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राष्ट्रीय ‘इण्डिया गठबंधन’ सीटों के बंटवारे का ‘जाल’

जितेन्द्र शुक्ला

मशहूर शायर मुज्जमिल हुसैन का शेर है, ‘गैर मुमकिन है कि हालात की गुत्थी सुलझे, अहले दानिश ने बहुत सोच के उलझाया है।’ कमोवेश यही स्थिति ‘इण्डिया’ गठबंधन की है। मोदी विरोध में विपक्ष के 28 दल एक मंच पर तो आ गये लेकिन जब बात सीटों के बंटवारे की आयी तो सभी अपने-अपने हिसाब से तन कर खड़े हो गए दिखते हैं। वास्तव में विपक्षी दलों के एकजुट होने के बाद अब उनके सामने सबसे बड़ी समस्या सीटों के बंटवारे को लेकर आ रही है। गठबंधन में शामिल हर दल बढ़ा-चढ़ा कर सीटों की मांग रहे हैं। आप और टीएमसी जैसी पार्टियां सीटों के बंटवारे में अपने शासन वाले राज्यों में एकाधिकार चाह रही हैं। कांग्रेस शासित कर्नाटक, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विपक्षी गठबंधन के घटक दल कांग्रेस को अपनी ही जैसी छूट देने के पक्षधर हैं। कांग्रेस ‘इंडिया’ गठबंधन का नेतृत्व करने का उत्सुक है। ऐसे में सीट बंटवारे पर आसानी से बात बनने की संभावना नहीं है। इसलिए कांग्रेस चाहेगी कि इस साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद ही सीटों के बंटवारे पर बात आगे बढ़े। कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के बाद ही देश में विपक्षी एकता की बात आगे बढ़ी थी। कांग्रेस के प्रति विपक्षी दलों का नजरिया भी बदला था। इसलिए कांग्रेस भी चाहेगी कि सीटों के बंटवारे पर मंथन भले जारी रहे, लेकिन अंतिम निर्णय इस साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद ही लिया जाए। मिजोरम, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में लोकसभा चुनाव के पहले इसी साल विधानसभा के चुनाव होने हैं।

वास्तव में इंडिया गठबंधन में कुल 28 दल अब तक शामिल हुए हैं। इनमें कांग्रेस, तृणमूल, जेडीयू, आरजेडी, डीएमके, आरजेडी, सपा और आप प्रमुख हैं। गठबंधन के दलों में सीटों का बंटवारा उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु समेत 10 राज्यों में होना है। सीट बंटवारे को लेकर तीन फॉर्मूला अधिक चर्चा में है। हालांकि, मीटिंग में आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने अलग ‘मैकेनिज्म’ बनाने की मांग की। हाल ही हैदराबाद में हुई कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक में सीटों के बंटवारे के फॉर्मूले पर चर्चा हुई थी। तब यही बात तय हुई कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणाम आने तक पार्टी को इंतजार करना चाहिए। सीट बंटवारे का जो फॉर्मूला तय हुआ है कि उसके अनुसार सीटिंग सीटों पर संबंधित पार्टियों की दावेदारी मजबूत मानी जाएगी। यानी जो जहां से अभी जीता है, वहां टिकट की पहली दावेदारी उसी पार्टी की है। 2014 में जीतकर 2019 में हारने वाले उम्मीदवारों को भी उक्त सीटों पर तरजीह दी जाएगी। सीट सिलेक्शन का पहला फॉर्मूला जिताऊ प्रत्याशी ही है। वहीं तमिलनाडु, झारखंड में सीट शेयरिंग का पुराना फॉर्मूला ही चलेगा। यहां कांग्रेस 2019 से ही सहयोगी दलों के साथ गठबंधन में है। हालांकि, झारखंड में जेएमएम की इच्छा लोकसभा में अधिक सीटों पर लड़ने की है। वहीं महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, बिहार, पश्चिम बंगाल और केरल में सीट बंटवारे का नया फॉर्मूला बनेगा। कहीं विधानसभा चुनाव के डेटा तो कहीं लोकसभा चुनाव के डेटा के आधार पर सीट का वितरण किया जाएगा।

हालांकि, सीटों के बंटवारे पर कांग्रेस अपना वर्चस्व चाहती है। पहले भी कांग्रेस की मंशा का खुलासा हुआ था कि वह लोकसभा की 350 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है। हालांकि विपक्षी गठबंधन में शामिल दल उसे इतनी सीटें देने के मूड में नहीं हैं, खासकर आम आदमी पार्टी (आप) और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी)। ममता बनर्जी ने तो अपने मन की बात कई मौकों पर कह भी दी है कि जिन राज्यों में जो दल मजबूत हैं या सत्ता में हैं, वहां उनके ही नेतृत्व में लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहिए। यानी कांग्रेस या किस सहयोगी दल को कितनी सीटें मिलें, वह उस राज्य का बड़ा दल ही तय करेगा। उधर, कांग्रेस भले ही सभी शेष 27 दलों को साध ले तो भी उसके खाते में डेढ़-दो सौ से अधिक सीटें नहीं आएंगी। राज्यवार यदि बात की जाये तो बिहार में 40 सीटें छह दलों के बीच बंटनी है। सीपीआई (एमएल) ने पांच सीटों की मांग की है, जिनमें पहले से ही तीन सीटें जेडीयू के कब्जे में हैं। राजद विधानसभा में बड़ी पार्टी है, लेकिन लोकसभा में उसके सदस्यों की संख्या शून्य है। नीतीश कुमार नहीं चाहेंगे कि वे जेडीयू की जीती हुई सीटें छोड़ें तो राजद भी उनसे कम सीटों पर मानने को तैयार नहीं होगा। कांग्रेस भी बिहार में 10 सीटें चाहती है। इसलिए पहले तो बिहार में ही सीटों का बंटवारा आसान नहीं दिख रहा जहां से विपक्षी एकता का स्वर बुलन्द हुआ था। जेडीयू ने 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी से बराबर सीटें ले ली थीं। साल 2014 में बीजेपी ने 30 पर चुनाव लड़ कर 22 सीटें जीती थीं।

कांग्रेस ने 12 पर चुनाव लड़ा, मगर दो सीटें ही जीत पाई। आरजेडी ने 27 पर चुनाव लड़ा और उसके चार उम्मीदवार जीते थे। 38 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने के बावजूद जेडीयू को दो सीटों से ही संतोष करना पड़ा था। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में जेडीयू ने बीजेपी के बराबर सीटें हथिया लीं। यानी दोनों ने 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ा। इस बंटवारे में बीजेपी को अपनी जीती पांच सीटें त्यागनी पड़ी थीं। बीजेपी के बराबर सीटें लेने के लिए जेडीयू ने तब तर्क दिया था कि भले ही उसके सिटिंग सांसद दो हैं, पर विधानसभा में उसके सदस्यों की संख्या बीजेपी से अधिक है। जेडीयू ने अपने को कम से कम बिहार में ‘बड़ा भाई’ बताया। अब अगर आरजेडी ने भी नीतीश के साथ विधानसभा में सदस्यों की संख्या को आधार बनाया तो जेडीयू को सात-आठ से अधिक सीटें नहीं मिल पाएंगी। सीपीआई (एमएल) ने 2020 के विधानसभा चुनाव में 17 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और उनमें 12 जीत भी गए। मसलन माले को 70 प्रतिशत कामयाबी हासिल हुई। शायद यही वजह है कि सीपीआई (एमएल) ने इस बार लोकसभा चुनाव में पहले ही पांच सीटों की मांग कर दी है। कांग्रेस ने पिछले विधानसभा चुनाव में भले 70 सीटों पर लड़ कर 19 पर जीत हासिल की, लेकिन अब उसकी हालत पहले से अच्छी हुई है। लोकसभा का चुनाव भी अब कांग्रेस के नेतृत्व में होना पक्का माना जा रहा है। ऐसे में कांग्रेस 10 सीटों से कम पर नहीं मानेगी। ममता बनर्जी का प्रस्ताव अगर विपक्षी गठबंधन में मान लिया जाता है तो सीट बंटवारे की जिम्मेवारी आरजेडी और जेडीयू को ही निभानी पड़ेगी। हालांकि राजद नेता तेजस्वी यादव ने कहा है कि इंडिया गठबंधन में सीट शेयरिंग को लेकर कहीं कोई परेशानी नहीं है। सारी चीजें ‘स्मूथली’ चल रही हैं। उन्होंने बिना किसी का नाम लिए एलजेपी (रामविलास) के मुखिया चिराग पासवान पर तंज कसा। तेजस्वी ने कहा कि दिक्कतें तो उधर हैं, जहां एक परिवार दो पार्टियों में बंट गया है।

वहीं दूसरी ओर उत्तर प्रदेश की बात करें तो भाजपा के विरोध में अभी तीन प्रमुख विपक्षी दल हैं- कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी। तीनों ने बारी-बारी से एक दूसरे से हाथ मिला कर देख लिया है। उन्हें निराशा ही हाथ लगी है। अभी समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ही प्रत्यक्ष तौर पर विपक्षी एकता में साथ हैं, लेकिन कांग्रेस मायावती के साथ गठबंधन के पक्ष में है। चर्चा है कि कांग्रेस नेत्री प्रियंका गांधी मायावती के संपर्क में हैं। मायावती भी अगर गठबंधन के साथ आती हैं तो समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव की प्रतिक्रिया क्या होगी, यह अभी देखना बाकी है। वहीं उत्तर प्रदेश में गठबंधन में शामिल कांग्रेस, सपा, आरएलडी और अपना दल कमेरावादी का मुख्य रूप से जनाधार है। ताजा हालात में सीट शेयरिंग की कमान समाजवादी पार्टी के हाथों में रहेगी। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की मांग है कि सीट शेयरिंग में 2009 के फॉर्मूले को अपनाया जाए। 2009 में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश की 21 सीटों पर जीत हासिल की थी। 2014 में दो और 2019 में एक ही सीट ही कांग्रेस जीत पाई थी। 2019 का आंकड़ा को आधार बनाया जाएगा, तो 2019 में कांग्रेस ने रायबरेली सीट पर जीत हासिल की थी, जबकि अमेठी, कानपुर और फतेहपुर सीकरी में दूसरे नंबर पर रही थी। कहा जा रहा है कि सपा गठबंधन में अगर बीएसपी नहीं आती है, तो कांग्रेस को 12-15 सीटें मिल सकती है। उधर, आरएलडी का दावा आठ सीटों पर है, लेकिन 5-6 सीट जयंत चौधरी को भी अखिलेश दे सकते हैं। इसी तरह अपना दल कमेरावादी लोकसभा की एक सीट पर अपना उम्मीदवार उतार सकती है।

वहीं दूसरी ओर लोकसभा में 48 सीटों के साथ महाराष्ट्र दूसरे नंबर पर है। यहां इंडिया गठबंधन में शिवसेना (यूबीटी), एनसीपी (शरद), कांग्रेस और प्रकाश अंबेडकर की पार्टी है। राजू शेट्टी की शेतकारी संगठन को भी गठबंधन में लाने की कवायद चल रही है। उद्धव की शिवसेना की मांग 18 सीटों पर है, जबकि कांग्रेस छोटी पार्टियों को सीट देकर बाकी बचे सीटों में बराबर बंटवारा करना चाहती है। अगर कांग्रेस की चलती है, तो शिवसेना (यूबीटी), एनसीपी (शरद) और कांग्रेस 15-15-15 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है। 2019 में यहां शिवसेना (संयुक्त) को 18 और एनसीपी को चार और कांग्रेस को एक सीटों पर जीत मिली थी। कांग्रेस 21 सीटों पर तो एनसीपी 16 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी। शिवसेना को भी पांच सीटों पर हार का सामना करना पड़ा था। उधर, इंडिया गठबंधन में शामिल तृणमूल, कांग्रेस और सीपीएम बंगाल की राजनीति में सक्रिय है। बंगाल में तृणमूल सीपीएम को एक भी सीट नहीं देना चाहती है। हालांकि, नीतीश और तेजस्वी लगातार ममता को मनाने की कवायद में जुटे हुए हैं। सीपीएम अलीपुरद्वार, बांकुड़ा, बोलपुर, आसनसोल, मेदिनीपुर और बर्दवान सीटों पर दावा कर रही है। वहीं बंगाल में कांग्रेस 2009 के डेटा के हिसाब से सीट शेयरिंग की मांग कर रही है। कांग्रेस 2009 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ी थी। इस चुनाव में कांग्रेस को छह सीटों पर जीत मिली थी। कांग्रेस उस चुनाव में 14 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। हालांकि, टीएमसी का कहना है कि 14 सीटों पर लड़ने के लिए कांग्रेस के पास जिताऊ प्रत्याशी ही नहीं है। तृणमूल इस बार बंगाल की मुर्शिदाबाद, ब्रह्मपुर, मालदा उत्तर, मालदा दक्षिण, रायगंज और जंगीपुर सीट देने को तैयार है।

जबकि तमिलनाडु और झारखंड राज्यों में गठबंधन का स्वरूप लगभग पहले से तय है। 2019 में तमिलनाडु में ही कांग्रेस का गठबंधन सबसे सफल रहा था। 2019 में डीएमके 20, कांग्रेस आठ, सीपीआई-सीपीएम-वीसीके 2-2-2 और अन्य दल चार सीटों पर चुनाव लड़ी थी। डीएमके गठबंधन को 38 सीटों पर जीत मिली। इस बार भी सीट बंटवारे का यही फॉर्मूला यहां पर रहने वाला है। इसी तरह झारखंड में कांग्रेस सात, जेएमएम चार, जेवीएमपी दो और आरजेडी एक सीटों पर चुनाव लड़ी थी। हालांकि, गठबंधन को सिर्फ दो सीटों पर जीत मिली। जेएमएम इस बार खुद सात सीटों पर लड़ना चाहती है। कांग्रेस को पांच सीट और जेडीयू-आरजेडी को 1-1 सीट देना चाह रही है। उधर, केरल में सीट शेयरिंग का विवाद यहां भी फंसा हुआ है। पिछले चुनाव में आमने-सामने रही लेफ्ट और कांग्रेस इस बार गठबंधन में है। पिछली बार 20 में से 18 सीटें कांग्रेस गठबंधन को मिली थी, जबकि दो सीटों पर लेफ्ट गठबंधन ने जीत दर्ज की थी। इस बार लेफ्ट 50-50 फॉर्मूले के तहत सीट शेयरिंग की मांग कर रही है। ऐसा होता है, तो कांग्रेस को अपनी आठ जीती हुई सीट खोनी पड़ सकती है। हालांकि, अपुष्ट खबर है कि कांग्रेस सीपीएम के लिए वो चार सीटें छोड़ सकती है, जिस पर पिछले चुनाव में 50 हजार के कम मार्जिन से जीत मिली थी।

वहीं यदि पंजाब प्रांत की बात की जाये तो यहां 2019 में पंजाब की 13 में से सात सीटें अभी कांग्रेस के पास है। आम आदमी पार्टी को एक सीट पर हाल ही में जीत मिली है। पंजाब से शिरोमणि अकाली दल को भी साथ लाने की कवायद की जा रही है। शिअद के पास भी दो सीटें हैं। पंजाब में शिअद अगर साथ नहीं आती है, तो पंजाब में सात पर कांग्रेस और छह पर आप चुनाव लड़ सकती है। वहीं चंडीगढ़ की सीट भी कांग्रेस के खाते में जा सकती है। वहीं राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सभी सात सीटों पर अभी बीजेपी को जीत मिली है। यहां की चार सीटों पर 2019 में आप और तीन सीटों पर कांग्रेस दूसरे नंबर पर थी। कहा जा रहा है कि इसी फॉर्मूले से यहां सीटों का बंटवारा हो सकता है। आप दिल्ली और पंजाब के साथ-साथ गुजरात की भी पांच सीटें कांग्रेस से मांग रही है। कुल मिलाकर बात सिर्फ इतनी है कि एक मंच पर आना आसान है लेकिन साथ चलना खासा मुश्किल दिख रहा है। उधर, भाजपा नीत एनडीए गठबंधन ने ‘इण्डिया’ गठबंधन के हर दांव को कुंद करने के लिए कमर कस ली है।

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