दस्तक-विशेषराजनीतिसाहित्यस्तम्भ

अंग्रेजों के भारत से चले जाने के बाद राजनीतिक यात्रा

के.एन. गोविन्दाचार्य
  • 30-30 वर्षों के 3 चरणों में देखी जा सकती राजनैतिक यात्रा है
  • 1950-1980, 1980-2010, 2010-2020 और आगे 2040 तक

हर चरण के बारे मे समझने के 2 आघार बिन्दु है। एक है भारत के बारे मे समझ, फलतः भारत के लिये राजनैतिक व्यवस्था और दूसरा पहलू है भारत की अर्थव्यवस्था के निदेशक तत्व।

भारत के बारे में पिछले 200 वर्षों मे तीन तरह की समझ बनती गई। पहली समझ का मानना है भारत एक प्राचीन राष्ट्र है, इसकी एक संस्कृति है, एक जन है। इसकों ही कुछ लोग आस्थावादी हिन्दू राष्ट्र मानते है। हिन्दुत्व को व्यापक अर्थों में, सनातन भावधारा के रूप मे माना जा सकता है।

दूसरी प्रकार की समझ वाले लोग यह मानते है कि भारत 15 अगस्त 1947 को जन्मा नया राष्ट्र है। इसे आकार देना है। गढ़ना है दुनिया से सीखकर (अनुसरण करते हुए) इसका अपना कुछ विशेष पूंजी नही है। तीसरे प्रकार की समझ कहती है कि भारत तो राष्ट्र रहा ही नही है। 17 राष्ट्रीयताएँ हैं। पिछला सब भूल जाना चाहिये। नया ही नया गढ़ना है। इसमें रूस, चीन ज्यादा अनुकरणीय है न कि यूरोप, इंग्लैंड, अमेरिका।

देश की अर्थव्यवस्था आदि के बारे मे पहले प्रकार की धारा है कि देशज परंपरा से काफी कुछ सीखने लायक है। टूट-फूट के बाद भी बहुत कुछ अभी अच्छा शेष है। विशेषकर अर्थव्यवस्था का आधार ही है प्राकृतिक एवं सामाजिक पूंजी तथा सांस्कृतिक परंपराएँ। इसमे पारिवारिकता की भावना, बचत एवं संयमित उपभोग की महत्ता को स्वीकारा गया है। यह अर्थव्यवस्था समाजवादी या पूंजीवादी व्यवस्था से भिन्न है। आर्थिक विकेन्द्रीकरण और प्रकृति केन्द्रिक विकास इसकी दो पटरियाँ है। इन के प्रकाश मे दृढ़ता से अपनी राह को गढ़ना है। दूसरी धारा समाजवाद या सरकारवाद की कही जा सकती है। और तीसरी, धारा बाजारवाद या पूंजीवादी कही जा सकती है।

राष्ट्र की समझ के सन्दर्भ मे दूसरी और तीसरी समझ मे ज्यादा तालमेल रहा। इन दोनों ने मिलकर पहली समझ को धकिया कर हाशिये पर ही रखा।

भारत की सत्ता राजनीति की यात्रा में 1950-1980 के बिच राष्ट्र की समझ के बारे मे दूसरी और तीसरी धारा का मेल हावी रहा और अर्थव्यवस्था के बारे में सरकारवाद, समाजवाद हावी रहा।
1980 के बाद 2010 तक दूसरी और तीसरी समझ का मेल कुछ कमजोर पड़ा। पहली समझ की समाज मे स्वीकार्यता बढ़ने लगी। लेकिन अर्थव्यवस्था के संदर्भ मे समाजवाद, सरकारवाद को हटा कर अब देशपर बाजारवाद, पूंजीवाद हावी होने लगा।

2010 के पश्चात से राष्ट्र के बारे मे पहली प्रकार की समझ मजबूत होती जा रही है कि भारत एक प्राचीन राष्ट्र है, एक संस्कृति है, एक जन है, इसकी एक उज्जवल सांस्कृतिक परंपरा है। परन्तु अर्थव्यवस्था के संदर्भ में पहली समझ, पहली धारा द्वैत भाव से ग्रस्त है। एक तरफ बाजारवाद है और दूसरी तरफ स्वदेशी और विकेन्द्रीकरण की आग्रही अर्थव्यवस्था के बीच द्वंद्व है। संभ्रम की भी स्थिति है।

राष्ट्रीय चेतना या यों कहें हिन्दुत्व की अनेक छटाएँ विद्यमान है। विदेशी को स्वदेशानुकूल और स्वदेशी को युगानुकूल बनाकर ग्रहण करना ये शब्द तो पहली समझ वालों को रास आते है पर इसकी भाषाटीका मे बहुत से संस्करण उभरते है। बाजारवाद, पूंजीवाद तो साम, दाम, दण्ड, भेद, छल, उपेक्षा, इंद्रजाल के तरीकों को अपनाकर पहली समझ को अपने अनुकूल ढालने की कोशिश कर रहा है।

दत्तोपंत ठेंगड़ी जी

इसलिये यह और भी जरुरी है कि स्वदेशी, विकेन्द्रीकरण की आर्थिक नीतियों के संदर्भ में समुचित भाष्य हो। स्वदेशी, विकेन्द्रीकरण का मुलम्मा चढाकर बाजारवाद, पूंजीवाद न परोस दिया जाय यह सावधानी कदम-कदम पर रखनी होगी। इसमे दत्तोपंत ठेंगडी जी एवं पं. पू. श्री गुरूजी का आश्रय लेना उपयोगी ही नही आवश्यक होगा।

अर्थव्यवस्था के बारे में पं. पू. गुरूजी के द्वारा समीचीन दृष्टि और पथ्य, कुपथ्य का शिक्षण भी मिलता है। प्रकृति और परंपरा का ध्यान रखने की सीख मिलती है। दत्तोपंत जी द्वारा यह पाठ मिलता है कि अंत्योदय का आग्रह बरकरार रहे। धर्म और मोक्ष से बंधे हुए किनारों की बीच अर्थ और काम के बीच प्रवाह रहे यह संदेश भी मिलता है।

Related Articles

Back to top button