‘इस्लाम में लिव-इन रिलेशनशिप हराम है’, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रेमी जोड़े की याचिका ठुकराई, जानें क्या है मामला
लखनऊ : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले एक अंतर-धार्मिक जोड़े को सुरक्षा देने से इनकार कर दिया है। कोर्ट ने उनकी याचिका पर फैसला सुनाते हुए इस्लाम के नियमों का हवाला दिया है, जिसके बाद चर्चा का एक दौर शुरू हो चुका है। सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि आखिर यह मामला क्या है?
इलाहाबाद हाईकोर्ट 29 वर्षीय हिंदू लड़की और 30 वर्षीय मुस्लिम लड़के की ओर से दायर सुरक्षा की याचिका पर सुनवाई कर रही थी। इन दोनों ने दावा किया था कि पुलिस उन्हें परेशान कर रही है. अदालत को यह भी बताया गया कि महिला की मां ने लिव-इन रिलेशनशिप को नकार कर दिया है और उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराई है।
कोर्ट के सामने इन दोनों ने कहा है कि किसी भी व्यक्ति को उनके निजी जीवन में दखल नहीं करना चाहिए लेकिन फिर भी पुलिस उन्हें परेशान कर रही है। इसलिए उन्होंने लता सिंह बनाम यूपी राज्य (2006) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की मिसाल का हवाला देते हुए अदालत से सुरक्षा का अनुरोध किया था।
इलाहबाद हाईकोर्ट ने इस मामले में दखल देने से इनकार कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि याचिका दर्ज करने वालों की ओर से यह दावा नहीं किया गया है कि वे कानूनी तौर पर विवाहित हैं, न ही उन्होंने अपनी शादीशुदा जिंदगी को लेकर सुरक्षा मांगी है बल्कि उन्होने केवल यह तर्क दिया था कि बालिग होने के नाते उन्हें अपनी पसंद के किसी भी व्यक्ति के साथ रहने का अधिकार है। इसके बाद कोर्ट ने इस मामले में दखल देने इनकार कर दिया।
न्यायमूर्ति संगीता चंद्रा और न्यायमूर्ति नरेंद्र कुमार जौहरी की पीठ ने कहा कि कानून परंपरागत तौर से विवाह के पक्ष में रहा है और जब सुप्रीम कोर्ट ने अलग-अलग मामलों में लिव-इन रिलेशनशिप पर टिप्पणी की तो कोर्ट का भारतीय पारिवारिक जीवन के ताने-बाने को उजागर करने का कोई इरादा नहीं था।
इलाहबाद हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि इस्लामी कानून विवाह से बाहर यौन संबंधों की इजाजत नहीं देता है। कोर्ट ने कहा,’ इस्लाम में शादी से पहले किसी भी महिला के शारीरिक संबंध बनाना, चुंबन, छूना, घूरना आदि इस्लाम में ‘हराम’ है क्योंकि इसे ‘ज़िना’ का हिस्सा माना जाता है, और इस्लाम में इसे लेकर सख्त सज़ा की बात कही गई है। कोर्ट ने आगे कहा कि युवाओं लिव-इन संबंधों के कारण होने वाले भावनात्मक और सामाजिक दबावों और कानूनी बाधाओं के बारे में जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता है।