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‘नारी शक्ति वंदन’ गढ़ेगी महिलाओं की नई इबारत

भारत एक पितृसत्तात्मक समाज है और तमाम प्रगति के बाद भी महिलाओं को वो स्थान नहीं मिल सका है, जो उन्हें मिलना चाहिए। यही कारण है कि राजनीति में महिलाएं आज भी हाशिये पर हैं। न केवल उनकी संख्या कम है बल्कि राजनीतिक निर्णयों में उनकी भागीदारी अत्यल्प है। भारतीय राजनीति में आज भी महिलाओं की स्थिति संरक्षणवाद की शिकार है और जब भी वे स्वतंत्र निर्णय लेने की कोशिश करती हैं तब उन्हें चौतरफा हमले का सामना करना पड़ता है। राजनीति में आधी आबादी की भागीदारी का सवाल समय-समय पर उठता रहता है।

आकांक्षा यादव

यह एक सुखद संयोग है कि नए संसद भवन का श्रीगणेश आधी आबादी के चिर-प्रतीक्षित लोकसभा और विधान सभाओं में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण वाले ‘नारी शक्ति वंदन’ अधिनियम से हुआ। 128वां संशोधन विधेयक के रूप में पेश इस विधेयक के कानून में बदलने और प्रभावी होने के बाद वर्तमान स्थिति के हिसाब से लोकसभा में महिलाओं के लिए 181 और राज्य विधान सभाओं में 1,374 सीटें आरक्षित हो जाएंगी। फिलहाल यह कानून जनगणना और नए परिसीमन के बाद ही प्रभावी किया जायेगा। नया परिसीमन 2026 में प्रस्तावित है। आरम्भ में यह आरक्षण 15 वर्षों के लिए होगा और रोटेशन के आधार पर क्रम में बदलाव होगा। विधायी सभाओं में महिला आरक्षण का मुद्दा काफी पुराना है। महिला आरक्षण विधेयक पहली बार 12 सितंबर, 1996 में तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा के कार्यकाल में लाया गया था, किन्तु अपने अंजाम तक नहीं पहुंच सका। उसके बाद भी विभिन्न सरकारों ने प्रयास किया, परन्तु सफलता हासिल नहीं हुई। वर्तमान की बात करें तो भी लोकसभा में 543, जबकि जम्मू-कश्मीर एवं दिल्ली सहित राज्यों की विधान सभाओं में कुल 4,123 सीटें हैं। वर्तमान लोकसभा में मात्र 78 महिला सदस्य हैं जो 15 प्रतिशत से भी कम हैं। ऐसे में ‘नारी शक्ति वंदन’ अधिनियम का संसद के दोनों सदनों से दो तिहाई बहुमत से भी ज्यादा वोटों से पारित होना देश की 44 करोड़ महिला वोटर्स के हिसाब से एक क्रान्तिकारी कदम है।

भारत एक पितृसत्तात्मक समाज है और तमाम प्रगति के बाद भी महिलाओं को वह स्थान नहीं मिल सका है, जो उन्हें मिलना चाहिए। यही कारण है कि राजनीति में महिलाएं आज भी हाशिये पर हैं। न केवल उनकी संख्या कम है बल्कि राजनीतिक निर्णयों में उनकी भागीदारी अत्यल्प है। भारतीय राजनीति में आज भी महिलाओं की स्थिति संरक्षणवाद की शिकार है और जब भी वे स्वतंत्र निर्णय लेने की कोशिश करती हैं तब उन्हें चौतरफा हमले का सामना करना पड़ता है। राजनीति में आधी आबादी की भागीदारी का सवाल समय-समय पर उठता रहता है। कुछ लोग इसे चुनावी जुमले के रूप में देखते हैं, तो कुछ लोग इसकी गंभीरता को समझते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी समय-समय पर महिलाओं को राजनीति में आगे बढ़ाने की बात करते हैं और इस विधेयक का पारित होना उनकी उसी दूरदृष्टि का परिचायक है। भारतीय राजनीति में तमाम महिलाएं शीर्ष पर स्थान बनाने में कामयाब हुई हैं। देश की राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, विपक्ष की नेता, कैबिनेट मंत्री और विभिन्न राज्यों में मुख्यमंत्री व राज्यपाल तक महिलाएं पदासीन रही हैं। भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, प्रथम महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, प्रथम महिला केन्द्रीय मंत्री (स्वास्थ्य मंत्री) राजकुमारी अमृत कौर, प्रथम महिला विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, प्रथम महिला रेल मंत्री ममता बनर्जी, प्रथम महिला रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण, प्रथम महिला सांसद राधाबाई सुबरायण, राज्यसभा की प्रथम महिला उपसभापति नजमा हेपतुल्ला, लोकसभा की प्रथम महिला अध्यक्ष मीरा कुमार, लोकसभा में प्रथम महिला प्रतिपक्ष नेता सुषमा स्वराज, प्रथम महिला राज्यपाल सरोजिनी नायडू (उत्तर प्रदेश, 1947), प्रथम महिला मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी (उत्तर प्रदेश, 1963), प्रथम मुस्लिम महिला मुख्यमंत्री सैयद अनवरा तैमूर (असोम, 1980), प्रथम दलित महिला मुख्यमंत्री मायावती (उत्तर प्रदेश, 1995), प्रथम महिला विधायक मुत्तुलक्ष्मी रेड्डी, किसी राज्य की विधान सभा की प्रथम महिला स्पीकर शन्नो देवी जैसी तमाम महिलाओं ने समय-समय पर भारतीय राजनीति को नई ऊंचाइयां दी हैं। अभी तक भारत में 20 से ज्यादा महिलाएं राज्यपाल बन चुकी हैं, जिसमें राजस्थान की पहली महिला राज्यपाल प्रतिभा पाटिल देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनीं। विभिन्न राज्यों की मुख्यमंत्री के रूप में अब तक 15 से ज्यादा महिलाओं ने गद्दी संभाली है। दलगत राजनीति की बात करें तो तमाम महिला नेत्रियों ने समय-समय पर अपने दलों का नेतृत्व किया है।

नारी सशक्तिकरण सिर्फ एक अमूर्त अवधारणा नहीं है बल्कि इसका किसी भी देश की राजनीति से गहरा संबंध होता है। यही कारण है कि इस पर जब भी चर्चा की जाती है तो अक्सर राजनीति में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व पर अफसोस जताया जाता है। वस्तुत: राजनीति में महिलाओं को बराबर की भागीदारी देने की बात विभिन्न राजनैतिक दलों, न्यूज चैनल्स से लेकर सार्वजनिक मंचों पर आएदिन होती है लेकिन उसके क्रियान्वयन के प्रति सभी राजनैतिक दल उदासीन ही रहते हैं। दुनियाभर में महिलाओं को भेदभाव, हिंसा, पार्टियों के ढांचे, गरीबी और धन की कमी के चलते संसदों से दूर रखा जाता है। लोकसभा और फैसले लेने वाली जगहों, जैसे कि मंत्रिमंडल में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व सीधे-सीधे राजनीतिक ढांचे से उनको सुनियोजित ढंग से बाहर रखने और मूलभूत लैंगिक भेदभाव को रेखांकित करता है। हालांकि महिलाएं राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर ठीक-ठाक संख्या में राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व करती हैं लेकिन इन राजनीतिक दलों में भी उच्च पदों पर महिलाओं की उपस्थिति कम ही है। भाषणों में नारी सशक्तिकरण तथा बराबरी की बात करने वाले दलों की असलियत चुनावों में टिकट वितरण के दौरान ही सामने आ जाती है। अधिकतर महिलाएं जिन्हें टिकट मिलता है, वे भी ज्यादातर राजनैतिक परिवारों से ही संबंध रखती हैं। कई बार तो राजनैतिक दल प्रमुख महिला प्रत्याशी के खिलाफ महिला को ही मैदान में उतारते हैं। ऐसे में एक ही महिला चुनाव जीत पाती है और इस तरह बहुत सी प्रतिभावान महिलाएं संसद या विधानसभाओं में पहुंचने से वंचित रह जाती हैं। यही कारण है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में विधायिका स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व अन्य देशों के मुकाबले काफी कम है। ऐसे में ‘नारी शक्ति वंदन’ अधिनियम का संसद से पारित होकर शीघ्र क्रियान्वित होना बेहद जरुरी है।

दुनियाभर में राजनीतिक जीवन में महिलाओं द्वारा हासिल की गयी बढ़त और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ संघर्ष जारी रखने की प्रतिबद्धता के बीच संसद से लेकर विधान सभाओं तक महिलाओं की पहुंच कई कारणों से प्रभावित होती है जिसमें विधायिका तक महिलाओं को पहुंचाने में आरक्षण एक मुख्य माध्यम है। इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन के अनुसार आरक्षण महत्वाकांक्षी, व्यापक होना चाहिए और उसे प्रभावकारी बनाने के लिए उसका क्रियान्वयन होना चाहिए। भारत में महिलाओं के मुद्दों के प्रति राजनीतिक दलों की गंभीरता महिला आरक्षण बिल को पास करने में असफलता से ही साफ हो जाती है। पिछले कुछ चुनावों के प्रमुख राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों पर नजर डालने से साफ हो जाता है कि उनमें लैंगिक मुद्दे प्रमुखता रखते हैं। महिला सशक्तिकरण यानी उन्हें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आधार पर बेहतर स्थान देने के वादे कमोवेश हर राजनीतिक दल के पिटारे में है। मगर सच्चाई इन लोक-लुभावन वादों से कोसों दूर है। संसद और विधानसभा में राजनीतिक दल महिला आरक्षण बिल पारित करने की हुंकार जरूर भरते हैं, लेकिन जब राजनीतिक नुमाइंदगी की बात आती है तो 10 फीसदी टिकट भी महिलाओं को नहीं दिये जाते। महिला उम्मीदवारों को जीतने लायक नहीं माना जाता। जिन महिलाओं को टिकट दिया भी जाता है उनमें से ज्यादातर किन्हीं राजनीतिक दल के नेताओं की सगी-संबंधी होती हैं। ऐसे में आर्थिक और सामाजिक बंधनों से मुक्त होने के लिए संघर्ष कर रही आम महिलाओं को वाजिब प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता। महिलाओं का राजनीतिक स्तर सुधारने के उद्देश्य से उठाये गये पहले कदम के रूप में सरकार द्वारा 1992 में 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा क्रमश: पंचायतों और नगर पालिका स्तर पर महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण का प्रावधान किया गया। इससे प्राथमिक स्तर पर राजनीति में महिलाओं की भागीदारी तो सुनिश्चित हो गई किन्तु इससे आगे संसद और विधान सभाओं में कोई फर्क नहीं पड़ा। यदि महिला आरक्षण कानून लागू हो जाये, तो विधायिका में महिला प्रतिनिधियों की संख्या स्वत: बढ़ जायेगी। आज देश में कुल मतदाताओं की संख्या में आधी संख्या महिला वोटरों की है, पर उनकी संख्या के हिसाब से उन्हें समान आधार पर नेतृत्व कभी नहीं मिला। सवाल यह उठता है कि एक तिहाई आरक्षण का आधार क्या है और एक तिहाई आरक्षण ही क्यों? अगर जनसंख्या को आधार बनाना है तो यह आरक्षण स्त्री-पुरुष अनुपात के हिसाब से होना चाहिए।

भारत में महिला आंदोलन इस वक्त संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के सवालों पर सकारात्मक कार्रवाई को लेकर बंटा हुआ है। यह मूलत: दो बातों पर केन्द्रित है, पहला कुल मिलाकर महिला आरक्षण का कोटा बढ़ाने को लेकर और उसमें पिछड़ी जाति की महिलाओं को लेकर और दूसरा अभिजात्यवाद के मुद्दे पर। निस्संदेह संसदीय सीटों पर मिले आरक्षण में जिस प्रकार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को शीर्ष स्तर पर पहचान मिली है, उसी प्रकार विधायिका में महिलाओं को आरक्षण मिलने से उनकी राजनीतिक और सामाजिक हैसियत में भी सकारात्मक बदलाव आएगा। ‘नारी शक्ति वंदन’ के माध्यम से विधायिका में महिलाओं का ज्यादा प्रतिनिधित्व न सिर्फ पितृसत्तात्मक सोच को बदलेगा बल्कि इससे महिला समर्थक कानूनों को भी बढ़ावा मिलेगा। इससे कन्या शिशु के बारे में भी धारणा बदलेगी। जब संसद और विधान सभाओं में महिलाएं सशक्त बनती हैं और वह भी बड़ी संख्या में, तो वह ज्यादा से ज्यादा लोगों की प्रतिनिधि हो जाती हैं। ऐसे में महिलाओं को बोझ समझने वाली पूरी सोच को ही बदला जा सकता है। महिलाओं के लिए आरक्षण तो बस एक शुरुआत है, इसका असली लक्ष्य निर्णय प्रक्रिया में बराबरी होना चाहिए। तभी स्त्रियों के अधिकारों उनकी समस्याओं, स्त्री विमर्श तथा उनकी मुक्ति संबंधी विषयों पर विधायिका में खुलकर बहस हो सकती है।

वक्त के साथ महिलाओं ने सफलता के तमाम नए आयाम रचे हैं। शिक्षा, नौकरी, पैतृक सम्पत्ति में बराबरी का हक पाने के साथ ही आई.टी. एवं विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी अपनी योग्यता सिद्ध की है। ऐसे में इसमें कोई शक नहीं कि महिलाएं राजनीति में बेहतर कर सकती हैं। व्यवस्था परिवर्तन के लिए राजनीति एक सशक्त माध्यम माना गया है। इसमें उन्हें अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। राजनैतिक दलों की पहल पर ही महिलाओं की राजनीति में भागीदारी आसानी से बढ़ सकती है। दलों के संगठनात्मक ढांचा खड़ा करने से लेकर टिकट वितरण तक महिलाओं का स्थान तय करना होगा। अब महिलाओं को अपनी मंजिल खुद तय करनी होगी और इस मंजिल को पाने के लिए खुद ही रास्ते तलाशने होंगे। सत्ता में महिलाओं की भागीदारी का अनुपात किसी भी देश की सार्थक प्रगति का मापदंड है। अब समय आ गया है कि हमारे देश की राजनीति और राजनेता महिलाओं के प्रति अपनी सोच को उदार बनायें और उन्हें समुचित स्थान दें।
(लेखिका कॉलेज में प्रवक्ता तथा ब्लॉगिंग के क्षेत्र में भी प्रवृत्त हैं।)

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