दस्तक-विशेषराजनीतिराष्ट्रीय

खूब बंट रही मुफ्त की रेवड़ियां

जितेन्द्र शुक्ला

मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन…’ यह कोई कहावत नहीं लेकिन मुफ्तखोरी करने वालों के ऊपर यह बहुचर्चित कटाक्ष है। सत्ता हासिल करने के लिए लगभग सभी दल मतदाताओं को लुभाने के लिए ‘रेवड़ियां’ बांटने में कोई गुरेज नहीं करते हैं। चाहे घोषणा पत्र हो या संकल्प पत्र या फिर बात गारंटी के माध्यम से कही जाये, निहितार्थ सभी के एक जैसे हैं। हालांकि जनता भी इस बात से भिज्ञ है कि सत्ता में आने के बाद राजनीतिक दल सरकार के खजाने से ही चुनाव के दौरान किए गए वादों को अमलीजामा पहनाते हैं। लेकिन प्रदेश हो या फिर देश, सरकारी खजाने को इससे भारी नुकसान उठाना पड़ता है। इन ‘रेवड़ियों’ को ‘फ्रीबीज’ भी कहा जाता है। कुछ राजनीतिक पार्टियां इसके समर्थन में हैं, तो कुछ इसके खिलाफ। जिन पार्टियों को बड़े-बड़े लोकलुभावन वादे करने में ही फायदा दिखता है, वे इसके जारी रहने के पक्ष में खड़ी हैं। जो राजनीतिक दल ‘मुफ्त की रेवड़ियों’ के पक्ष में हैं, वह इसे अपने तरीके से परिभाषित करते हुए इसे ‘लोक कल्याण’ करार देते हैं। वहीं कुछ दल इस इस प्रकार की रणनीति को बड़ी बीमारी बता रहे हैं। इस तरह की मांग भी उठ रही है कि चुनाव से पहले वोटरों को लुभाने के लिए मुफ्त रेवड़ियां देने का वादा करने वाली पार्टियों की मान्यता खत्म की जानी चाहिए। इसके पीछे तर्क है कि अगर चुनाव से पहले रुपये-पैसे बांटना अपराध है, तो जीतने के बाद भी ऐसा करना अपराध है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस पर अपना मत व्यक्त करते हुए कह चुके हैं कि ‘रेवड़ी कल्चर’ देश के आर्थिक विकास में बाधा है। उधर, देश की सबसे बड़ी अदालत को राजनीतिक दलों का यह कदम कतई नहीं सुहाया है। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश, राजस्थान, केन्द्र सरकार, चुनाव आयोग और रिजर्व बैंक को नोटिस भेजा है। मुफ्त की चुनावी सौगातों से जुड़ी एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने जानना चाहा कि क्या ऐसे चुनावी वादों को कंट्रोल किया जा सकता है? लेकिन अब तक कहा जाता रहा है कि इश्क और जंग में सब जायज है। वहीं अब इसमें इश्क, जंग के साथ राजनीति भी जुड़ गया है।

साफ है कि रेवड़ी खाने से मुंह का स्वाद खासा मीठा हो जाता है। वहीं चुनावी रेवड़ी माहौल बदलने में सक्षम तो है ही, सत्ता में भी लाने का माद्दा रखती है। हालांकि चुनावी रेवड़ी का दांव कोई नया नहीं है। लगभग सभी दल समय-समय पर इसे हथियार के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं। दक्षिण के राज्यों में तो चुनावी रेवड़ियां बांटे जाने का चलन आम रहा है लेकिन आम आदमी पार्टी (आप) ने दिल्ली और पंजाब में इसे संस्कृति का रूप दे दिया है। हाल ही में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भी आप का अनुसरण किया। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के घोषणापत्र में हर परिवार को 200 यूनिट मुफ्त बिजली, घर की महिला मुखिया को महीने के दो हजार रुपये और गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को हर महीने दस किलो मुफ्त चावल और बेरोजगार युवाओं को 1500 से 3000 रुपये बेरोजगारी भत्ता देने का ऐलान किया। वहीं रेवड़ी बांटने में भाजपा भी अन्य दलों के साथ कदमताल करती दिखती है। कर्नाटक के लिए भाजपा के घोषणापत्र में अनुसूचित जाति और जनजाति के परिवारों को पांच साल के लिए दस हजार रुपये की एफडी करवाने, गरीब परिवारों को साल में तीन मुफ्त गैस सिलेंडर, रोज आधा लीटर नंदिनी दूध और हर महीने पांच किलो चावल और बाजरा मुफ्त देने का ऐलान किया गया था। वहीं कर्नाटक की जंग में तीसरी ताकत रही जेडीएस भी रेवड़ी बांटने का वादा करने में पीछे नहीं रही। एचडी कुमारस्वामी की पार्टी का घोषणापत्र ही रेवड़ियों पर आधारित रहा। इसमें गर्भवती महिलाओं को छह महीने तक छह हजार रुपये, विधवा महिलाओं को 2500 रुपये की सहायता, एक साल में पांच फ्री गैस सिलेंडर और किसान के बेटे से किसी लड़की की शादी होने पर उसे दो लाख रुपये की सब्सिडी देने की घोषणा की गई थी। उधर, आप ने दिल्ली और पंजाब की तर्ज पर कर्नाटक में 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली, छात्रों के लिए शहरों में मुफ्त बस यात्रा और 3000 रुपये की बेरोजगारी भत्ता देने का ऐलान किया था।

दिलचस्प बात यह है कि भाजपा हो, कांग्रेस या फिर जेडीएस, यह सभी दल कभी न कभी कर्नाटक की सत्ता में काबिज रहे हैं और सभी राज्य की आर्थिक सेहत से भलीभांति अवगत हैं। कर्नाटक पहले से ही साढ़े पांच लाख करोड़ रुपये के कर्ज से दबा हुआ है। इसकी भरपाई सरकार अप्रत्यक्ष कर से ही कर सकती है, जिसका बोझ आखिरकार गरीबों को ही ढोना होगा। रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि मार्च 2021 तक देश के सभी राज्यों पर कुल 69.47 लाख करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज है।
लोकलुभावने वादों के आधार पर चुनावी जीत की शुरुआत संभवत: द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) ने की थी, जो 1967 में तत्कालीन मद्रास राज्य में एक रुपये में चावल देने के वादे के साथ सत्ता में आई थी। हालांकि, इस चुनावी वादे पर अमल सिर्फ राज्य की राजधानी तक ही सीमित रहा क्योंकि इस पर आने वाला खर्च वहन करना संभव नहीं था। अपनी खुद की पार्टी बनाने के लिए डीएमके से अलग होने के बाद एम.जी. रामचंद्रन ने स्कूलों में मुफ्त मध्याह्न भोजन के एक सीमित कार्यक्रम को और आगे बढ़ाया। हालांकि इसका फायदा भी हुआ। जैसे-बेहतर पोषण, बेहतर स्कूल उपस्थिति और इस वजह से साक्षरता दर में सुधार दिखा, यहां तक कि जन्म दर भी घटी, अब यह एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम बन चुका है। 1983 में, आंध्र प्रदेश में एन.टी. रामाराव ने भी डीएमके वाली राह अपनाई और दो रुपये प्रति किलो चावल के वादे के साथ विधानसभा चुनावों में शानदार जीत दर्ज की। हालिया वर्षों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कई बड़े वादे (जैसे, किसानों की आय दोगुनी करना या अर्थव्यवस्था पांच अरब डॉलर पर पहुंचाना) पूरे करने में नाकाम रही है, और इसलिए अपनी लोकलुभावनी योजनाओं पर जोर दे रही है। जैसे, किसानों को नकद भुगतान, मुफ्त खाद्यान्न, मुफ्त शौचालय, आवास सब्सिडी, मुफ्त चिकित्सा बीमा और इसी तरह की अन्य कल्याणकारी योजनाएं। वैश्विक महामारी कोविड के दौर में केन्द्र की भाजपा सरकार ने मुफ्त राशन देने की योजना चलायी। इसका लाभ भी उसे मिला और देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में भाजपा एक बार फिर सत्ता पर काबिज हुई। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यूपी में भाजपा को योगी सरकार के सख्त प्रशासन और मुफ्त राशन ने दोबारा सत्ता सौंपी है।

तथ्यों के इतर जहां एक ओर चुनावों में रेवड़ियां बांटने की जितनी आलोचना हो रही है, वहीं उतना ही इसका चलन बढ़ता जा रहा है। तमाम राज्यों में कई पार्टियां अपने-अपने वोटरों को रिझाने के लिए साइकिल, मोबाइल, लैपटॉप से लेकर तरह-तरह की चीजें बांटने का ऐलान करती रही हैं। दूसरी तरफ यह बात कही जाती है कि ऐसे ऐलान राज्य की अर्थव्यवस्था को खस्ताहाल छोड़ देंगे। कई राज्य अब भी कर्ज में डूबे हुए हैं। भाजपा के आरोपों पर पलटवार करते हुए कांग्रेस का तर्क है कि बड़े कॉरपोरेट घरानों के कर्ज माफ करना ‘रेवड़ी बांटने’ जैसा ही है। अब जबकि पांच राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में विधानसभा चुनावों का ऐलान हो चुका है। इन सभी राज्यों में एक साथ तीन दिसंबर को रिजल्ट आएंगे। चुनाव के ऐलान के साथ ही राजनीतिक दल सक्रिय हो गये हैं और शह और मात का खेल शुरू हो चुका है।
एक तो पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव ऐसे समय में हो रहे हैं जब लोकसभा चुनावों का समय भी नजदीक आ चुका है। ऐसे में विधानसभा के यह चुनाव खासे महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यही वजह है कि सभी राज्यों में सरकारों ने लोक लुभावन घोषणाएं करने के रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। इन चुनावों में फ्रीबीज या चुनावी रेवड़ियों की भी परीक्षा होने वाली है। अन्दरूनी कलह से जूझ रहे राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने चुनाव से ठीक छह महीने पहले लोकलुभावन घोषणाओं की झड़ी लगा दी। बिजली बिल माफी से लेकर मुफ्त मोबाइल बांटने तक तमाम घोषणायें वह कर चुके हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने राजस्थान में 33 से बढ़ाकर 53 जिले तक कर दिए। जाति के आधार पर बोर्ड बना दिए गए। गहलोत जहां अपनी जनकल्याणकारी योजनाओं के दम पर सत्ता में वापसी का दम भर रहे हैं, तो वहीं भारतीय जनता पार्टी भ्रष्टाचार, कानून व्यवस्था, पेपरलीक, तुष्टिकरण जैसे मुद्दों को आधार बना रही है। उधर, मध्य प्रदेश में वर्ष 2018 में भारतीय जनता पार्टी की कांग्रेस से चंद सीटें कम रह गई थीं। कांग्रेस ने युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया की जगह अनुभवी कमलनाथ को सत्ता की बागडोर सौंप दी थी, लेकिन सिंधिया की बगावत के चलते भारतीय जनता पार्टी पुन: सत्ता में आई। शिवराज सिंह चौहान फिर मुख्यमंत्री बने, लेकिन मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री बदलने के कयास चलते रहे। अभी भले चुनाव शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री रहते हुए लड़ा जा रहा है, लेकिन यदि भारतीय जनता पार्टी सत्ता में लौटती है तो उन्हीं को कुर्सी मिलेगी, इसका कोई स्पष्ट संकेत पार्टी की ओर से नजर नहीं आ रहा है। वहीं इस बार जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी ने केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से लेकर कद्दावर कैलाश विजयवर्गीय, केन्द्रीय मंत्रियों, सांसदों को टिकट दिया है। जाहिर है इन परिस्थितियों में शिवराज सिंह चौहान की राह आसान नहीं होगी। हालांकि, उन्होंने सत्ता वापसी के लिए चुनाव से ठीक पहले तमाम ‘रेवड़ियां’ खुलकर बांटी। वहीं कांग्रेस में मुख्य चेहरा कमलनाथ का ही नजर आ रहा है। वह अपने एक साल के कार्यकाल को लेकर जनता को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। साथ ही कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में वादों की झड़ी लगा दी है।

वहीं, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार 2018 में बनी थी। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी अशोक गहलोत की तरह अपने पूरे कार्यकाल में अन्र्तकलह से जूझते रहे हैं। सत्ता में पुन: वापसी के लिए भूपेश बघेल ने भी चुनावी रेवड़ियों का सहारा लिया है। अब तक बघेल काफी मजबूत स्थिति में नजर आ रहे हैं, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के पास कोई मजबूत चेहरा नहीं है। पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह पिछले पांच साल ज्यादा सक्रिय नहीं रहे। उधर, दक्षिण के राज्य तेलंगाना में के.चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति सत्ता में है। राव दो बार से सत्ता में बने हुए हैं। जिस तरह से वर्ष 2018 में उन्हें बहुमत मिला था तो कहा जा सकता है कि उनकी लोकप्रियता का ग्राफ काफी ऊंचा है। हालांकि, राव भी सरकार विरोधी लहर का सामना कर रहे हैं। उन्हें कांग्रेस के साथ भारतीय जनता पार्टी से भी चुनौती मिल रही है। उपचुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह से प्रदर्शन किया तो लग रहा है कि वो यहां तीसरी ताकत बन रही है। अन्य मुख्यमंत्रियों की तरह के. चंद्रशेखर राव ने भी कोई ऐसा अवसर नहीं छोड़ा, जहां उन्होंने मुफ्त की घोषणाएं न की हों। मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट की सरकार है और उसने वर्ष 2018 में 40 सीटों वाली विधानसभा में 26 सीटें जीती थीं। यहां पर मुख्य रूप से मुकाबला मिजो नेशनल फ्रंट और जोरम पीपुल्स मूवमेंट के बीच है। राष्ट्रीय पार्टियों यहां अपनी जमीन नहीं तैयार कर सकी हैं। खैर, राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से मतदाताओं पर डोरे डालने का उपक्रम कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि जनता के टैक्स के पैसों को अपना राजनीतिक हित साधने के लिए ‘रेवड़ियों’ पर खर्च करना कहां तक उचित है? यह सर्वविदित है कि मुफ्त के इस खेल में सबसे ज्यादा बोझ करदाताओं पर ही पड़ता है। मुफ्त की योजनाओं के चक्कर में सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ता जा रहा है। इस तरह के खर्चों से उन राज्यों का बजट घाटा भी बढ़ता है और राज्यों को कर्ज लेना पड़ता है, जिसके बाद राज्यों की आमदनी का बड़ा हिस्सा ब्याज चुकाने में ही चला जाता है। भारतीय रिजर्व बैंक की सालाना रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि सब्सिडी के बढ़ते बोझ की वजह से कई राज्यों की आर्थिक हालत खराब है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि कई राज्य टैक्स से हुई अपनी आमदनी का 35 फीसद तक हिस्सा मुफ्त की योजनाओं पर खर्च कर देते हैं। ऐसे राज्यों में पंजाब (35.4 प्रतिशत), आंध्र प्रदेश (30.3प्रतिशत) और मध्य प्रदेश (28.8 प्रतिशत) सूची में टॉप पर हैं। झारखंड में यह आंकड़ा 26.7 फीसदी और पश्चिम बंगाल में 23.8 फीसदी है। चुनावी राज्य राजस्थान में यह आंकड़ा 8.6 फीसदी है। लेकिन वहीं केरल ने ‘रेवड़ियों’ पर सबसे कम 0.1 फीसद लुटाया है। साफ है कि मुफ्त की योजनाआें से राज्यों की माली हालत पतली होती जा रही है। स्थिति यह है कि कई राज्यों के कर्ज उनकी जीएसडीपी के 30 फीसदी से ज्यादा हैं। पंजाब पर अपनी जीएसडीपी का करीब 48 फीसदी, राजस्थान पर 40 फीसदी, मध्य प्रदेश पर 29 फीसदी तक कर्ज है। मुफ्त की रेवड़ियों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में जो जनहित याचिका दायर की गई है, उसमें रिजर्व बैंक की रिपोर्ट का जिक्र करते हुए कहा गया है कि 2006 में मध्य प्रदेश का कुल बकाया कर्ज 49,646 करोड़ रुपये था। इसमें कहा गया है कि मार्च, 2023 में यह कर्ज बढ़कर 3.78 लाख करोड़ रुपये हो चुका है। पंजाब पर पिछले डेढ़ साल में 47,000 करोड़ रुपये से ज्यादा का कर्ज हो गया है। दिलचस्प बात यह है कि राजनीतिक दल अपनी पार्टी को मिले फंड से रेवड़ियां नहीं बांटते हैं। साफ है कि राजनीतिक फायदे के लिए राजनीतिक दलों ने विकास को पीछे छोड़ दिया है। ऐसा लगता है कि ये रेवड़ियां अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे में निवेश की कीमत पर बांटी जा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार, मध्य प्रदेश सरकार, राजस्थान सरकार और भारतीय चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। कोर्ट के समक्ष दायर याचिका में मुफ्त की रेवड़ियों की घोषणा पर रोक लगाने की मांग की गई है।

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