
काशी विश्वनाथ धाम में गूंजा शुक्ल यजुर्वेद की शिवगर्जना
दंडक्रम पारायण की ऐतिहासिक तपश्चर्या और ढोल – ताशों की शिवांजलि ने धाम को किया शिवमय, 19 वर्षीय देवव्रत की अद्वितीय वैदिक साधना और नागपुर दल की ऊर्जस्वित प्रस्तुति ने रचा दिव्य वातावरण, वेदमूर्ति देवव्रत के एकाकी ‘दंडक्रम’ पाठ और शिवगर्जना संस्था की गूंज ने काशी को दिया अविस्मरणीय दिवस,जन्मशती वर्ष में वेद, संस्कृति और शिवभक्ति का अद्वितीय संगम बना विश्वनाथ धाम, वेदपाठ की कठिनतम विधि और बच्चों, युवाओं के ढोल-नृत्य ने धाम में भरा आध्यात्मिक उन्मेष, रामघाट से विश्वनाथ धाम तक, दो माह की तप और एक दिन की सांस्कृतिक दीप्ति का अनूठा समापन
–सुरेश गांधी
वाराणसी : रविवार की भोर… काशी विश्वनाथ धाम मानो किसी प्राचीन ऋचाओं से जागा हो। रामघाट की शांत लहरों पर उगती धूप और उसी पल धाम परिसर में ढोल – नगाड़ों की गूंज – ऐसा दृश्य, जो काशी की पहचान भी है और उसकी सनातन धड़कन भी। युवाओं और बाल कलाकारों की थापों ने जैसे शिव के डमरू का स्वर सजीव कर दिया हो। धाम में ऐसी छटा बिखरी, जो शायद ही किसी साधक या श्रद्धालु के स्मृति – लोक से कभी मिटे। भोर की कोमल किरणें जब मंदिर के सुनहरे शिखर पर ठहरकर शिवत्व की आभा में विलीन हो रही थीं, तभी धाम परिसर में “हर – हर महादेव” के उद्घोष से हवा भी कंपित, और वातावरण भी शिवमय हो गया। परंतु इस निनाद के बीच जो स्वर सबसे दिव्य था, वह था शुक्ल यजुर्वेद की शिवगर्जना, वेद की वही परंपरा, जो सहस्रों वर्षों से भारतीय चेतना की प्राणवायु बनी हुई है. यह दिन केवल एक सांस्कृतिक पर्व नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक और आध्यात्मिक तपोमयी यात्रा का समापन था, एक ऐसी यात्रा, जिसकी हर थाप में भक्ति थी और हर अक्षर में आराधना।
काशी ने पहली बार एक ऐसी वैदिक घटना देखी, जो आज के युग में दुर्लभ ही नहीं, बल्कि अद्भुत भी है। श्रीवल्लभराम शालिग्राम सांगवेद विद्यालय, रामघाट में बीते 48 दिनों से चल रहा शुक्ल यजुर्वेद माध्यंदिनी शाखा का एकाकी दंडक्रम पारायण, रविवार को अपने पूर्ण तेज और पवित्रता के साथ विश्वनाथ धाम में सम्पन्न हुआ। यह पारायण साधा वेदमूर्ति देवव्रत महेश रेखे घनपाठी ने, जो मात्र 19 वर्ष की आयु में इस कठिनतम वैदिक विधि को कंठस्थ, निर्बाध और शास्त्रोक्त रीति से पूर्ण कर काशी के इतिहास में अमिट स्थान बना गए। दंडक्रम, वेद की आठ विकृतियों में सबसे विलक्षण, सूक्ष्म और कठिन मानी जाती है, जिसमें मंत्रों का पाठ अनुलोम – विलोम क्रम, विशेष स्वर – वैभव और अक्षर – संरक्षण के प्रति अद्भुत निष्ठा के साथ किया जाता है।

कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि यह साधना केवल विद्वता नहीं, बल्कि तप, श्रम और सदियों पुरानी गुरु – शिष्य परंपरा का सजीव अवतार है। यह पारायण आचार्य श्रीकृष्णशास्त्री गोडशे गुरुजी के जन्मशताब्दी वर्ष को समर्पित था, जिससे इसका महत्त्व और अधिक पवित्र हो गया। खास यह है कि पद्मश्री परमपूज्य गणेश्वरशास्त्री द्राविड़, जिन्होंने अयोध्या श्रीराम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का मुहूर्त निर्धारित किया था, के पावन सान्निध्य में, वेदमूर्ति देवेंद्र रामचंद्र गढ़ीकर के मुख्य नेतृत्व में, मात्र 19 वर्ष के युवक वेदमूर्ति देवव्रत महेश रेखे घनपाठी ने शुक्ल यजुर्वेद माध्यंदिनी शाखा का पूर्ण, एकाकी, कंठस्थ “दंडक्रम पारायण” संपन्न किया। यह पारायण, अपने आप में, गुरुशिष्य परंपरा, साधना और निरंतर तप का जीवंत प्रमाण है।
नागपुर स्थित “शिवगर्जना बहुउद्देशीय संस्था, ढोलदृताशा एवं ध्वज पथक” के 70 सदस्यीय दल ने जब शिवांजलि अर्पित की, तो लगता था जैसे काशी ने स्वयं अपने हृदय से ताल धारण कर ली हो। ढोल – ताशों की हर थाप, मानो शिव के अस्तित्व का स्पंदन; ताशों की तीव्र लय, जैसे अनंत आकाश की धड़कन; और ध्वज पथक का अनुशासन, जैसे परंपरा और पराक्रम का दृश्य रूप। सबसे सुहावना दृश्य था, छोटे-छोटे नन्हे कलाकारों का, जो अपनी उम्र से कहीं अधिक निपुणता और ऊर्जा के साथ ढोल – ताशा वादन कर रहे थे। उनके हाथों की गति, उनके चेहरे पर चमक, और उनके ताल से उठती लय… श्रद्धालुओं को भावविभोर करती रही। धाम में अनेक श्रद्धालु ऐसे थे जो उत्साह में स्वयं ही थिरकने लगे, और हर थाप पर “हर – हर महादेव” का जयघोष गर्जना बनकर गूंज उठता रहा।
धाम परिसर में शिवत्व का सांस्कृतिक उत्कर्ष
समापन दिवस पर जैसे ही दंडक्रम का अंतिम मंत्र गूंजा, धाम का वातावरण एक नयी ऊर्जा से भर उठा। उसी क्षण नागपुर से आए शिवगर्जना बहुउद्देशीय संस्था के 70 सदस्यीय ढोल – ताशा एवं ध्वज पथक दल ने “शिवांजलि” अर्पित करते हुए पूरे परिसर को तालों की तेज, ओजस्वी और भक्ति – रसपूर्ण धड़कन से भर दिया। ढोल की हर थाप मानो शिव के डमरू का विस्तार थी। ताशों की लय धाम की दीवारों में प्रतिध्वनित होती हुई जैसे कह रही थी, “आस्था जब नृत्य करती है, तो काशी उसका रंगमंच बन जाती है।” विशेष आकर्षण थे नन्हे प्रतिभाशाली कलाकार, जो अपने वादन कौशल से न केवल दर्शकों को चौंका रहे थे, बल्कि यह भी सिद्ध कर रहे थे कि परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी कितनी सहजता से आगे बढ़ती है। उनकी ऊर्जा से वातावरण ऐसा जीवंत हो उठा कि अनेक श्रद्धालु स्वतः ही ताल पर थिरकने लगे। विश्वनाथ धाम का हर कोना शिवभक्ति के उन्मेष से सराबोर था, हर थाप पर, हर स्वर पर, हर उच्छ्वास पर… “हर – हर महादेव!” गूंजता रहा।

यह केवल आयोजन नहीं, शिवतत्व की अनुभूति : विश्वभूषण
मुख्य कार्यपालक अधिकारी विश्वभूषण मिश्र ने कहा, नागपुर से आए शिवगर्जना दल ने आज धाम में जो आध्यात्मिक वातावरण निर्मित किया, वह अविस्मरणीय है। दंडक्रम पारायण से लेकर सांस्कृतिक शिवांजलि तक, प्रत्येक क्षण में भक्ति और अनुशासन का अद्भुत मेल दिखाई दिया। यह आयोजन काशी की आध्यात्मिक परंपरा को नई ऊँचाइयों तक ले जाने वाला है।
काशी, जहां वेद भी गूंजते हैं और नाद भी नृत्य करता है
दंडक्रम की वैदिक जटिलता और शिवगर्जना के सांगीतिक ओज, दोनों ने मिलकर ऐसा दिव्य क्षण रचा कि काशी केवल एक नगर नहीं रही, बल्कि आस्था की जीवित अनुभूति बन गई। यह मात्र सांस्कृतिक तान नहीं, बल्कि एक विराट वैदिक अध्यात्म का उत्सव था, भारतवर्ष के मूर्धन्य वैदिक विद्वान प्रातःस्मरणीय सम्राट श्रीकृष्णशास्त्री गोडशे गुरुजी की जन्मशताब्दी वर्ष की पावन स्मृति में समर्पित। अलंदी के वेदब्रह्मश्री कै. विश्वनाथ गुरुजी और दंडक्रम पारायणकर्ता की पूज्या माता को समर्पित यह अद्वितीय आयोजन काशी के इतिहास में पहली बार हो रहा था। रविवार की यह सुबह यह सिद्ध कर गई कि काशी में वेद केवल पढ़े नहीं जाते, जीये जाते हैं। और नाद केवल सुना नहीं जाता, महसूस किया जाता है। विश्वनाथ धाम का यह दिवस युगों तक स्मृतियों में जीवित रहेगा, शिव, श्रुति और संस्कृति के अद्वितीय संगम के रूप में।



