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बलिवेदी पर मजदूर

ज्ञानेन्द्र शर्मा

प्रसंगवश

लखनऊ: लाॅकडाउन लागू होने के बाद से जो भी रास्ते इधर-उधर के लिए निकले, उनमें सामने हर जगह मजदूर ही मजदूर मौजूद थे। हालातों, दुव्र्यवस्थाओं, दुर्चिंताओं में मजदूर बलिवेदियों के सामने थे क्योंकि उनके पास गरीबी, भूख, बेकारी के अलावा तन ढकने को कुछ नहीं था लेकिन औरंगाबाद के पास रेल की पटरी पर वे उन कुछ रोटियों से भी इनको नहीं ढक पाए, जो वे बचाकर देश के सबसे समृद्ध राज्य- महाराष्ट्र से लेकर आ रहे थे। सरसरासी रेलगाड़ी उनकी सारी व्यथाओं का अंत करते हुए उनके तन पर से गुजर गई, अपने घर, अपने द्वार, अपने अपनों से दूर, कहीं दूर उनकी लाशें रेल पटरियों पर बिछ गईं और जो तनरक्षक कुछ रोटियों गाॅठ में थी, वे भी रेल पर बिखर गईं।

ये मजदूर महाराष्ट्र के जालना से मध्यप्रदेश के उमरिया और शहडोल जाने के लिए भुसावल जा रहे थे जहाॅ उन्हें वह यात्री रेलगाड़ी मिलने की उम्मीद थी जो उनके गाॅव के आसपास तक पहुॅचा देती। वे रेल की पटरियों के किनारे किनारे चल रहे थे क्योंकि सड़कें तो पुलिस के डंडों ने उनके लिए बंद कर रखी थीं।

सिर पर गठरी और गोद में बच्चों को लेकर 40 किलोमीटर चलते-चलते वे इतने थक गए थे कि शाम होते-होते सुस्ताने के लिए पटरी पर बैठ गए और ये जानते हुए कि पीयूष गोयल की रेलगाडि़याॅ इन दिनों चल नहीं रही हैं, वहीं लुड़क गए, उन पटरियों पर जो रेलों के दौड़ने के लिए बिछी हैं, वे खुद बिछ गए। उन्हें क्या पता था कि गोयल जी की एक मालगाड़ी काल बनकर उनकी तरफ लपक रही है वरना भोर की किरनों का हल्का सा स्पर्श उन्हें जगा देता। लेकिन वे तो शायद जागने के लिए सोए ही नहीं थे, अपना कल कारखाना छोड़कर गाॅव तक का सफर गंतव्य पर पहुॅचने के लिए उन्होने तय करना शुरू किया ही नहीं था।

वे रोटियाॅ जो उमरिया, शहडोल तक उनका साथ देतीं, उनके साथ ही वहीं पटरियों पर बिछ गईं, बिखर गईं- हमेशा की तरह ऐसी दुर्घटनाओं की फौरी जाॅच आगे करने आने वाले रेलवे सेफ्टी के अफसरों के लिए सबूत जुटा देने के लिए, गवाह बनने के लिए। अब बहुत से रेलवे एक्सपर्ट कह रहे हैं, इन मूर्खों को पटरियों पर लेटने की जरूरत क्या थी, सुस्ताना ही था तो जरा हटकर सुस्ताते। वे कहते हैं मालगाड़ी के ड्राईवर ने हार्न बजाया पर वे हटे नहीं। कोई क्या कर सकता था? हाॅ, कोई कुछ नहीं कर सकता था। वे मजदूर जो थे, गंदी कमीज और मैली काॅलर वाले कई दिनों से नहीं धुले कपड़े पहिनने वाले मजदूर। वे कोई सफेद काॅलर वाले कर्मचारी तो थे नहीं आखिरकार।

यह बात इन मजदूरों के घरवालों को कभी कोई नहीं बताएगा कि अपने गाॅव की तरफ वे पैदल चलने के हकदार भी नहीं थे, सो उन्हें पुलिस डंडे मार-मार कर भगा रही थी, रेल की पटरियों की तरफ धकेल रही थी। यह भी उन्हें कोई कभी नहीं बताएगा कि जब लाॅकडाउन लागू किया गया तो यकायक और एक झटके में रेलें और बसें क्यों बंद कर दी गईं?

लाखों लाख उन मजदूरों को जो अपनी नौकरी खो देने के बाद अपने गाॅव की धरती माॅ की शरण में जाना चाहते थे, साॅस लेने की भी फुरसत क्यों नहीं दी गई? दो चार दिन तक कई सौ रेलें और कई हजार बसें चलाकर इन मजदूरों को उनके घरौंदों तक पहुॅचाने की कृप्या सरकारों की तरफ से आखिर क्यों नहीं की गई, उसकी मोहलत उन्हें क्यों नहीं दी गई? उन्होंने जब पैदल ही भागने की कोशिश की गई तो उन पर कई जगहों पुलिस के डंडे क्यों बरसाए गए?

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इन मजदूरों से अपील की है कि वे पैदल और साइकिलों से घर की तरफ न जाएं, हम उन्हें ले जाने की व्यवस्था करेंगे। हजारों कलेजों को ठंडक पहुॅचाने वाले ऐसे भरोसे दिल्ली से और तमाम प्रदेशों के कोनों—कोनों से क्यों नहीं निकले और समय पर क्यों नहीं निकले?

फिर इसी समय अब कल से ही कम से कम तीन राज्यों ने श्रमिक कानूनों में कई परिवर्तन लागू कर दिए हैं। जाहिर है कि कानूनों में ये संशोधन मालिकों के हित साधन के लिए किए गए है- ज्यादा से ज्यादा पूॅजीपतियों को अपने अपने राज्यों की तरफ लुभाने के लिए। अब समय रहते यदि सरकार ने ऐतहात के तौर पर सक्रिय कदम नहीं उठाए तो उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में श्रमिक कानूनों में मालिकों के हित में जो संशोधन किए गए हैं, वे मजदूरों के लिए एक और परेशानी लेकर सामने आ सकते हैं।

सरकार को ऐसे उपाय अविलम्ब करने चाहिए कि मजदूरी की दरों, काम के घंटों और उनके लिए अनुमन्य दूसरी सुख सुविधाओं के लिए पहले से जो कानून बने हैं, उनमें कोई कटौती न की जाय, बदलाव न किया जाय और श्रम विभाग की यह जिम्मेदारी हो कि पहले से चले आ रहे इन कानूनों का और कड़ाई से पालन सुनिश्चित करे। तभी किए गए परिवर्तनों में बेलैंस कायम रह पाएगा।

और अंत में,  बात 1968 की है। विशाखापटनम के पास एक दिन भीषण रेल दुर्घटना हो गई। डा0 राम मनोहर लोहिया उस दिन भोपाल में मौजूद थे। उन्होंने प्रेस कॉफ्रेंस बुलाई और कहा कि अगर देश में सही मायने में लोकतंत्र होता तो रेल मंत्री और इस्पात मंत्री को आजीवन कारावास की सजा दे दी जाती।’

जब उनसे पूछा गया कि इस्पात मंत्री को क्यों तो वे बोले कि उनकी जानकारी के अनुसार जो इस्पात रेल की पटरियों में लगा था, वह घटिया स्तर का था जिसकी वजह से पटरी उखड़ गई। डा0 लोहिया आज जिन्दा होते तो शायद इस्पात मंत्री की बजाय महाराष्ट्र के गृह मंत्री का भी इस्तीफा मांगते।

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