काशी का महालक्ष्मी मंदिर जहां मां पार्वती ने व्रत रखकर गणेशजी को दिलाई प्रथम पूज्य का वरदान
भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी से क्वार कृष्ण पक्ष अष्टमी तक मां भक्तों को देती है साक्षात दर्शन। इस अवधि में जो भी भक्त 16 दिन तक नियमित महालक्ष्मी का व्रत रख पूजा एवं परिक्रमा कर ले, उनका सोने से घर भरते देर नहीं लगती। मां लक्ष्मी उसे शक्ति और ऐश्वर्य से परिपूर्ण कर देती हैं। काशी में इसे सोरहिया मेले के नाम से जाना जाता है। शनिवार से शुरू इस मेले का समापन रविवार को होगा। इस दिन सौभाग्यवती महिलाएं व्रत रखकर लक्ष्मी व हाथी पूजन करती हैं। इसी दिन जिउतिया पर्व मनाएंगी। इस दिन महिलाएं माता लक्ष्मी मंदिर के साथ-साथ घाटों, कूंडो व तालाबों पर पहुंचकर पूजा करेंगी और पितृों को अर्घ्य देंगी। मंदिर के पुजारी अविनाश पांडेय बताते है कि यहां माता पार्वती ने पुत्र गणेश व कार्तिकेय की दीर्घायु के लिए सोलह दिन का व्रत रखकर पूजन-अर्चन की थी। इस कठिन व्रत के बाद भगवान गणेश देवों में प्रथम पूज्य कहलाए।
-सुरेश गांधी
चमत्कार की ढेरों कहानियां अपने अंदर समेटे काशी में विराजमान हैं माता लक्ष्मी। वह भी एक-दो नहीं, बल्कि तीन रूपों में भक्तों को दर्शन देती है मां माता लक्ष्मी। पहला मां लक्ष्मी, दूसरा मां काली और तीसरा मां सरस्वती, जिन्हें सोरहिया के रूप में भी जाना जाता है। खास बात यह है कि माता ज्यूतियां भी इन तीनों माताओं के साथ हैं। मान्यता है कि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी से क्वार कृष्ण पक्ष अष्टमी तक संतान सुख से वंचित कोई भी महिला मां का व्रत रख सोरहिया मेले के दिन विधि-विधान से सोलहों श्रृंगार में सज-धज पूजन-अर्चन व व्रत का पारण किया उसे मिल जाता है पुत्र रत्न की प्राप्ति का वरदान। इतना हीं नहीं, इस दौरान सोलहों दिन कोई भी भक्त माता के दरबार में पांच फेरे लगाकर मत्था टेकता है तो मां उसकी सभी बाधाएं दूर हो जाती है। मां भर देती है धन संपदा से उसकी झोली। यह दिव्य एवं मनोरम स्थल है तीनों लोकों में न्यारी धर्म एवं आस्था की नगरी काशी के लक्शा स्थित लक्ष्मी कुंड के पास। यहां माता लक्ष्मी का भव्य मंदिर है। मंदिर से सटा विशाल तालाब है, जिसे लक्ष्मी कुंड के नाम से जाना जाता है।
मंदिर के पुजारी अविनाश पांडेय बताते है कि यहां माता पार्वती ने पुत्र श्रीगणेश व श्री कार्तिकेय की दीर्घायु के लिए सोलह दिन का व्रत रखकर पूजन-अर्चन की थी। इस कठिन व्रत के बाद भगवान श्री गणेश देवों में प्रथम पूज्य कहलाएं। मान्यता है कि यहां जो भी महिलाएं विधि विधान से 16 दिन का उपवास रख पुत्र कल्याण व धन्यधान की मन्नतें मांगती है वह पूरा हो जाता है। कहते है जब माता पार्वती यहां सोलहों दिन का उपवास रखी थी। उसी दौरान भ्रमण पर निकली माता लक्ष्मी यहां पहुंची थी। माता लक्ष्मी के विशेष आग्रह के बाद भी जब माता पार्वती उनके साथ नहीं गयी तो वह भी यहीं विराजमान होकर पूजन-अर्चन करने लगी। उनकी तपस्या से ही खुश होकर मां काली और मां सरस्वती भी आ गयी और माता पार्वती के संग श्री गणेश व कार्तिकेय की दीर्घायु के लिए व्रत रखा। उसी के बाद से यहां 16 दिन का सोरहिया मेले का आयोजन होता चला रहा है।
यह मंदिर अत्यंत सुंदर, आकर्षक और लाखों लोगों की आस्था का प्रमुख केंद्र है। सोलहों दिन लगने वाले सोरहिया मेले के अंतिम दिन लाखों भक्त अपनी-अपनी मन्नतों की पोटली लेकर पहुंचते है और महालक्ष्मी की आराधना कर ले जाते है सुख-समृद्धि एवं धन्यधान से परिपूर्ण होने का आर्शीवाद। देवी भागवत् में कहा गया है कि संसार को उत्पन्न करने वाली शक्ति महालक्ष्मी माता हैं। सरस्वती, लक्ष्मी और काली यह सभी इन्हीं के स्वरूप से उत्पन्न हुई हैं। जिन पर महालक्ष्मी माता की कृपा हो जाती है उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। इसी मान्यता के तहत महिलाएं अखंड सौभाग्य एवं बच्चों की उन्नति की कामना के लिए व्रत रखती हैं। पूजा के पहले दिन घरों में महालक्ष्मी अपने दो रूपों ज्येष्ठा और कनिष्ठा के रूप में विराजमान होती है। इस दौरान उनके एक पुत्र एवं एक पुत्री की प्रतिमाएं भी स्थापित की जाती हैं।
महालक्ष्मी पूजा के पहले दिन मां के स्वागत के लिए घर के प्रवेश द्वार से कक्ष तक रंगोली से देवी मां के पद चिन्ह बनाए जाते है। घर के दरवाजों एवं पूजा स्थल को आम के पत्तों से बने तोरण से सजाया जाता है। प्रतिमा की स्थापना के पूर्व महालक्ष्मी की प्रतिमा के नीचे गेहंूू-चावल की ओली रखी जाती है, इसके बाद ज्येष्ठा और कनिष्ठा की स्थापना के बाद महालक्ष्मी का विधि-विधान से सोलह श्रृंगार, वैदिक मंत्रोच्चार के साथ पूजा होती है। पूजा में नक्षत्रों का विशेष महत्व होता है। अनुराधा नक्षत्र में देवी की स्थापना, ज्येष्ठ नक्षत्र में पूजा और मूल नक्षत्र में देवी की विदाई होती है।
शक्तिपीठ का है दर्जा
इस मंदिर को शक्तिपीठ के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। यहां माता महालक्ष्मी की पूजा यूं तो सालों भर होती है लेकिन श्राद्ध के दिनों में इसका महत्व बढ़ जाता है। इन दिनों में मां प्रसन्न होकर सुहागिनों को पति के साथ-साथ पुत्रों की लंबी उम्र का वरदान देती हैं। इस मंदिर की एक बड़ी ही रोचक मान्यता है कि माता को सिंदूर, बिंदी, महावर सहित सोलहों श्रृंगार की अन्य वस्तुएं अर्पित की जाती हैं। इनमें एक सोलह गांठों वाला धागा भी शामिल होता है। मंदिर के पूजारी इस धागे को माता का स्पर्श करवाकर श्रद्धालु को देते हैं। माना जाता है कि इस धागे में माता की कृपा होती है जो भक्त को आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त होता है। आश्विन कृष्ण अष्टमी के प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं पुत्र की दीर्घायु की कामना के साथ महिलाएं जीवित्पुत्रिका का निर्जला व्रत भी रखती है। लक्ष्मी कुंड या नदियों, सरोवरों में स्नान कर पूजन-अर्चन करती हैं।
मां का विग्रह रुप
लक्ष्मीकुंड मंदिर में मां लक्ष्मी का विग्रह रुप है। मंदिर के गुंबद में आज भी माता पार्वती के हाथों निर्मित 16 जड़ित कलश आज भी मौजूद है। महालक्ष्मी का पूजन अर्चन करने वालों के लिए मान्यता यह है कि पखवारे भर वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जमीन पर कंबल पर रात्रि में शयन करते हैं। एक वक्त भोजन किया जाता है। महालक्ष्मी मंदिर के मुख्य द्वार पर सुंदर नक्काशी की गई है। मंदिर परिसर में विभिन्न देवी-देवताओं की आकर्षक प्रतिमाएं स्थापित हैं। मंदिर के गर्भगृह में महालक्ष्मी, महाकाली एवं महासरस्वती तीनों देवियों की प्रतिमाएं एक साथ विद्यमान हैं। तीनों प्रतिमाओं को सोने एवं मोतियों के आभूषणों से सुसज्जित किया गया है। यहां आने वाले हर भक्त का यह दृढ़ विश्वास होता है कि माता उनकी हर इच्छा जरूर पूरी करेंगी। महालक्ष्मी व्रत से आप साल भर की आमदनी का इंतजाम कर सकते हैं। महालक्ष्मी व्रत पूरे 15 दिन चलता है। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत से गरीबी हमेशा-हमेशा के लिए चली जाती है। महालक्ष्मी के महाव्रत से आप अपने घर के आंगन में धन की बरसात भी कर सकते हैं। इस अवधि में शक्ति पीठों में शक्ति मां मौजूद रहकर जन कल्याण के लिये भक्त जनों का परिपालन करती है।
पौराणिक मान्यताएं
मान्यता है कि मां लक्ष्मी को धन की देवी है। महालक्ष्मी की पूजा घर और कारोबार में सुख और समृद्धि लाने के लिए की जाती है। काशी की यह शक्ति पीठं बहुत ही सुप्रसिद्ध है क्योंकि यहां जो भी अपने विचारों को प्रकट करता है वो तुरंत मां जी के आशीर्वाद से पूरा हो जाता है या उस व्यक्ति मुक्ति पाकर उसका जनम सफल हो जाता है। भगवान विष्णु के पत्नी होने के नाते इस मंदिर का नाम माता महालक्ष्मी से जोड़ा हुआ है और यहां के लोग इस जगह में महाविष्णु महालक्ष्मी के साथ निवास करते हुए लोक परिपालन करने का विशवास करते है। मंदिर के अन्दर नवग्रहों, भगवान सूर्य, महिषासुर मर्धिनी, विट्टल रखमाई, शिवजी, विष्णु, तुलजा भवानी आदी देवी देवताओं को पूजा करने का स्थल भी दिखाई देते हैं। इन प्रतिमाओं में से कुछ 11 वीं सदी के हो सकते हैं, जबकि कुछ हाल ही मूल के हैं। इसके अलावा आंगन में स्थित मणिकर्णिका कुंड के तट पर विश्वेश्वर महादेव मंदिर भी स्थित हैं।
लक्ष्मी व्रत एवं पूजन विधि
महालक्ष्मी व्रत के दौरान शाकाहारी भोजन करें। पान के पत्तों से सजे कलश में पानी भरकर मंदिर में रखें। कलश के ऊपर नारियल रखें। कलश के चारों तरफ लाल धागा बांधे और कलश को लाल कपड़े से अच्छी तरह से सजाएं। कलश पर कुमकुम से स्वास्तिक बनाएं। स्वास्तिक बनाने से जीवन में पवित्रता और समृद्धि आती है। कलश में चावल और सिक्के डालें। इसके बाद इस कलश को महालक्ष्मी के पूजास्थल पर रखें। कलश के पास हल्दी से कमल बनाकर उस पर माता लक्ष्मी की मूर्ति प्रतिष्ठित करें। मिट्टी का हाथी बाजार से लाकर या घर में बना कर उसे स्वर्णाभूषणों से सजाएं। नया खरीदा सोना, हाथी पर रखने से पूजा का विशेष लाभ मिलता है। माता लक्ष्मी की मूर्ति के सामने श्रीयंत्र भी रखें। कमल के फूल से पूजन करें। सोने-चांदी के सिक्के, मिठाई व फल भी रखें। इसके बाद माता लक्ष्मी के आठ रूपों की इन मंत्रों के साथ कुंकुम, चावल और फूल चढ़ाते हुए पूजा करें। इन आठ रूपों में मां लक्ष्मी की पूजा करें- श्री धन लक्ष्मी मां, श्री गज लक्ष्मी मां, श्री वीर लक्ष्मी मां, श्री ऐश्वर्या लक्ष्मी मां, श्री विजय लक्ष्मी मां, श्री आदि लक्ष्मी मां, श्री धान्य लक्ष्मी मां और श्री संतान लक्ष्मी मां।
पूजा में 16 अंकों का विशेष महत्व
पूजा के दूसरे दिन सप्तमी को मां का विशेष भोग लगाया जाता है। इसमें 16 अंकों का विशेष महत्व होता है। 16 प्रकार के आभूषण से मां का श्रृंगार होता है। इस दिन 16 प्रकार के सब्जियों से मां को भोग लगाया जाता है। वहीं, 16 प्रकार के पुष्प और पत्तियां अर्पण कर महाआरती की जाती है। इसके दौरान अतिरिक्त दाल, चावल, रोटी, पूरणपोली, विशेष प्रसाद अंबील अनिवार्य रूप से भोजन में बनाने की परंपरा है। भोजन सामग्री में एक बार थाली में आ पाना संभव नहीं होने के कारण पुरातन परंपरा के अनुसार कमल के पत्ते में भोजन ग्रहण करने एवं देवी मां को नैवेद्य चढ़ाने का विधान है। सोरहिया मां का पूजा करने के बाद लक्ष्मी जी का दर्शन का विधान है। इसमें 16 पेड़ा, 16 दुब की माला, 16 खड़ा चावल, 16 गांठ का धागा, 16 लौंग, 16 इलायची, 16 पान, 16 खड़ी सुपारी, श्रृंगार का सामान मां को अर्पित किया जाता है। यहां आने वाली महिलाएं बताती है की जिन्हें संतान सुख प्राप्त नहीं होता है वो यहां आती है उन्हें संतान सुख प्राप्त होता है और हमारे घर में लक्ष्मी का वास होता है।
अगर आप भी समृद्धि और सौभाग्य की देवी मां लक्ष्मी को प्रसन्न करना चाहती हैं तो सोरहिया पूजन जरूर करें। सोरहिया व्रत एवं पूजन 16 दिनों तक चलता है, जिसकी शुरुआत भाद्रपद के शुक्लपक्ष की अष्टमी से होता है। विवाहित महिलाएं व्रत का संकल्प लेकर 16 दिनों तक इसे धारण करती हैं। स्नान के बाद महालक्ष्मी मंदिर में पूजन कर सोलह गांठ का धागा पूजती हैं। धागे को बांह में बांधने के साथ ही 16 दिन का अपना व्रत शुरू कर देती हैं। मिट्टी की बनी मां लक्ष्मी की मूर्ति की पूजा कर उसे अपने साथ घर ले जाती हैं। अंतिम 16 वे दिन जिउत पुत्रिका लोकाचार में जिवतिया पर्व के साथ इस कठिन व्रत तप की समाप्ति होती है।
कलेवा भी बांधते हैं
तीन दिवसीय उत्सव के दौरान तीसरे दिन बच्चों की सुख-समृद्धि की कामना के लिए घर की महिलाएं दोपहर को पोथी का वाचन कर कथा श्रवण करती हैं। बच्चों तथा घर के अन्य सदस्यों के हाथों में हल्दी से भीगा कलेवा (धागा) बांधा जाता है। इसी दिन शाम को सुहागिनों का हल्दी व कुमकुम कार्यक्रम होता है। परंपरा के अनुसार एक परिवार में किसी एक को सामान्यतः बड़े पुत्र को इस आयोजन का दायित्व परंपरागत तरीके से सौंपा जाता है।
लक्ष्मी कुंड
पुराणों के अनुसार, प्राचीन लक्ष्मीकुण्ड की स्थापना अगस्त ऋषि ने की थी। व्रत से जुड़ी मान्यता है कि महाराजा जिउत की कोई संतान नहीं थी। महाराज ने मां लक्ष्मी का ध्यान किया और मां लक्ष्मी ने सपने मे दर्शन देकर सोलह दिनों के इस कठिन व्रत का अनुष्ठान करने को कहा। महाराजा जिउत ने ठीक वैसे ही 16 दिनों तक व्रत रखा और मां लक्ष्मी की पूजा की। कुछ दिनों बाद ही उन्हें संतान के साथ समृद्धि और ऐश्वर्य की भी प्राप्ति हुई, तभी से इस परम्परा का नाम सोरहिया पड़ा।