Bihar : मखाना कारोबार बदलेगी किसानों की तकदीर!

इस आम बजट में भारत सरकार ने मखाना किसानों के लिए बिहार में मखाना विकास बोर्ड की स्थापना करने की घोषणा की है। राज्य के किसान मखाना की खेती के विस्तार के लिए लंबे अरसे से वैज्ञानिक अनुसंधान की मांग कर रहे हैं और उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। क्या यह बोर्ड उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा। क्या महज 36 हजार हेक्टेयर में पैदा होने वाली मखाने की खेती का विस्तार होगा? पटना से प्रेमांशु की एक रिपोर्ट।
जिस रोज राजधानी दिल्ली में आम बजट पेश हो रहा था, बिहार के कटिहार जिले के दीवानगंज गांव में विद्यानाथ अपने खेतों में मखाना की बुआई की तैयारी कर रहे थे। मेड़ पर रखा उनका मोबाइल उन्हें वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का भाषण भी सुना रहा था। जब उन्होंने सुना कि केन्द्र सरकार ने बिहार में मखाना विकास बोर्ड की स्थापना हेतु स्वीकृति दे दी है तो उनके चेहरे पर चमक आ गई। पीजी तक की पढ़ाई करने के बाद जब ढंग की नौकरी नहीं मिली और दिल्ली शहर में प्राइवेट नौकरी के चक्कर में चार साल गंवा दिया तब जाकर उन्हें समझ में आया कि इन कोशिशों से परिवार नहीं चलने वाला और विद्यानाथ कोरोना के वक्त अपने गांव लौट आये। उन दिनों उनके गांव में किसान खेतों में मखाने की खेती की शुरुआत कर रहे थे। यह इस इलाके के लिए नई फसल थी, अब तक दरभंगा-मधुबनी जिले के किसान ही मखाना की खेती करते थे, वह भी ताल-तलैये और पोखरों में। खेतों में भी मखाना उगाया जा सकता है, यह तरीका पूर्णिया-कटिहार के किसानों ने विकसित किया था। विद्यानाथ को यह काम पसंद आ गया। कुछ अपनी जमीन पर और कुछ लीज पर जमीन लेकर उन्होंने मखाने की खेती शुरू की। पहले एक-दो साल तो दिक्कतें रहीं मगर फिर मखाने की कीमत तेजी से बढ़ने लगी। पिछले दो-तीन साल में मखाने की कीमत तीन गुनी हो गई है। जो मखाना पहले 400 से 500 रुपये किलो बिकता था, अब वह 1200 से 1500 रुपये किलो बिक रहा है। इससे किसानों को भी लाभ हुआ है। अब केन्द्र सरकार के इस फैसले से विद्यानाथ को लग रहा है कि मखाने की खेती में मुनाफा और तेजी से बढ़ेगा और उनका इस खेती को अपनाने का फैसला सही साबित हुआ है।
पूर्णिया में मखाने की खेती करने वाले किसान चिन्मयानंद कहते हैं, ‘दरअसल मखाना विकास बोर्ड का इंतज़ार लंबे अरसे से था। चूंकि अब तक मखाने की खेती पारंपरिक तरीके से ही होती आई है, इसमें कोई वैज्ञानिक हस्तक्षेप नहीं हुआ है। यह एक जटिल फसल है। पानी में इसकी खेती होती है और इसके पत्ते कंटीले होते हैं। इसके खेत से खरपतवार को हटाना हो, या फिर हार्वेस्टिंग और प्रोसेसिंग का काम हो, यह आज भी पारंपरिक तरीके से ही हो रहा है। इन सबको करने वाले लोग लगातार घट रहे हैं, नई पीढ़ी इस जटिल काम को अपनाना नहीं चाहती। इन सब काम के लिए वैज्ञानिक हस्तक्षेप की ज़रूरत है। हमें बेहतर वीडिसाइड यानी खरपतवार नाशक चाहिए और साथ ही साथ हार्वेस्टिंग और प्रोसेसिंग के लिए आधुनिक मशीन भी चाहिए।’ हालांकि चिन्मय यह नहीं जानते कि मखाना विकास बोर्ड मखाने की मार्केटिंग का ही काम करेगा। वह मखाना की फसल में वैज्ञानिक हस्तक्षेप की उनकी उम्मीदों को शायद ही पूरा करे। मखाना की खेती में वैज्ञानिक हस्तक्षेप के लिए दो संस्थाएं काफी पहले से काम कर रही हैं। इनमें पहली संस्था मखाना अनुसंधान केन्द्र है जो पूर्णिया में है और दूसरी संस्था भोला पासवान शास्त्री कृषि महाविद्यालय है। यह भी पूर्णिया में है लेकिन ये दोनों संस्थान मखाना किसानों की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं।
बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रयासों से मखाना अनुसंधान केन्द्र की स्थापना फरवरी, 2001 में हुई थी। उस वक्त वह केन्द्र सरकार में कृषि मंत्री थे। मखाना अनुसंधान केन्द्र से उम्मीद लगाई गई थी कि वह मखाना किसानों के लिए बेहतर तकनीक का विकास करेगी, उत्तर बिहार के इलाकों में बेकार पड़े नौ लाख हेक्टेयर से अधिक जलजमाव वाली जमीन को मखाना की खेती के अनुकूल बनाने में मदद करेगी। मखाना की पैदावार बढ़ाने के लिए नई तकनीक विकसित करेगी। लेकिन यह संस्था इनमें से किसी भी लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाई, सिवाय कुछ हजार किसानों को औपचारिक प्रशिक्षण देने के वहां कोई खास काम नहीं होता है। 2023 में मखाना अनुसंधान केन्द्र को राष्ट्रीय केन्द्र का दर्जा मिला था लेकिन हालिया रिपोर्ट के मुताबिक इस केद्र का जो 18-20 एकड़ का हिस्सा मखाना और दूसरे जलीय फलों की खेती और विकास के लिए चिन्हित किया गया था, वहां कहीं आलू की खेती हो रही है तो कहीं मछली पालन। कृषि मंत्रालय द्वारा जारी प्रेस रिलीज के मुताबिक 2012 से 2023 के बीच इस केन्द्र ने तीन हजार किसानों को मखाना खेती के लिए प्रशिक्षित किया है। इसके अलावा इस केन्द्र के खाते में कोई उपलब्धि नहीं बतायी गयी।
वहीं भोला पासवान शास्त्री कृषि महाविद्यालय, पूर्णिया ने जरूर इस खेती का रकवा बढ़ाने में मदद की। 2011-12 से पहले मखाना की खेती सिर्फ तीन जिलों दरभंगा, मधुबनी और सीतामढ़ी में ही मुख्य रूप से होती थी। वह भी पारंपरिक तरीकों से ताल-तलैयों में। इस कृषि महाविद्यालय की मदद से आठ नये जिलों में मखाना की खेती शुरू की गई। इससे पहले मखाना की खेती का रकबा महज आठ हजार हेक्टेयर ही था, जो अब लगभग चौगुना हो चुका है। इस महाविद्यालय ने मखाने की हार्वेस्टिंग और प्रोसेसिंग के लिए उपकरण भी तैयार किये, लेकिन कई वजह से वे उपकरण सफल नहीं हो पाये। इसके अलावा जल-जमाव वाले नौ लाख हेक्टेयर जमीन पर मखाने की खेती का सपना आज भी सपना है।

जुगाड़ से मिला जीआई टैग
मिथिला को जीआई टैग के लिए बहुत जुगत जुगाड़ करना पड़ा। शुरू में इस बात को लेकर संशय था कि बिहार मखाना या मिथिला मखाना में से किस नाम से जीआई टैग के लिए आवेदन भेजा जाए क्योंकि ऐतिहासिक प्रमाणों की इसमें ज़रूरत होती है। लेकिन लाइब्रेरी और पुराने दस्तावेज़ों तक पहुंच इतनी आसान नहीं थी। इसलिए जान-बूझकर एक रणनीति अपनाई गई जिसने विवाद पैदा कर दिया। और इन सबके पीछे भोला पासवान शास्त्री कृषि कॉलेज, पूर्णिया में जूनियर सांइटिस्ट और सहायक प्रोफेसर अनिल कुमार थे, जिन्होंने जीआई टैग के आवेदन से जुड़े सारे दस्तावेज़ तैयार किए। कुमार ने बताया कि डाक्युमेंटेशन के पहले चरण में ऐतिहासिक पहलुओं को खोजना बहुत मुश्किल हो रहा था, इसके लिए हम दरभंगा गए जहां लाइब्रेरी में प्रवेश नहीं मिला। फिर वहां के विद्वानों से मिले तो उन्हें लगा कि अगर हम इसके बारे में जानकारी दे देंगे तो कहीं हम बहुत बड़ी बात तो नहीं बता देंगे। उन्होंने कोई जानकारी नहीं दी। फिर हमने एक रणनीति बनाई और बिहार मखाना के नाम से प्रेस नोट निकाल दिया। इसके जारी होते ही कोहराम मच गया। इसके बाद सभी लोग खुद से ही इसके ऐतिहासिकता के बारे में जानकारी देने लगे। यह रणनीति सफल रही और आखिरकार टैग मिथिला क्षेत्र के नाम से ही मिला, जो कि बिहार और मिथिला दोनों के लिए ही जश्न की बात थी। बता दें कि मखाना को मिथिलांचल मखाना उत्पादक संघ के नाम पर जीआई टैग मिला है जो कि अगले 10 साल के लिए वैध रहेगा। उसके बाद फिर से इसको रिन्यू कराना होगा।
तालाबों में भी होती है मखाने की खेती
मखाने की खेती आमतौर पर तालाबों में की जाती है, जहां पानी की उपलब्धता अधिक होती है। किसानों को तालाबों में मखाने की खेती करने से कई फायदे हैं। मसलन तालाबों में पानी की उपलब्धता अधिक होती है, जो मखाने की खेती के लिए जरूरी है। तालाबों में जल स्तर को नियंत्रित किया जा सकता है। इसके अलावा तालाबों की मिट्टी आमतौर पर उपजाऊ होती है। तालाबों में मखाने की खेती करने से कीटों और रोगों का प्रबंधन आसान होता है। इससे फसल की उत्पादकता बढ़ जाती है। इसकी प्रक्रिया दिलचस्प है। सबसे पहले तालाब को तैयार करने के लिए जल स्तर को नियंत्रित किया जाता है और मिट्टी को उपजाऊ बनाया जाता है। फिर मखाने के बीजों को तालाब में बोया जाता है। तालाब में पानी की उपलब्धता के अनुसार सिंचाई की जाती है। फिर इसकी निराई-गुड़ाई की जाती है। तालाबों में मखाने की खेती करने से किसानों को कई फायदे होते हैं, जैसे कि बढ़ी हुई उत्पादकता, कम लागत और अधिक आय।
मखाने में मौजूद पौष्टिक तत्व
मखाना को अक्सर जैविक, ग्लूटेन-मुक्त और अपने पोषण-मूल्य के चलते सुपरफूड के रूप में बेचा जाता है। एक शोधकर्ता और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के लिए किताब लिखने वाले विद्यानंद झा बताते हैं, ‘मखाना भोजन के रूप में एक औषधि की तरह है। इसमें 78 फीसदी कार्बोहाइड्रेट और 10 फीसदी प्रोटीन होता है। यह कई खनिजों से भी समृद्ध है।’
इस तरह हम देखें तो मखाना की खेती के विस्तार में बड़ी बाधा तकनीकी विकास की कमी है। इसे बेहतर खरपतवार नाशक, हार्वेस्टिंग और प्रोसेसिंग मशीनों की ज़रूरत है। इनके अभाव में आज भी किसान उन पारंपरिक कुशल मजदूरों पर निर्भर हैं, जो पानी में उतरकर मखाने का खर-पतवार हटाते हैं, इसके कटीले पत्तों से बचते हुए, फल को तोड़ते हैं। यह काफी मुश्किल भरा काम है। उत्तर बिहार की निषाद जाति समूह की ही एक जाति इस काम को करने में सिद्धहस्त है। इस काम में खतरे और लाभ की कमी के कारण उस जाति की नई पीढ़ी इस पेशे को नहीं अपना रही है। ऐसे में किसानों को कुशल मजदूर ढूंढने से भी नहीं मिलते। यह एक ऐसी बाधा है जिसके कारण मखाने की खेती का विस्तार नहीं हो पा रहा है। इसलिए इस दिशा में बेहतर खरपतवार नाशक और हार्वेस्टिंग मशीन तैयार करने की सबसे अधिक ज़रूरत है। इस संबंध में बिहार के जिन दो संस्थानों से उम्मीद की जाती है, वे दोनों ही असफल साबित हो रहे हैं।

तीसरी दिक्कत मखाना प्रोसेसिंग की है। आज भी मखाना के बीज से लावा तैयार करने का काम फोड़ी जाति के लोग करते हैं। इस जाति के लोग ज्यादातर दरभंगा जिले के बिरौल बाजार के पास मिलते हैं, जो बिहार के बड़े निषाद नेता मुकेश सहनी का गांव है। चूंकि अब दरभंगा से तीन गुना अधिक खेती पूर्णिया और कटिहार के इलाकों में होती है, ऐसे में ये फोड़ी हर साल सपरिवार मखाने की प्रोसेसिंग के लिए दरभंगा से पूर्णिया-कटिहार की तरफ पलायन कर जाते हैं। वहां किराये पर झुग्गियां लेकर मखाने की प्रोसेसिंग करते हैं। यही फोड़ी किसानों की मखाने की फसल खरीदते हैं। मखाने की फसल काले रंग की बीज होती है, जिसे गुड़िया कहा जाता है। लगभग ढाई किलो गुड़िया से एक किलो मखाना तैयार होता है। ऐसे में किसानों के लाभ और हानि का गणित इन फोड़ियों से ही तय होता है। ये फोड़ी अपने घरों में इन गुड़ियों से मखाने का लावा तैयार करते हैं और उसे स्थानीय व्यापारी खरीद कर मांग के हिसाब से बेचते हैं। महज चार-पांच साल पहले तक मखाने की कीमत तीन से चार सौ रुपये प्रति किलो ही हुआ करती थी। ऐसे में मखाना किसानों और इन फोड़ियों को बहुत लाभ नहीं होता था लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मखाना को जीआई टैग मिलने और सरकार द्वारा इसका प्रचार प्रसार करने से इसकी मांग बढ़ी और कीमतों में काफी तेजी आई है। अब इसकी कीमत 1200 से 1500 रुपये प्रति किलो हो गयी है। उम्मीद है कि इसमें अभी और इज़ाफ़ा होगा।
इन कीमतों में होने वाली बढ़त की असली वजह यह है कि जिस गति से मखाने की मांग बढ़ रही है, उस गति से इसका उत्पादन नहीं बढ़ रहा है। इसकी एक वजह इसकी पारंपरिक प्रोसेसिंग भी है। गौरतलब है कि इसकी प्रोसेसिंग करने वाले परिवारों की भी संख्या बहुत कम है और उन परिवारों की नई पीढ़ी भी इस पेशे को छोड़ रही है। ऐसे में किसानों की निर्भरता इन फोड़ियों पर है। जब तक इसकी प्रोसेसिंग के लिए आधुनिक मशीन नहीं बनेंगे, तब तक यह स्थिति बनी रहेगी। इसके अलावा मशीनों की ज़रूरत इसलिए भी है कि वैश्विक मांग के मुताबिक एक आकार के और बड़े साइज के मखाने तैयार किये जा सकें। अभी फोड़ियों द्वारा तैयार मखाने कहीं छोटे तो कहीं बड़े होते हैं। अभी ज्यादातर व्यापारी आकार के हिसाब से मैनुअली इसे छंटवाते हैं।
हालांकि कई जानकार इस बात को लेकर सशंकित भी हैं कि कहीं मशीनीकरण पारंपरिक फोड़ियों और मजदूरों को बेरोजगार न बना दे। बिहार में खेती से जुड़े मसलों पर सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता, इश्तेयाक अहमद कहते हैं, ‘मशीनें ऐसी तैयार होनी चाहिए जो इन पारंपरिक किसानों की कार्यक्षमता को बढ़ायें न कि उन्हें बेरोजगार करें। इसके लिए उनसे राय लेकर काम किया जाना चाहिए।’ मखाना किसानों की इन मुश्किलों को देखकर ऐसा लगता है कि अभी बिहार के मखाना किसानों को व्यापार और प्रसार बढ़ाने वाले मखाना विकास बोर्ड से कहीं ज्यादा एक ऐसे वैज्ञानिक संस्थान की ज़रूरत थी, जो इनके लिए खरपतवार नाशक और आधुनिक उपकरण तैयार करे और जिससे इसके खेती में विस्तार हो, पैदावार बढ़े और वैश्विक मांग को पूरा किया जा सके। बिहार के नौ लाख हेक्टेयर से अधिक जलजमाव वाले खेतों में मखाना की खेती का सपना अभी भी अधूरा है। इसकी सबसे बड़ी वजह तकनीकी विकास की कमी ही है। मखाना विकास बोर्ड भले ही किसानों की अपेक्षा पर खरा न उतरे लेकिन इसकी स्थापना कहां हो, इसको लेकर सियासत तेज हो गई है। ऐसा माना जा रहा है कि जदयू के कार्यकारी अध्यक्ष संजय कुमार झा के प्रयासों से मखाना विकास बोर्ड की घोषणा हुई है, इसलिए वे इसे अपने क्षेत्र दरभंगा या मधुबनी में स्थापित करवा सकते हैं।
वहीं पूर्णिया और कटिहार के किसानों का कहना है कि इसकी स्थापना उनके इलाके में होनी चाहिए क्योंकि मखाने की पैदावार उनके इलाकों में बढ़ रही है और दरभंगा-मधुबनी के इलाके में घट रही है। इस संबंध में पूर्णिया के सामाजिक कार्यकर्ता, विजय कुमार श्रीवास्तव ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखकर भोला पासवान शास्त्री कृषि महाविद्यालय में इस मखाना बोर्ड की स्थापना करने की मांग की है। उनका कहना है कि दरभंगा में काफी पहले से मखाना अनुसंधान केन्द्र स्थापित है। झा का कहना है, ‘मखाना आमतौर पर फूला हुआ और भुना हुआ खाया जाता है। इसे काले नमक के साथ भून कर, नाश्ते के रूप में सेवन किया जा सकता है। कुछ लोग इसकी खीर पसंद करते हैं।’ मखाना अपने मधुमेह-निवारक गुण के लिए भी जाना जाता है। दरभंगा के अनुसंधान केन्द्र में मखाना पर किए गए शोध में पाया गया कि मखाना से बने पदार्थों में शक्कर की मात्रा कम होती है। शोधकर्ताओं का कहना है, ‘हमने मखाना- मिश्रित आटे से मखाना बर्फी और कलाकंद की मिठाइयां और शाम के नाश्ते के रूप में मखाना-चपाती एवं मखाना-पकोड़ा तैयार किये।’ मखाना बर्फी की शक्कर (19.33%) और प्रोटीन (5.40%) मात्रा की तुलना में, मखाना कलाकंद में शक्कर (16.66%) कम और प्रोटीन (11.53%) ज्यादा पाई गई। अध्ययन से यह निष्कर्ष निकला कि कैलोरी सेवन को लेकर सेहत के प्रति जागरूक लोगों के लिए, कलाकंद मिठाई और मखाना-चपाती (1:1 के अनुपात में) शाम के नाश्ते के रूप में सर्वोत्तम हैं।

मखाने की खेती के लिए जरूरी जलवायु
तापमान : मखाने की खेती के लिए 20-30 डिग्री सेल्सियस का तापमान उपयुक्त होता है। अत्यधिक तापमान या ठंड के कारण फसल को नुकसान हो सकता है।
वर्षा : मखाने की खेती के लिए 1000-1500 मिमी की वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है। वर्षा की कमी के कारण फसल को पानी की कमी का सामना करना पड़ सकता है।
आद्र्रता : मखाने की खेती के लिए 60-80% की आद्र्रता की ज़रूरत होती है। आद्र्रता की कमी के कारण फसल को नुकसान हो सकता है।
मिट्टी : मखाने की खेती के लिए जलोढ़ मिट्टी या दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है। मिट्टी में पर्याप्त जैविक पदार्थ और पोषक तत्व होने चाहिए।
पानी की उपलब्धता : मखाने की खेती के लिए पानी की उपलब्धता बहुत महत्वपूर्ण है। फसल को नियमित रूप से पानी की आवश्यकता होती है, खासकर फूलने और फलने के दौरान। इन जलवायु परिस्थितियों के अलावा, मखाने की खेती के लिए कुछ अन्य महत्वपूर्ण कारक भी हैं जैसे कि फसल का चयन, बीजाई का समय, उर्वरकों का प्रयोग, तथा कीटों और रोगों का प्रबंधन। मखाना की खेती जलजमाव वाली ज़मीन में की जाती है। इसकी खेती के लिए तालाब या खेतों का इस्तेमाल किया जा सकता है। मखाना की खेती के लिए, बीज बोने, रोपाई, और कटाई के समय का ध्यान रखना होता है।
मखाने का फूल ही फल है
दरअसल मखाने का फूल ही फल है। मखाने का फल वास्तव में एक प्रकार का फूल है, जो पौधे के ऊपरी हिस्से में लगता है। यह फूल सफेद या हल्के पीले रंग का होता है और इसमें कई छोटे-छोटे बीज होते हैं। मखाने के फल को मखाना फूल या मखाना फल कहा जाता है। यह फल पौधे के जीवन चक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसमें बीज होते हैं, जो नए पौधों को उगाने में मदद करते हैं। मखाने के फल को सुखाकर और प्रसंस्करण करके मखाने के बीज प्राप्त किए जाते हैं और ये बीज ही खाने में उपयोग किए जाते हैं।
इतनी मुश्किल भी नहीं है खेती
मखाना की खेती देश में सबसे ज्यादा बिहार में होती है। इसके अलावा, असम, मेघालय और ओडिशा में भी इसकी खेती की जाती है। चूंकि मखाने की खेती फायदे का सौदा है, इसलिए अन्य राज्यों के किसान भी इसकी खेती में अपनी किस्मत आजमा सकते हैं। वे कृषि विशेषज्ञों से सलाह लेकर अपने इलाके में मखाने की खेती शुरू कर सकते हैं।
खेती के तरीके
तालाब विधि: यह मखाना की खेती का पारंपरिक तरीका है। इसमें तालाब में सीधे बीज बोए जाते हैं।
सीधी बुवाई: इस विधि में दिसंबर में तालाब में बीज बोए जाते हैं।
रोपाई विधि: इसमें नर्सरी से पौधों को उखाड़कर खेतों में रोपा जाता है।
खेत प्रणाली: इसमें मखाना एक फ़ीट गहरे पानी में उगाया जाता है।