दस्तक-विशेषसाहित्य

Literature : ठाकुरबाड़ी के किस्से

देश के पहले नोबेल पुरस्कार विजेता रबींद्रनाथ टैगोर के दादा द्वारकानाथ टैगोर इतने बड़े ज़मींदार थे कि जब वे लंदन पहुंचे तो महारानी विक्टोरिया ने उन्हें प्राइवेट डिनर पर बुलाया था। कोलकता में ठाकुरबाड़ी को इन्होंने ही बसाया था। गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर के कुटुंब वृत्तांत पर आधारित नई किताब ‘ठाकुरबाड़ी’ इन दिनों चर्चा में है। प्रस्तुत है अनिमेष मुखर्जी की इस चर्चित पुस्तक का एक अंश-

बिना ब्लाउज़ की साड़ी
बात 1860 का दशक की है। कोलकाता की वामाबोधिनी पत्रिका में एक विज्ञापन छपा। बताया जाता है कि विज्ञापन और भी कई अखबारों में छपा। इसमें बताया गया था कि आधुनिक महिला के साड़ी पहनने का तरीका क्या है। आधुनिक महिला ब्लाउज़, समीज़, पेटीकोट, ब्रोच और जूतों के साथ साड़ी पहनती है। सर्दियों में जैकेट लेती है, बालों में पिन लगाती है। जिस किसी महिला को इस तरह साड़ी पहननी हो, उसे साड़ी पहनना सिखाया जाएगा और ये पेटीकोट, ब्लाउज़ वगैरह भी दिलवाए जाएंगे। विज्ञापन देने वाली महिला का छद्म नाम छापा गया था, लेकिन कुछ ही समय बाद ज्ञानदानंदनी देवी टैगोर के पास औरतों की लाइन लग गई, जिन्हें ब्लाउज़ और पेटीकोट के साथ साड़ी पहनना सीखना था। यह विज्ञापन रबींद्रनाथ की मेजोबोऊ ठकुराइन ज्ञानदा यानी ज्ञानदानंदिनी देवी टैगोर ने ही दिया था। उनके पति और भारत के पहले आईसीएस सत्येंद्रनाथ टैगोर को इससे कोई समस्या नहीं थी। हां,ससुर देबेंद्रनाथ को थी। ठाकुरबाड़ी के दो अहम सदस्य ज्र्योंतद्रनाथ और रबींद्रनाथ भी भाभी के मुरीद थे। ज्ञानदा ने उसी समय कहा था कि एक दिन ऐसा आएगा कि हर बंगाली लड़की ऐसे ही साड़ी पहनेंगी, लेकिन ज्ञानदा का अंदाज़ा थोड़ा गलत निकला, उनका साड़ी पहनने का तरीका बंगाल की सीमाओं से बहुत आगे निकल गया।

उनके साड़ी पहनने के तरीके में थोड़े-बहुत बदलाव हुए और आज तक भारत की ज़्यादातर महिलाएं ‘नीव ड्रेप’ वाली साड़ी पहन रही हैं। पारसी गारे और साड़ी पहनने के कुछ दूसरे ढंग को मिलाकर ज्ञानदा ने जो तरीका बनाया उसमें ब्लाउज़ था, पेटीकोट था, सामने प्लेट्स थीं, और पल्ला बाईं ओर लिया जाता था, ताकि दायां हाथ खाली रहे। आज भी साड़ी पहनने का यही तरीका चल रहा है। मज़ेदार बात यह है कि उस समय इसे परंपराओं के विरुद्ध, अश्लील, खराब और न जाने क्या-क्या कहा गया। लगभग डेढ़ सौ साल बाद वही तरीका संस्कृति है और अन्य चीज़ें अश्लील हैं। आपको अगर अब भी यकीन न हो तो कभी रबींद्रनाथ का उपन्यास चोखेर बाली (आंख की किरकिरी) पढ़कर देखिए। पढ़ने का समय न मिले तो इसी नाम से बनी ऐश्वयऱ्ा राय, प्रस्नजीत और रामया सेन वाली फिल्म देख लीजिएगा। फिल्म में एक सीन है जहां विधवा विनोदिनी (ऐश्वर्या राय) ब्लाउज़ पहनती हैं और घर की सारी औरतों को ऐसे सांप सूंघ जाता है कि जैसे आज की तारीख में किसी को टॉपलेस घूमते देखकर सूंघ जाए। वैसे त्रावणकोर के स्वतंत्रता सेनानी सी केसवन ने अपने संस्मरणों में भी इस तरह की एक घटना का ज़िक्र किया है। केसवन ने लिखा है कि उनकी सास को अपनी जवानी के दिनों में एक ब्लाउज़ तोह़फे में मिला। पति चाहते थे कि बीवी ब्लाउज़ पहनकर दिखाए। मां ने मना कर दिया। बंद कमरे में पति के सामने ब्लाउज़ पहनकर दिखाया और वह ब्लाउज़ पहने-पहने ही सो गईं। सुबह उठकर कमरे से बाहर निकलीं तो याद ही नहीं रहा कि कोई प्रतिबंधित चीज़ पहन रखी है। लड़की की मां ने देखा तो नारियल का डंडा उठाया और बेटी को मारने दौड़ीं कि अब इस घर में यह दिन आ गए हैं कि लड़कियां लड़कों की तरह कमीज़ पहनकर घर में घूमेंगी। पूरे दृश्य की कल्पना करिए और सोचिए कि जिन परंपराओं और संस्कृति को हम सदियों से एक जैसा मानते हैं, उसमें शताब्दी भर के अंदर कितना परिवर्तन आ जाता है।

ज्ञानदानंदिनी को ब्रह्मिका साड़ी लोकप्रिय बनाने का क्रेडिट तो दिया ही जाता है, लेकिन उन्होंने ऐसा बहुत कुछ किया जिस पर आज के आधुनिक भारतीय मध्यम वर्ग के चाल-चलन की नींव रखी हुई है। कोई भी सामान्य शहरी-अर्धशहरी मध्यमवर्गीय परिवार जिन चीज़ों पर प्रोग्रेसिव बनता है, उनमें से ज़्यादातर ज्ञानदा की ही देन है। हां, ज्ञानदानंदिनी की तारी़फ करने और उनके योगदान गिनाने में उनके पति सत्येंद्रनाथ को भूलना अन्याय होगा। दोनों की शादी 1857 (कुछ जगहों पर 1859 भी मिलता है) में हुई थी और दोनों ने कई क्रांतियां कीं। ज्ञानदानंदिनी के लिए सत्येंद्रनाथ ने रास्ता तैयार किया और यह पक्का किया कि सि़र्फ उनकी पत्नी ही नहीं, दूसरी तमाम महिलाएं उस पर चल सकें। ़खुद सत्येंद्रनाथ को इसके लिए कितने पापड़ बेलने पड़े, ज़रा सुनिए।

असूर्यमस्पर्श स्त्रियों का जमाना
करीब 15-16 साल के सत्येंद्रनाथ जब कॉलेज में पढ़ते थे तब उनकी शादी 7 साल की ज्ञानदानंदिनी से करवा दी गई। सत्येंद्रनाथ का सिलेक्शन आईसीएस में हुआ। सत्येंद्रनाथ टैगोर देश के पहले भारतीय आईसीएस बनने के लिए लंदन चले गए। टैगोर परिवार के दूसरे बेटे को लंदन जाकर पता चला कि दुनिया तो बहुत आगे निकल चुकी है बॉस। हम और हमारा परिवार अब भी मध्य युग में जी रहे हैं। उस समय माना जाता था कि अच्छे घर की महिलाओं को असूर्यमस्पर्श होना चाहिए। साथ ही, साक्षर लड़की आगे चलकर विधवा हो जाती है। सत्येंद्रनाथ के पिता महर्षि देबेंद्रनाथ इतने प्रगतिशील तो हो गए थे कि घर की लड़कियों को पढ़ाने लगे थे, लेकिन असूर्यमस्पर्श वाला कीड़ा परिवार में बा़की था। कहते हैं कि नया मुसलमान प्याज़ ज़्यादा खाता है, तो अचानक से घनघोर प्रगतिशीलता की क्रांति में खोए सत्येंद्रनाथ ने सीधे अपने पिता को खत भेजा कि उनकी बीवी को लंदन भेज दें, साथ ही, यह भी कहा कि जब तक वह बड़ी नहीं हो जाएगी, उन दोनों में पति-पत्नी के संबंध नहीं बनेंगे। अब ज़ाहिर सी बात है कि देबेंद्रनाथ ने सोचा होगा कि ये आजकल के लड़के भी न जाने क्या-क्या करते रहते हैं।

देबेंद्रबाबू ने बहू को लंदन तो नहीं भेजा, लेकिन नाक तक घूंघट करवा कर घर में ही पढ़ाई करवाने लगे। हालांकि, कुछ समय बाद ठाकुरबाड़ी की लड़कियों और बहुओं का स्कूल जाना और पढ़ना सामान्य बात बन गई। इसका एक कारण देबेंद्रनाथ का ब्रह्म धर्म की सभाओं में महिलाओं को शामिल करना था, लेकिन एक बात जान लें कि उस दौर में ब्रह्मसमाज की हर महिला पढ़ी-लिखी रही हो, ऐसा ज़रूरी नहीं था। पिता से कुछ खास मदद नहीं मिली तो सत्येंद्रनाथ ने अपनी पत्नी को खत लिखना शुरू किया और कहा कि तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें आज़ाद होना चाहिए। तुम्हें अपने आप सोचना चाहिए कि तुम्हें क्या पहनना है, क्या करना है। अब ज्ञानदा को उस कच्ची उम्र में यह फेसबुक पोस्ट टाइप खत कुछ ़खास समझ आए या नहीं, हमें नहीं पता, लेकिन इससे उनकी सास का माथा फिर गया। हर सास की तरह उन्हें भी लगा कि लड़की ने पढ़ाई-लिखाई करते ही मेरे बेटे को चला लिया है। उन्होंने ज्ञानदानंदिनी के सारे गहने लिए और अपनी दोनों बेटियों की शादी में दे दिए। देबेंद्रनाथ की अपनी मझली बहू से बहुत मौकों पर अनबन हुई, लेकिन इस बार उन्होंने अपनी पत्नी की गलती मानते हुए ज्ञानदा को हीरों का सेट बनवाकर दिया।

भारत का पहला आईएएस
अच्छा, सामान्य ज्ञान के एक नंबर के प्रश्न में हम सि़र्फ इतना कह देते हैं कि सत्येंद्रनाथ टैगोर भारत के पहले आईसीएस बने, लेकिन उनका अपना स़फर कितना मुश्किल था, हमें इसका अंदाज़ा नहीं होता। यूपीएससी पास करना आज भी बेहद मुश्किल काम है। उस समय अंग्रेज़ों ने इसे भारतीय लड़कों के लिए असंभव बनाकर रखा था। उस समय आईसीएस की परीक्षा में भारतीय छात्रों को सि़र्फ कहने के लिए अनुमति दी गई थी। लंदन जाकर परीक्षा देनी पड़ती, उसमें भी सारा सिलेबस अंग्रेज़ों का होता। साथ-साथ ग्रीक और लैटिन में ऐसे विषयों की परीक्षा देनी होती, जिन्हें भारत में पढ़ाया ही नहीं जाता। ये सारी चीज़ें करने के लिए अधिकतम उम्र 23 साल थी, जिसे बाद में घटाकर 19 कर दिया गया। सत्येंद्रनाथ और मनमोहन घोष ने इस परीक्षा में शामिल होने का फैसला किया। लंदन जाकर परीक्षा दी, लेकिन सि़र्फ सत्येंद्रनाथ ही सफल हुए। इसलिए, उस दौर में आईसीएस क्रैक करने वाले किसी भी भारतीय को बड़ी श्रद्धा की नज़र से देखना चाहिए। इस परीक्षा की बात चली है, तो दूसरे परीक्षार्थी के बारे में भी जान लें। मनमोहन घोष, इस परीक्षा में शामिल होने से पहले तक छात्र जीवन में ही एक अखबार ‘इंडियन मिरर’ चला रहे थे। आईसीएस की परीक्षा में दो बार असफल होने के साथ-साथ उन्हें लंदन में नस्लीय भेदभाव का सामना भी करना पड़ा।

इसके बाद वे लंदन काउंसिल बार में शामिल होने वाले दूसरे भारतीय वकील बने (पहले ज्ञानेंद्रनाथ है, जिन्हें क्रिश्चियन लड़की से शादी करने के चलते परिवार से बाहर कर दिया गया था)। मनमोहन ने इस दौरान प्रसिद्ध कवि माइकल मधुसुदन दत्त की मदद भी की। वापस आने के बाद मनमोहन घोष ने स्त्री शिक्षा पर का़फी काम किया। उन्होंने अपनी पत्नी को पढ़ने भेजा और उसकी शिक्षा शुरू होने के बाद ही पारिवारिक जीवन शुरू किया। हालांकि, कोलकाता में मनमोहन घोष ने पूरे अंग्रेज़ी तौर तरीके दिखाए। खाने-पीने के सलीके भी अंग्रेज़ी रहे, यहां तक कि पत्नी भी विक्टोरियन गाउन पहनती थी। इस बीच पता चला कि घोष बाबू कोलकाता में तो अंग्रेज़ी भोजन कर रहे हैं, लेकिन लंदन में इनको मछली और चावल की याद आती थी, तो ऐसे में मनमोहन घोष को लोगों ने निशाने पर भी लिया। लेकिन कांग्रेस के संस्थापक सदस्य रहे मनमोहन घोष ने भारतीय इतिहास में पर्याप्त योगदान दिया है।

जब सत्येंद्रनाथ बाबू पलंग के नीचे छिप गए
घोष की तरह सत्येंद्रनाथ भी स्त्री शिक्षा के हिमायती थे। सत्येंद्रनाथ के खतों ने धीरे-धीरे करके पत्नी को लिबरल बना ही दिया और ठाकुर बाड़ी से सशक्तिकरण का जो सिलसिला शुरू हुआ उसने अगले कुछ सालों में पूरे भारतीय समाज को बदलकर रख दिया। ऐसे में सत्येंद्रबाबू के सबसे खास दोस्त मनमोहन घोष ने उनसे कहा, ‘भाभी जी से मिलवाओ भाई।’ उस ज़माने में लोग दो ही कारणों से मिलते थे, एक बिज़नेस के लिए, दूसरा धार्मिक चर्चा के लिए। सि़र्फ मिलकर बातचीत करने के लिए ही मिलने का कोई कॉन्सेप्ट भारतीय समाज में लोकप्रिय नहीं था। स्त्रियों के लिए तो बिल्कुल नहीं था। ठाकुर बाड़ी में दो हिस्से होते थे। अंदरमहल में पुरुषों का आना वर्जित था और इसीलिए बिना ब्लाउज या, पर्याप्त अंत:वस्त्रों के साड़ी लपेटने से काम चल ही रहा था। जिनकी शादी हो चुकी होती थी, उनकी पत्नियां रात में दुल्हन की तरह अच्छे से तैयार होकर पति के कमरे में जातीं और सुबह फिर वापस अंदरमहल में पहुंच जातीं। नतीजतन पति-पत्नी एक दूसरे को जानें या न जानें, उनके कई बच्चे हो जाते थे और यह सिलसिला लंबे समय तक चलता रहता।

उदाहरण के लिए सत्येंद्रनाथ और ज्ञानदा की शादी के समय रबींद्रनाथ का जन्म नहीं हुआ था। खैर, दोस्त की बात सत्येंद्रबाबू कैसे टालते। उन्होंने पत्नी से पूछा। का़फी सोचने के बाद एक तरीका समझ आया। रात को सत्येंद्रनाथ और उनका दोस्त एक साथ एक-एक कदम रखकर ठाकुर बाड़ी में घुसे। लंबे गलियारों और कई दर्जन कमरों वाले ठाकुर बाड़ी में यह काम बेहद मुश्किल था। कुछ भी करके बिना किसी की नज़र में आए दोनों दोस्त कमरे में पहुंच गए। अब एक नई समस्या सामने आई। कमरा एक और आदमी दो, यहां पकड़े जाते, तो और बुरा होता। चूंकि दोस्त को भाभी जी से मिलना था, तो सत्येंद्रनाथ बिस्तर के नीचे छिप गए। अब कल्पना करिए। आपका पति बिस्तर के नीचे छिपा है, आप पूरा दुल्हन वाला ब्राइडल मेकअप करके बंद कमरे में मच्छरदानी के अंदर अपने पति के ऐसे दोस्त के साथ बिस्तर पर बैठी हैं जिससे आप पहली बार मिल रही हैं। इतने ऑकवर्ड मोमेंट में दोनों से कुछ नहीं बोला गया। सत्येंद्रनाथ अपने दोस्त के साथ वैसे ही कदम से कदम मिलाकर धीरे से घर के बाहर निकल गए।

इसके बाद सत्येंद्रनाथ ने पिताजी से कहा कि उन्हें अपनी पत्नी को बॉम्बे साथ लेकर जाना है। पिताजी को भी पता था कि घर पर रहेंगे, तो सास बहू का झगड़ा बढ़ेगा और इन दोनों की सोहबत में बा़की बच्चों के अंदर भी प्रगतिशीलता के पर निकल रहे थे। उन्होंने बहू को ले जाने की इजाज़त दे दी। अब सवाल हुआ कि बिना अंत:वस्त्रों वाली साड़ी पहनकर तो घर से बाहर निकला नहीं जा सकता, न कोलकाता से बंबई की यात्रा की जा सकती है, तो बाप-बेटे ने मिलकर ज्ञानदा को एक फ्रेंच ड्रेस खरीद दी। विक्टोरियन युगीन फे्रंच ड्रेस को पहनना अकेली भारतीय नारी के बस की बात न थी, तो पति ने ज़ोर लगाकर उसमें पत्नी को घुसा ही दिया और कहा कि इस बार इससे काम चला लो आगे से जो पहनना चाहो पहन लेना। सत्येंद्रनाथ ने ज्ञानदा से यह भी कहा कि भारतीय स्त्रियां जिस तरह के बेढब कपड़े पहनती हैं, तो फर्क ही क्या पड़ता है कि क्या पहनें या क्या न पहनें। ज्ञानदा ने इस बात को इस तरह से दिल पर लगाया कि भारतीय महिलाओं का ड्र्रेंसग सेंस हमेशा के लिए बदल दिया। परिवार में इस बात को लेकर तमाम ताने तो मारे ही जा रहे थे कि बताओ अब आदमी अपनी बीवी को अलग शहर लेकर जाएगा, और बीवी भी ऐसी बेशर्म के साथ चलने को तैयार हो गई, लेकिन ये सारे बवाल सिर्फ निंदा और चर्चा करके खत्म नहीं हुए।

देबेंद्रनाथ ने बेटे से कहा कि तुम शहर से बाहर जाकर चाहे जो करो, बहू घर के दरवाज़े से बाहर नहीं निकलेगी। हमारे खानदान में औरतें अभी तक असूर्यमस्पर्श हैं और रहेंगी। तर्क दिए गए कि औरतें फूल की तरह नाज़ुक होती हैं और उनकी रक्षा करनी चाहिए। सत्येंद्रनाथ ने पलटकर तर्क दिया कि फूल को धूप और हवा न मिले तो वो मुरझा जाएगा। सत्येंद्रनाथ की मां ने बेटे को ताना मारा कि इतना शौक है, तो सारी लड़कियों को मैदान ले जाकर धूप और घास चरवा लाओ। बेटे ने फिर पलटकर जवाब दिया कि आइडिया तो अच्छा है। इस बहस का नतीजा यह निकला कि सत्येंद्रनाथ बग्घी में बैठकर घर के मेन गेट से गए और उनकी पत्नी पीछे के रास्ते से पालकी में पहुंची। सत्येंद्रनाथ की मां पहले ही लड़के के समुद्र यात्रा करने पर नाराज़ थीं, इन सारी घटनाओं के बाद उन्होंने अपने बेटे को कभी मा़फ नहीं किया। हमेशा नाराज़ ही रहीं और समय के साथ दोनों के रिश्तों में दूरी ही आई।

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