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अब भूकानून पर सीएम धामी का मास्टर स्ट्रोक

राम कुमार सिंह

देवभूमि उत्तराखंड में भूमि का मुद्दा जनभावनाओं से गहरा जुड़ा हुआ है। पृथक राज्य बनने के बाद इस मध्य हिमालयी क्षेत्र की जनाकांक्षाओं की उम्मीदों को नए पंख मिले, लेकिन इन उम्मीदों के उड़ान भरने की राह में 71 प्रतिशत संरक्षित वन क्षेत्र, पर्यावरणीय बंदिशें और उपलब्ध बेहद सीमित भूभाग आड़े आ गए। अस्पतालों, शिक्षण संस्थानों जैसे जन उपयोगी कार्यों, आवश्यक सुविधाओं के विस्तार, अवस्थापना और औद्योगिक विकास के लिए भूमि की उपलब्धता बड़ी चुनौती है। परिणामस्वरूप पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन रुकने का नाम नहीं ले रहा है। वहीं, बड़े पैमाने पर भूमि की अनियोजित खरीद-फरोख्त ने जनसांख्यिकीय में तेजी से बदलाव की नई समस्या को जन्म दे दिया है। इस पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। इस कारण प्रदेश में सशक्त भूकानून की मांग को लेकर राजनीति गरमाती रहती है। वर्ष 2017 में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने भू-कानून में संशोधन किया। पूंजी निवेश को आकर्षित करने, कृषि, बागवानी के साथ ही उद्योग, पर्यटन, ऊर्जा, शिक्षा व स्वास्थ्य समेत विभिन्न व्यावसायिक व औद्योगिक प्रयोजन के लिए भूमि खरीद का दायरा 12.5 एकड़ से बढ़ाकर 30 एकड़ तक किया गया।

संशोधित भू-अधिनियम में कुछ मामलों में 30 एकड़ से ज्यादा भूमि खरीदने की व्यवस्था भी रखी गई है। भूमि कानून के इसी लचीले रूप का विरोध किया गया। नौ नवंबर, 2000 को अलग उत्तराखंड राज्य के अस्तित्व में आने के साथ ही भूमि की खरीद-फरोख्त पर अंकुश लगाने की मांग उठनी शुरू हो गई थी। राज्य बनने पर उत्तराखंड में उत्तर प्रदेश का भूमि अधिनियम लागू रहा। इस वजह से अन्य राज्यों के निवासियों के भूमि खरीद-फरोख्त पर पाबंदी नहीं थी। अलग प्रदेश बनने के बाद जमीनों का धंधा तेजी से बढ़ा तो भूमि कानून को सख्त बनाने की मांग भी शुरू हो गई। देवतुल्य जनता की इन भावनाओं को देखते हुए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने बड़ा फैसला लिया है। प्रदेश में भू-कानून ताक पर रखकर मनमाने ढंग से की गई भूमि खरीद को लेकर सरकार सख्त हो गई है। ऐसी किसी भी अनियमित खरीद को रद किया जाएगा। राज्य के नगर निकाय क्षेत्रों से बाहर 250 वर्गमीटर से अधिक भूमि की बिना अनुमति खरीद के प्रावधान का उल्लंघन हुआ है। एक ही परिवार के एक से अधिक सदस्यों का अलग-अलग नाम से भूमि खरीदना अवैध है। ऐसे प्रकरणों की जांच कराने के बाद खरीदी गई भूमि सरकार में निहित की जाएगी। साथ ही सरकार अगले बजट सत्र में प्रदेश की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप वृहद एवं कड़ा भू कानून लाने की तैयारी कर रही है।

सरकार को ऐसी जानकारी मिली है कि राज्य में पर्यटन, उद्योग समेत व्यावसायिक गतिविधियों के लिए अनुमति लेकर की गई भूमि खरीद का उपयोग अन्य प्रयोजन में किया गया है। ऐसी भूमि का विवरण जिलों से एकत्र किया जा रहा है। जिस प्रयोजन के लिए भूमि खरीद की गई, उसे अन्य प्रयोजन में प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। ऐसी भूमि भी राज्य सरकार में निहित की जाएगी। सरकार मान रही है कि वर्ष 2017 में भूमि खरीद संबंधी नियमों में किए गए परिवर्तन के सकारात्मक परिणाम नहीं रहे हैं। भू-कानून में किए इस प्रकार के परिवर्तन की समीक्षा की जाएगी। आवश्यकता के अनुरूप इन प्रावधानों को समाप्त किया जाएगा।

बताते चलें कि प्रदेश में वर्ष 2002 में पहली निर्वाचित एनडी तिवारी सरकार ने भूमि कानून को कड़ा बनाने के लिए कदम उठाए। वर्ष 2003 में उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि व्यवस्था सुधार अधिनियम, 1950 (अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश 2001) अधिनियम की धारा 154 में संशोधन कर बाहरी व्यक्ति के लिए आवासीय उपयोग के लिए 500 वर्गमीटर भूमि खरीदने को ही अनुमति देने का प्रतिबंध लगाया गया। साथ ही कृषि भूमि की खरीद पर सशर्त प्रतिबंध लगा दिया गया।
12.5 एकड़ तक कृषि भूमि खरीदने की अनुमति देने का अधिकार जिलाधिकारी को दिया गया। चिकित्सा, स्वास्थ्य, औद्योगिक उपयोग के लिए भूमि खरीदने के लिए सरकार से अनुमति लेना अनिवार्य किया गया। यह प्रतिबंध भी लगाया गया कि जिस परियोजना के लिए भूमि ली गई है, उसे दो साल में पूरा करना होगा। बाद में यह ढील दी गई कि परियोजना तय अवधि में पूरी नहीं होने की स्थिति में कारण का हवाला देकर इसमें विस्तार लिया जा सकेगा। यह अलग बात है कि इस प्रतिबंध के बाद भी भूमि की खरीद-फरोख्त तेजी से बढ़ी।

भूमि खरीद पर विरोध हुआ तो खंडूड़ी सरकार ने की सख्ती
तिवारी सरकार में औद्योगिकी पैकेज मिलने के चलते तेजी से जमीनों की खरीद-फरोख्त हुई। नए उद्योग स्थापित हुए। लेकिन धीरे-धीरे इनमें से काफी जमीनों का इस्तेमाल उद्योग के बजाए आवासीय उपयोग के लिए होने लगा। अनियोजित विकास को बढ़ावा मिलने लगा। इसके विरोध में प्रदेशभर में आवाजें उठने लगीं। नतीजतन दूसरी निर्वाचित जनरल बीसी खंडूड़ी की सरकार ने वर्ष 2007 में भू-कानून में संशोधन कर उसे कुछ और सख्त बना दिया। खंडूड़ी सरकार ने आवासीय मकसद से 500 वर्गमीटर भूमि खरीद की अनुमति को घटाकर 250 वर्गमीटर कर दिया। भू-कानून को लेकर पिछली तिवारी सरकार के अन्य प्रावधान लागू रहे। इसके बाद 2017-18 में त्रिवेंद्र सरकार ने कानून में संशोधन कर, उद्योग स्थापित करने के उद्देश्य से पहाड़ में जमीन खरीदने की अधिकतम सीमा और किसान होने की बाध्यता खत्म कर दी थी। साथ ही, कृषि भूमि का भू-उपयोग बदलना आसान कर दिया था। पहले पर्वतीय फिर मैदानी क्षेत्र भी इसमें शामिल किए गए थे।

हिमाचल की तर्ज पर कानून की क्यों हो रही मांग
उत्तराखंड में पिछले कुछ वर्षों से लगातार हिमाचल प्रदेश जैसा सख्त भू-कानून बनाने की मांग हो रही है। हिमाचल के भू-कानून में ऐसे क्या प्रावधान हैं, जो उत्तराखंड के लोगों की पहली पसंद बन गया है। हिमाचल में बाहरी लोगों के लिए जमीन खरीद के विशेष प्रावधान हिमाचल में जमीन खरीद का टेनेंसी एक्ट लागू है। इस एक्ट की धारा-118 के तहत कोई भी गैर हिमाचली व्यक्ति हिमाचल में जमीन नहीं खरीद सकता है। अगर आप गैर हिमाचली हैं तो हिमाचल में जमीन खरीदने के लिए आप राज्य सरकार की इजाजत के बाद यहां गैर कृषि भूमि खरीद सकते हैं। इसके साथ ही हिमाचल प्रदेश के टेनेंसी और लैंड रिफॉम्र्स रूल्स 1975 की धारा 38ए(3) के तहत आपको राज्य सरकार को यह बताना होता है कि आप किस मकसद से जमीन खरीद रहे हैं। राज्य सरकार उस पर विचार करती है। इसके बाद आपको 500 वर्ग मीटर तक की जमीन खरीदने की अनुमति मिल सकती है।

कृषि भूमि हिमाचल के गैर कृषक भी नहीं खरीद सकते
हिमाचल में कृषि भूमि खरीदने की अनुमति तब ही मिल सकती है जब खरीदार किसान ही हो और हिमाचल में लंबे अरसे से रह रहा हो। हिमाचल प्रदेश किराएदारी और भूमि सुधार अधिनियम, 1972 के 11वें अध्याय ‘कंट्रोल आन ट्रांसफर आफ लैंड’की धारा-118 के तहत गैर कृषकों को जमीन हस्तांतरित करने पर रोक है। यह धारा ऐसे किसी भी व्यक्ति को जमीन हस्तांतरण पर रोक लगाती है, जो हिमाचल प्रदेश में किसान नहीं है।

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