कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना
प्रसंगवश
स्तम्भ : बात उस समय की है जब श्रीपति मिश्रा 1982 से 1984 के बीच उत्तर प्रदेश की कांग्रेसी सरकार के 13-वें मुख्यमंत्री थे। उनके जमाने में एक उत्साही अधिकारी ने शराब की बिक्री से होने वाली आय बढ़ाने का एक नायाब फार्मूला तैयार किया। इस फार्मूले का मुख्य तत्व यह था कि शराब पर लगने वाले शुल्क की दर कम करके उसे आसपास के राज्यों के बराबर कर दिया जाय ताकि दूसरे प्रदेशों से चोरी छिपे शराब आना बंद हो जाय। उनका तर्क था कि ऐसा करने से बाहर से शराब आना बंद हो जाएगा, शराब की मद में सरकार को ज्यादा टैक्स मिलने लगेगा और आबकारी शुल्क के जरिए उसकी आय बढ़ जाएगी।
सरकारी फाइलों में पहुंचने के बाद फार्मूला राज्य मंत्रिमण्डल की बैठक में रखा गया तो सबसे पहला सवाल यह उठा कि क्या इससे शराब सस्ती हो जाएगी, अफसरों का उत्तर था :‘जी हां‘। इस पर मंत्रिमण्डल में कोलाहल की स्थिति पैदा हो गई और फार्मूला रिजेक्ट कर दिया गया। मंत्रियों को डर था कि जब रोटी महंगी हो रही है, तमाम जरूरी चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं तो ऐसे में क्या शराब के दाम कम करना बुद्धिमानी की बात होगी? जवाब आया : बिल्कुल नहीं क्योंकि इससे सरकार पर रोटी महंगी और शराब सस्ती बेचने का आरोप लगेगा और उसकी बहुत बदनामी होगी। इस बात को चार दशक होने को आए हैं। इन सालों में राजनीति ने कई पलटे खाए हैं और उसके तमाम सारे मूल्य बदल गए हैं।
पहले जिन बातों से नेता डरते थे, अब उनका उन्हें कोई भय नहीं होता। पहले मंत्रियों और अफसरों को व्यक्तिगत सम्पत्ति बनाने में डर लगता था- खास तौर से बदनामी का डर। लेकिन अब करोड़ों से कम की कोठी मंत्रियों और आला अफसरों को षोभा नहीं देती। बहुत ईमानदार होंगे तो बस तीन चार हजार गज में फैला किसी आलीशान लोकल्टी में 5 बेडरूम का मकान तो होगा ही। चुनाव-दर-चुनाव ‘इलेक्शन वाच’ वाले लोग दूरबीन लगाकर नेताओं की गैस के गुब्बारे की तरह फूलने वाली सम्पत्ति का हिसाब किताब सबको जोड़कर बताएंगे और तमाम निठल्ले लोग उस पर चुटकियां मारेंगे।
अब शराब की ही बात लीजिए। जब से लाॅकडाउन लगा सबसे ज्यादा कार्टून, जोक्स, कैरीकेचर झाडू़-पोंछा को लेकर पति-पत्नी की नोंकझोंक के आए तो दूसरा नम्बर शराब और शराबियों की व्यथा-कथा का था। शराब को लेकर पीने वाले तो परेशान थे ही, पिलाने वाली सरकार भी कम परेशान नहीं थी। पत्रकार और पुलिस वाले शराब की तस्करी में जुट गए तो तमाम दूसरे मदिरा प्रेमी लाॅकडाउन खुलने की मिन्नतें मनाने लगे। कहीं कहीं राज्य सरकारें उन शराब पीने वालों को लेकर पसीना पसीना हो रही थीं जिनके बारे में यह कहा जा रहा था कि कोरोना की इस आफत के बीच में अचानक शराब छोड़ने को मजबूर होने से उन्हें परित्याग-जनित यानी विदलावेड् सिन्ड्रोम नाम की बीमारी घेर रही है। उनके इलाज की भी चिंता होने लग गई थी।
लेकिन शराब प्रेमियों को यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि सरकार ने उन पर तरस खाकर और उन्हें बीमारी से बचाने के लिए मयखाने फिर से खोले हैं। वास्तव में तो सरकार की निगाहें शराब प्रेमियों की जेबों पर और अपनी तनख्वाओं पर थीं। यह बात शराब के खुमार की तरफ जगजाहिर है कि अगर उसके पीने वालों की मेहरबानी न हो तो मंत्रियों और अफसरों को तनख्वाह नहीं मिलेगी। आबकारी आयुक्त कहते हैं कि शराब बंदी के चलते सरकारी खजाने को रोजाना 100 करोड़ का घाटा उठाना पड़ रहा था।
दिल्ली की सरकार को शराब से एक साल में करीब 5000 करोड़ की तो कर्नाटक सरकार को 21400 करोड़ की आय होती है। उ.प्र. सरकार को 2018-19 में शराब से 23918 करोड़ रुपए की आमदनी हुई थी जो 2017-18 की 17320 करोड़ से 38 फीसदी ज्यादा थी। एक बोतल पर सरकार को 4 रुपए 11 पैसे टैक्स में मिलते हैं और बियर की एक बोतल पर 78 पैसे। लखनऊ में एक लाख लीटर शराब रोज बिकती है और शराब खरीदने वालों को विशेष रियायत के तौर पर फिलहाल पुराने रेट पर ही दारू बेचे जाने की घोषणा सरकार ने कर रखी है। अब समझ लीजिए और लाॅकडाउन के सारे दर्द भूल जाइए!
मैंने एक बार जहरीली शराब पीने से कई लोगों की मौत पर तत्कालीन आबकारी मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा /अब स्वर्गीय/ से पूछा तो उनका टका सा जवाब था- मर गए तो कोई क्या करे, शराब क्यों पी रहे थे। मैंने जब उन्हें याद दिलाया कि शराब से होने वाली आय से ही आप मंत्रियों को तनख्वाह मिलती है तो उनसे जवाब देते नहीं बना।
यह कोई छोटी मोटी विडम्बना नहीं है कि सरकार का आबकारी विभाग एक साथ दो काम करता है : एक तरफ वह शराब की बिक्री बढ़ाकर, उसके ठेके महंगे उठाकर भारी कमाई के उपाय करता है तो दूसरी तरफ मद्यनिषेध का प्रचार करता है, आम लोगों को शराब के नुकसानों के बारे में अपने खर्चे से जानकारी देता है, उसके दुर्गुण बताने के लिए गांव—गांव में, कस्बों—कस्बों में नाटक और नुक्कड़ सभाओं के जरिए प्रचार कराता है। इसे आप सरकारी पाखण्ड कह सकते हैं और शराब खोल देने वाली सरकार को पाखण्डी न कहना हो तो कह सकते हैं -कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना!