों में आध्यात्मिकता का भाव होता है। वसंत पंचमी से शिवरात्रि तक अर्ध श्रृंगारिक रस का पुट आ जाता है जबकि उसके बाद होली के गीतों में पूरी तरह से श्रृंगारिकता का भाव छाया रहता है। गीतों में भक्ति, वैराग्य, विरह, प्रेम-वात्सल्य, श्रृंगार, कृष्ण-गोपियों की ठिठौली सभी प्रकार के भाव होते हैं।
खड़ी होली खड़े होकर समूह में गाई जाती है। यह ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में गाई जाती है। सफेद रंग का कुर्ता, चूड़ीदार पजामा और टोपी होली का खास परिधान है। होली गाने के लिए एक घर से दूसरे घर में जाते हैं। गीतों के माध्यम से खुशहाली व समृद्धि की कामना की जाती है। खड़ी होली में अधिक हंसी-ठिठौली, उल्लास होती है।
माना जाता है कि कुमाऊं अंचल में बैठकी होली की परंपरा 15वीं शताब्दी से शुरू हुई। चंपावत में चंद वंश के शासनकाल से होली गायन की परंपरा शुरू हुई। काली कुमाऊं, गुमदेश व सुई से शुरू होकर यह धीरे-धीरे सभी जगह फैल गई और पूरे कुमाऊं पर इसका रंग चढ़ गया।
कुमाऊं की होली में चीरबंधन व चीरदहन का भी खासा महत्व है। आंवला एकादशी को चीरबंधन होता है। हरे पैया के पेड़ की टहनी को बीच में खड़ा किया जाता है। उसके चारों ओर रंगोली बनाई जाती है। हर घर से चीर लाया जाता है और पैया की टहनी पर चीर बांधे जाते हैं। होली के एक दिन पहले होलिकादहन के साथ ही चीरदहन भी हो जाता है। यह प्रह्लाद का अपने पिता हिण्यकश्यप पर सांकेतिक जीत का उत्सव भी है। घरों में होल्यारों को गुजिया व आलू के गुटके परोसे जाते हैं।
होली में स्वांग का भी बड़ा महत्व है। यह महिलाओं में अधिक प्रचलित है। जैसे-जैसे होली नजदीक आती जाती है, हंसी-ठिठौली भी चरम पर होती है। महिलाएं पुरुषों का भेष बनाकर स्वांग रचती हैं। समाज व परिवार के किसी पुरुष के वस्त्रों को पहन और उसका पूरा भेष बनाकर उसकी नकल की जाती है। स्वांग सामाजिक बुराई पर व्यंग्य करने का एक माध्यम भी है।