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आज एक हिटलर की जरूरत है?

डॉ.धीरज फुलमती सिंह

मुबंई: आजकल हिटलर का नाम सुनकर पढ़े लिखे बौद्धिक लोग उसे हत्यारा/ आतंकी पता नहीं क्या-क्या कह देते हैं। दरअसल ये सीधे पढ़े-लिखे लोग हैं, जिन्हें यह तक भान नहीं कि इतिहास जो वो पढ़ रहे हैं वो विजेताओं ने अपने हिसाब से लिखवाया था, यकीनन हिटलर युद्ध हार चुका था और इतिहास में उसका कोई स्थान नहीं होता।

बात करें हिटलर की तो ऑस्ट्रिया में जन्मा यह युवक प्रारंभ में एक शिक्षक था, फर्स्ट वर्ल्ड वार के वक्त हिटलर बतौर एक सिपाही खुद जर्मनी की तरफ से लड़ा। हार और वर्साय की अपमानजनक संधि को ऐसा राष्ट्रवादी कभी भूल नहीं सकता था। उस वक्त एक जबरदस्त ऐतिहासिक मंदी आयी थी। कहा जाता है कि जर्मनी के लोग झोले में पैसा लेकर जाते थे और जेब में सामान लेकर आते थे। महंगाई इस कदर बढ़ चुकी थी कि महिलायें सिर्फ एक वक्त के रोटी के लिये वेश्यावृत्ति को मजबूर थी। ऐसे वक्त में ही एक शख्स आता है जर्मनी में एडोल्फ हिटलर।

सबसे पहले उसने जर्मनी में कम्युनिस्टों और यूनियनिस्टों को साफ किया, जो कि उस वक्त जर्मनी के लिये सबसे जरूरी था। उस वक्त बातों, आदर्शों, आलोचनाओं की जरूरत नहीं थी, बल्कि जरूरत थी लौह एवं रक्त की नीति और इस मामले में हिटलर, बिस्मार्क का सच्चा फॉलोवर निकला।

उसकी आलोचना का एक आधार यहूदियों का कठोरता से दमन था। आर्थिक मंदी के वक्त यही यहूदी साहूकार थे, जो जर्मनी को भूखों मरते देखकर भी जमाखोरी और कालाबाजारी में संलग्न थे, ऐसे में हिटलर का गुस्सा जायज था या नाजायज? इसके लिये खुद को हिटलर की जगह पर रखना पड़ेगा। यकीनन आप अपने बच्चों को भूखा मरते और बेटियों को जिस्म बेचते देखेंगे और किसी को जमाखोरी करते तो आप आदर्श और अहिंसा की बात नहीं कर सकते, बाकी शुद्ध बकैती करने के लिए तो पूरा समाज पड़ा है।

एक राष्ट्र के तौर पर देखें तो वर्साय की संधि ही हिटलर के पैदा होने और जर्मनी के जर्मनी बनकर सबको हिला डालने के लिये काफी थी। जीत में चूर अमेरिका, इंग्लैंड जैसे राष्ट्रों ने खुद ही द्वितिय विश्व युद्ध का बीज बोया, मानवता की दुहाई देकर लड़े भी और आरोप मढा हिटलर के मथ्थे। यह धूर्तता नहीं तो और क्या है?

यह समझना बेहद आसान है कि कितना शानदार देशभक्त और समर्पित नागरिक होगा हिटलर, जिसने एक टूट चुके राष्ट्र को सिर्फ पंद्रह बरसों में वहां लाकर खड़ा कर दिया, जहां वह आधी दुनिया के बराबर खुद ही अकेला काफी था।

खैर, हिटलर के हार के बहुत से रीजन रहे होंगे, कई किताबें लिखी गयी होंगी, कई फिल्में बनी होंगी लेकिन उन सबमें अमेरिका, रशिया और ब्रिटेन को बचाव किया और मानवता का मुकुट पहनाया गया क्योंकि इतिहास हमेशा विजेताओं के आगे ही नतमस्तक होता है। हिटलर के हिस्से में आयी एक तानाशाह, पागल, सनकी, अत्याचारी आदमी की छवि जिसने सारे विश्व को विनाश के रास्ते पर लाकर खड़ा कर दिया।

आज के इतिहास को देखें, तो एक आदमी जो जर्मनी को इस हद तक सशक्त बना देता है कि वो महज इतने कम समय में महाशक्ति बन जाये, भूखे मर रहे राष्ट्र को इतनी समृद्धि देता है, जिसके एक आवाज पर पूरी जर्मनी मरने को तैयार बैठा हो, वो ऐसा नहीं हो सकता जैसा आज के इतिहास में उसे लिखा जाता है।

आजकल का फैशन है कि हर तानाशाही को नाजी बोलकर उसका उपहास उड़ाया जाये। दरअसल ये वही लोग हैं जो किताबों में ही हर चीज का हल ढूंढते हैं, इन्हें किताबों के वो चेहरे नहीं दिखेंगे जो अपनी वतनपरस्ती में लड़े है।

हिटलर एक बेमिसाल राष्ट्रवादी था। जिसने हर उस कमजोर और गुलामी की जंजीर में जकड़े राष्ट्र को सम्बल दिया कि आजादी की एक कीमत होती है और बिना लड़े ना तो कोई जंग जीती जाती है, ना ही अपमान का बदला लिया जाता है। शांति, नॉन वॉयलेंस यह सब सुनने में अच्छी लगती है, जैसे गरीब की बेटी फटे पर्दे के आड़ में नहा रही हो, अब यह राह चलते की मर्जी है कि वो उसे निहारे या आंखे बंद करके अपने सत्यवादी होने का परिचय दे।

हिटलर के एक पक्ष कभी नहीं रहे थे। हिटलर वो शख़्स था जो अकेले ही इतिहास बनाने चला था, नियति ने उसे भले ही सफल नहीं होने दिया, लेकिन हिटलर ने इतना तो कर ही दिया था कि साम्राज्यवाद के स्वयंभू विश्वयुद्ध के नाम से ही डरने लगे थे और हर कमजोर राष्ट्र को अपमानजनक तरीके से दबाने से पहले वो सौ बार सोचने लगे थे कि उस राष्ट्र में कोई हिटलर पैदा हो सकता है।

इस चीज का डायरेक्ट कनेक्शन भले ना निकले, लेकिन सेकंड वर्ल्ड वार ने अमेरिका, रशिया, ब्रिटेन जैसे साम्राज्य के भूखे और लोलुप राष्ट्रों को इतना हद तक तोड़ दिया था कि महज एक दशक में ही उनके सारे उपनिवेश एक एक करके आजाद होते चले गये। इस मामले को भारत के संदर्भ में देखे तो गर्म तवे पर सबसे शानदार हथौड़ा नेताजी सुभाष बाबू ने ही मारा था।

पचास हजार से अधिक की सेना जब म्यांमार के रास्ते पूर्वोत्तर से भारत की सीमा में घुसी थी, और नेवी के सैनिकों का विद्रोह, सबकी प्रेरणा नेताजी ही थे, ब्रिटिश सरकार विश्वयुद्ध में पहले ही टूट चुकी थी जिसे अब और बोझ झेलना बूते के बाहर लगा। वो एक फोरगोटेन आर्मी थी, और वही एक आदमी थे नेताजी जो भारत की आजादी के सूत्रधार बने, सातवीं आठवीं की किताबों में इतिहास पढ़े बालकवृन्द और पशु अधिकारों के लिये लड़ने वाले शायद ही इस इतिहास को कभी समझ पायें। क्योंकि वो क्यूट होते हैं, जहां क्रांति भी फैशन से अधिक कुछ नहीं।

फिर कहूंगा, यह इतिहास है जो अपने फायदे के लिये औरंगजेब को महान राजा बनायेगा, चर्चिल को नीतिज्ञ बनायेगा, अमेरिका को विश्वरक्षक बनायेगा, क्योंकि हार चुके व्यक्तित्व के चरण नहीं चाटे जाते, वो खिताब देने के लिये अब जिंदा ही कहां है।

हर वो आदमी जिसके लिये उसका राष्ट्र सर्वोपरि है। जिसके लिये साध्य जरूरी है साधन नहीं, जिसके लिये राष्ट्र जरूरी है बातें नहीं, वो कभी इतिहास में जगह नहीं पाते, वो ऐसे शख्सियत हैं जो इतिहास को मोड़ते हैं।

जय हिंद

(यह लेखक के स्वतंत्र विचार है)

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