दस्तक-विशेष

एक शुद्ध एनआरसी के सपने को हकीकत में बदल पाएंगे मोदी!

-संजीव कलिता

असम तथा पूर्वोत्तर को अष्टलक्ष्मी का देश मानने वाले नरेंद्र मोदी जबसे देश के प्रधानमंत्री बने हैं, तब से पूर्वोत्तर का यह क्षेत्र विकास की नई राह पर चल पड़ा है। यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा कि मोदी असम तथा पूर्वोत्तर को अब तक सर्वोच्च प्राथमिकता देते रहे हैं। केंद्र और असम में भाजपा की नेतृत्व वाली सरकार के शासन में हुए विकास के कारण असम तथा पूर्वोत्तर का चेहरा बदल रहा है और आने वाले दिनों में काफी बदलाव आने की पूरी संभावना है। विडंबना यह है कि असम आज भी विदेशियों का चारागाह बना हुआ है। स्थानीय मूल निवासियों की अस्मिता को चुनौती देती घुसपैठ की समस्या से लंबे समय से त्रस्त यह प्रदेश खासकर बांग्लादेशी घुसपैठ की समस्या से कब निजात पाएगा, यह सबसे बड़ा सवाल बना हुआ है।

राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) की पहल भी हुई पर नतीजा कुछ नहीं निकला। एनआरसी के नाम पर करोड़ों खर्च हुए पर इसका जो नतीजा सामने आया, उससे राज्य के स्थायी मूल निवासी नाखुश हैं। सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में असम की एनआरसी अद्यतन की प्रक्रिया में तमाम गड़बड़ियां सामने आईं और एनआरसी की सूची रद्दी कागज के बराबर निकली। सवाल यह भी उठ रहे हैं कि क्या 260 करोड़ रुपए के कथित घोटाले को अंजाम देने के लिए ही एनआरसी अद्यतन की प्रकिया को लागू किया गया था! एनआरसी के पूर्व राज्य समन्वयक तथा रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हितेश देवशर्मा ने इस पूरे प्रकरण पर हुई धांधली और फर्जीवाड़े पर सवाल उठाते हुए प्रधानमंत्री मोदी का हस्तक्षेप मांगा है।

इस ताजा पहल से उत्सुक जनता में एक शुद्ध एनआरसी को लेकर फिर से आशा की नई किरण की उम्मीद जगी है। अब देखना यह है कि असम तथा पूर्वोत्तर के प्रति विशेष लगाव रखने वाले प्रधानमंत्री मोदी असम को एक शुद्ध एनआरसी उपहार देने के मामले में कितनी गंभीरता दिखाते हैं। रिटायर्ड आईएएस अधिकारी देवशर्मा ने अपने पत्र के जरिए प्रधानमंत्री से आग्रह किया है कि 260 करोड़ के इस घोटाले की जांच प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा की जाए तथा प्रकाशित परिपुरक एनआरसी पंजी में फर्जीवाड़े के तहत विदेशी नागरिकों के नाम शामिल कराने के पीछे कहीं विदेशी तत्वों का कोई हाथ था या नहीं, इसकी जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) द्वारा की जाए।

असम में घुसपैठ की समस्या बहुत पुरानी है। इस समस्या के समाधान की मांग के आधार पर चले छह साल लंबे असम आंदोलन के बाद तत्कालीन अखिल असम छात्र संघ (आस) के नेतृत्व ने सन 1971 को आधार वर्ष मान लिया। हालांकि, पूरे देश में नागरिकता का आधार वर्ष 1951 था तथा आज भी है। विडंबना यह है कि तत्कालीन आसू नेतृत्व ने राजनीतिक कारणों के चलते केंद्र सरकार के प्रस्ताव को मान लिया और आंदोलन के मार्ग से दिसपुर की सत्ता तक पहुंचे नेता घुसपैठ की समस्या का समाधान करने के मामले में फिसड्डी ही साबित हुए। खैर, सन 2019 को परिपुरक राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) की सूची प्रकाशित तो हुई पर इसको तैयार करने का जो असली मकसद था, वह सफल नहीं हो पाने के कारण राज्य के अधिकांश स्थानीय मूल निवासियों में आज भी नाराजगी व्याप्त है क्योंकि, प्रकाशित एनआरसी में कुल 3.3 करोड़ आवेदकों में से 19.06 लाख को सूची से बाहर रखा गया जिनमें स्थायी मूल निवासी भी शामिल थे।

क्यों पड़ी एनआरसी की आवश्यकता?
सन 1947 में जब भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो कुछ लोग असम से पूर्वी पाकिस्तान चले गए, लेकिन उनकी जमीन असम में थी और लोगों का दोनों ओर से आना-जाना बंटवारे के बाद भी जारी रहा, जिसके चलते वर्ष 1951 में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) तैयार किया गया था। सन 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद भी असम में भारी संख्या में शरणार्थियों का आना जारी रहा जिसके चलते राज्य की आबादी का स्वरूप बदलने लगा। 80 के दशक में अखिल असम छात्र संघ (अआसू) ने अवैध तरीके से असम में रहने वाले लोगों की पहचान करने तथा उन्हें वापस भेजने के लिए एक आंदोलन शुरू किया। छह साल के संघर्ष के बाद वर्ष 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे।

असम समझौता
15 अगस्त, 1985 को आसू और दूसरे संगठनों तथा भारत सरकार के बीच एक समझौता हुआ जिसे असम समझौते के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के अनुसार, 25 मार्च, 1971 के बाद असम में प्रवेश करने वार्ले ंहदू-मुसलमानों की पहचान की जानी थी तथा उन्हें राज्य से बाहर किया जाना था। इस समझौते के तहत 1961 से 1971 के बीच असम आने वाले लोगों को नागरिकता तथा अन्य अधिकार दिए गए, लेकिन उन्हें मतदान का अधिकार नहीं दिया गया। इसके अंतर्गत असम के आर्थिक विकास के लिए विशेष पैकेज भी दिया गया। साथ ही यह फैसला भी किया गया कि असमिया भाषी लोगों के सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषाई पहचान की सुरक्षा के लिए विशेष कानून और प्रशासनिक उपाय किए जाएंगे। असम समझौते के आधार पर मतदाता सूची में संशोधन किया गया।

एनआरसी को अद्यतन का फैसला
वर्ष 2005 में सरकार ने 1951 के राष्ट्रीय नागरिक पंजी को अद्यतन का फैसला किया और तय किया कि असम समझौते के तहत 25 मार्च, 1971 से पहले असम में अवैध तरीके से प्रवेश करने वाले लोगों का नाम भी एनआरसी में जोड़ा जाएगा, लेकिन यह विवाद सुलझने की बजाए और अधिक गहराता गया तथा मामला कोर्ट पहुंच गया। इसके बाद साल 2015 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर असम में नागरिकों के सत्यापन का कार्य शुरू किया गया। इसके लिए पूरे राज्य में कई एनआरसी केंद्र खोले गए। नागरिकों के सत्यापन के लिए यह अनिवार्य किया गया कि केवल उन्हें ही भारतीय नागरिक माना जाएगा जिनके पूर्वजों के नाम 1951 के एनआरसी में या 24 मार्च 1971 तक के किसी वोटर लिस्ट में मौजूद हों।

संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी स्टेटलेसनेस को खत्म करना चाहती है, लेकिन दुनिया में करीब एक करोड़ लोग ऐसे हैं जिनका कोई देश नहीं। ऐसे में भारत के लिए हालिया स्थिति असहज करने वाली होगी। नागरिकता के इस मामले ने असम ही नहीं बल्कि पूरे भारत में बहस छेड़ दी है। असम की राजनीति में यह मुद्दा कई वर्षों से चला आ रहा है। अब आवश्यकता है इस मामले को गंभीरता के साथ सुलझाने की। तीसरी बार निरंतर देश के प्रधानमंत्री बनें नरेंद्र मोदी को एनआरसी के पूर्व संयोजक हितेश देवशर्मा द्वारा भेजा गया पत्र भी इसी उद्देश्य से ही प्रेरित है।

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