नेमप्लेट विवाद : पुराने कानून पर नया घमासान
–अजय कुमार, लखनऊ
लोकतंत्र में जनता सरकार चुनती है, जो संविधान के तहत चलती है। जरूरत के अनुसार चुने हुए सांसद और सरकार पुराने कानून में संशोधन और नये कानून बनाते हैं। फिर इसी कानून के तहत अपनी सरकार चलाते हैं। जनता भी कानून का पालन करे, इसके लिए सरकार हमेशा प्रयत्नशील रहती है, जो नागरिक इसकी अवहेलना या किसी तरह का आपराधिक कृत्य करता है, न्यायपालिका कानून के तहत उसके खिलाफ कार्रवाई करके सजा सुनाने के अलावा उसकी सम्पति को कुर्क करने और और कभी-कभी जुर्माना लगाने जैसा सख्त आदेश देता हंै। कई मामलों में तो उम्रकैद से लेकर फांसी तक का प्रावधान है। यह कानून का एक पक्ष है। दूसरी हकीकत यह है कि इतना सब होने के बाद भी अपने देश में हर स्तर पर कानून की धज्जियां उड़ती रहती हैं। न तो कानून बनाने वाली सरकार इस बात का पालन करती है और न ही तमाम छोटी-बड़ी अदालतें अपने दायरे में रहकर फैसले सुनाती हैं। इसको लेकर बहस भी छिड़ी रहती है किन्तु समस्या तब आती है जब शीर्ष अदालतें ही सरकार के समानांतर खड़ी होती नजर आती हैं। कुछ अदालतों द्वारा पहले अपने हिसाब से कानून की व्याख्या की जाती है और फिर उसी के अनुसार फैसला सुना दिया जाता है। जैसा कि हाल फिलहाल में भी देखा गया, जब उत्तर प्रदेश की योगी सरकार सहित कुछ अन्य राज्यों की बीजेपी सरकार के एक फैसले को अदालत ने बिना किसी गहन सुनवाई के अपने एक अंतरिम आदेश से ठंडे बस्ते में डाल दिया। मामला कावड़ यात्रा के दौरान खाने-पीने का सामान बेचने वाले दुकानदारों के लिए अपनी दुकान के फ्रंट में नेमप्लेट लगाने के योगी सरकार के फैसले से जुड़ा हुआ था।
दरअसल, उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने कावड़ यात्रा शुरू होने से पहले दुकानदारों को अपनी दुकान के बाहर साफ-साफ अपना नाम लिखने का फरमान सुनाया था, उस पर सुप्रीम कोर्ट ने ‘वीटो पॉवर’ (अंतरिम आदेश) से रोक लगा दी। सुप्रीम अदालत की दखलंदाजी के बाद योगी सरकार के लिए खानपान की दुकानों पर नेम प्लेट लगाने वाला अपना आदेश लागू करना मुश्किल हो गया है, लेकिन योगी सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी अपने फैसले पर अडिग नजर आ रही है। वह यह मानने को तैयार नहीं है कि उसने कानून के खिलाफ कोई काम किया था क्योंकि दुकान पर नेमप्लेट लगाने वाला कानून तो काफी पुराना है। किसी भी व्यवसाय के प्रोपराइटर को अपनी दुकान के बाहर अपना नाम और लाइसेंस नंबर अनिवार्य रूप से लिखना ही होता है। यह कानून केन्द्र में यूपीए और उत्तर प्रदेश में मुलायम राज में बना था। इससे भाजपा की मौजूदा या पहले की उसकी किसी सरकार का कोई लेनादेना नहीं था।
बहरहाल, पुराने कानून पर जो नया घमासान छिड़ा हुआ है, उसको पहले समझ लिया जाये। सबसे खास बात यह है कि खाने-पीने की दुकानों या प्रतिष्ठानों के लिए लाइसेंस काफी पहले ही जरूरी कर दिया गया था। लाइसेंस क्रमश: दो अथॉरिटियों के द्वारा जारी किया जाता है। पहला केन्द्रीय और दूसरा राज्य सरकारों द्वारा। ऐसे प्रतिष्ठान जो केन्द्र सरकार के दायरे में आते हैं, उन्हें केन्द्रीय एजेंसी लाइसेंस देती है, जबकि जो राज्य सरकारों के दायरे में आते हैं, उन्हें संबंधित राज्य सरकार लाइसेंस जारी करती है। अगर उत्तर प्रदेश की बात करें, जिसको लेकर इस समय सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की गयी। प्रत्येक जिले में सहायक खाद्य सहायक आयुक्त खाद्य (द्वितीय) या अभिहित अधिकारी होते हैं, जो खाद्य प्रतिष्ठानों को लाइसेंस जारी करते हैं। लाइसेंस की रूपरेखा या नियम की बात कि जाये तो लाइसेंस में दुकान या प्रतिष्ठान का नाम, संचालक, प्रोपरटाइर या ऑनर का नाम, फर्म का पूरा पता लिखा जाता है। खाद्य प्रतिष्ठानों को फूड सेफ्टी एंड स्टैंडड्र्स एक्ट 2006 के तहत लाइसेंस जारी किए जाते हैं। लाइसेंस से जुड़े नियम-कायदों का प्रावधान फूड सेफ्टी रूल्स 2011 में किया गया है, जो डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार में बना था। इस रूल्स में लाइसेंस की शर्तों पर नजर डालें तो खाने-पीने की दुकानों के लिए कम से कम 15 कड़ी शर्तें हैं। सबसे पहली शर्त है खाद्य प्रतिष्ठानों को अपने लाइसेंस की असली कॉपी दुकान में किसी ऐसी जगह लगाना अनिवार्य है, जो उपभोक्ता को नजर आए। लाइसेंसिंग की शर्तों में इस बात का भी प्रावधान है कि अगर दुकानदार अपने प्रतिष्ठान में किसी भी तरह का बदलाव करता है तो भी उसे लाइसेंसिंग अथॉरिटी को उसकी जानकारी देनी होगी। जैसे उसने लाइसेंस जिस नाम पर लिया है, अगर दुकान का नाम बदलकर कुछ और कर देता है तो इसकी जानकारी देनी होगी। जो सामान बेचने के लिए लाइसेंस लिया है, उससे इतर कोई और सामान नहीं बेचेगा। प्रतिदिन प्रोडक्शन, रॉ मैटेरियल और सेल्स का रिकॉर्ड रखना होगा।
उत्तर प्रदेश सरकार के फूड सेफ्टी ऑफिसर एसएन सिंह इस संबंध में कहते हैं कि जब भी किसी व्यक्ति, संस्था अथवा फर्म को खाद्य पदार्थ के वितरण, भंडारण या मैन्युफैक्चरिंग का लाइसेंस दिया जाता है तो उसकी सारी जानकारी लाइसेंस पर दर्शाना जरूरी होता है। जैसे प्रतिष्ठान का नाम, उसके संचालक अथवा ऑनर का नाम, पूरा पता इत्यादि। लाइसेंस के एक नियम में यह भी साफ-साफ कहा गया है कि लाइसेंस होल्डर को अपने लाइसेंस के प्रतिष्ठान या दुकान पटल पर ऐसी जगह प्रदर्शित करना होगा, जहां ग्राहक उसे साफ-साफ देख सकें। ऐसा नहीं है कि लाइसेंस को किसी फाइल में रख दिया। इसके साथ-साथ फूड सेफ्टी एक्ट के तहत खाद्य प्रतिष्ठानों को जो लाइसेंस मिलता है, उसकी शर्तों के उल्लंघन पर कड़े जुर्माने का भी प्रावधान है। कोई दुकानदार अगर लाइसेंस की शर्तों का उल्लंघन करता पाया जाता है, तो लाइसेंस निरस्त किया जाता है। दुकान बंद कराई जा सकती है और भारी जुर्माना भी लगाया जा सकता है। यह सब होता भी रहता है। विधि विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के नाम से दुकान चलाता है तो यह इम्पर्सोनेशन के दायरे में आता है। इसका उद्देश्य धोखाधड़ी है तो आपराधिक मामला बनता है। कानून के जानकार कहते हैं खानपान ऐसी चीज है जो प्रत्येक व्यक्ति की सुचिता या मान्यता से जुड़ी है। मान लीजिये कोई व्यक्ति नॉनवेज नहीं खाता और नॉनवेज परोसने वाली दुकान पर जाना भी नहीं चाहता, पर दुकान का नाम ऐसा है जो उसे ऐसा विश्वास दिलाता है कि वहां नॉनवेज नहीं परोसा जाता होगा, तो यह धोखाधड़ी के दायरे में आएगा। पहले आईपीसी के सेक्शन 416 में चीटिंग बाई पर्सोनेशन से जुड़ा प्रावधान था, जिसमें तीन साल तक की सजा थी। अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 319 में इससे जुड़े प्रावधान हैं और सजा बढ़ाकर 5 साल कर दी गई है।
उधर, सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर राजनीतिक गलियारों से लेकर साधु-संत और हिन्दू-मुस्लिम संगठन को अलग-अलग प्रतिक्रिया आ रही है। उत्तर प्रदेश राज्य सरकार के इस आदेश पर जनता के बीच भी घमासान मचा हुआ है। एक पक्ष इसको धार्मिक भेदभाव से जोड़कर देख रहा है तो दूसरा पक्ष नियमों का हवाला दे रहा है। कुल मिलाकर कोई योगी के फैसले से खुश था और सुप्रीम कोर्ट द्वारा उक्त फैसले पर रोक लगाये जाने से नाराज था तो किसी को योगी के फैसले से नाराजगी थी जो अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले से दूर हो गई है। खैर, सुप्रीम कोर्ट कै फैसले से पहले की बात की जाये तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस फैसले का सबसे अधिक असर देखने को मिला था। प्रशासन द्वारा कड़ाई से इसे लागू करवाया जा रहा था जिसकी तमाम तस्वीरें भी सामने आ रही थीं। दुकानदार पुराने नाम वाले बैनर-होर्डिंग हटाते दिख रहे थे।
उधर, यूपी सरकार ने कांवड़ यात्रा के दौरान दुकानदारों को अपने नाम डिस्प्ले करने का जो निर्देश दिया था, उसको लेकर योगी सरकार सुप्रीम कोर्ट में भी अपना बचाव कर रही है। यूपी सरकार की ओर से दाखिल हलफनामे में कहा गया कि कांवड़ यात्रा के दौरान रूट पर जो भी दुकानदार हैं, उन्हें नाम डिस्प्ले करने के लिए कहा गया था। ऐसा इसलिए क्योंकि लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत न, हो यह सुनिश्चित किया जा सके। साथ ही शांति व्यवस्था के लिए यह निर्देश जारी हुआ था। योगी सरकार ने कोर्ट में कहा कि इसके पीछे आइडिया यह था कि पारदर्शिता हो। सरकार ने कहा कि कांवड़ियों को इस बात की जानकारी रहे कि यात्रा के दौरान कहां वह किस तरह का खाना खा रहे हैं और अपने धार्मिक आस्था का वह खयाल रख सकें। उनके साथ पवित्र जल है, ऐसे में लाखों लोग जो यात्रा कर रहे हैं, उनके आस्था के लिए जरूरी था ताकि कोई गलती न हो। योगी सरकार ने कोर्ट में यह भी कहा कि उसने केन्द्रीय कानून के तहत नाम लिखने का आदेश दिया है। इस पर कोर्ट ने फिर इसे सभी जगह लागू करें, लेकिन कोर्ट ने अपने आदेश पर रोक नहीं लगाई।