Jharkhand : सरना धर्म कोड पर गरमाई सियासत
आदिवासियों के धार्मिक अस्तित्व की रक्षा एक गंभीर सवाल
–उदय चौहान
झारखंड में एक बार फिर सरना धर्म कोड की मांग को लेकर सियासत गरमा गयी है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर आदिवासियों के सरना धर्म कोड की मांग पर जल्द और सकारात्मक फैसला करने का आग्रह किया है। उन्होंने प्रधानमंत्री को लिखा है कि देश का आदिवासी समुदाय पिछले कई वर्षों से धार्मिक अस्तित्व की रक्षा के लिए जनगणना कोड में प्रकृति पूजक आदिवासी/सरना धर्मावलंबियों को शामिल करने की मांग को लेकर संघर्षरत है। साथ ही पूरा विश्वास जताया है कि जिस प्रकार प्रधानमंत्री समाज के वंचित वर्गों के कल्याण के लिए तत्पर रहते हैं, उसी प्रकार इस देश के आदिवासी समुदाय के समेकित विकास के लिए पृथक आदिवासी/सरना धर्मकोड का प्रावधान सुनिश्चित करेंगे। मुख्यमंत्री ने पत्र में लिखा कि आदिवासी समाज के लोग प्राचीन परंपराओं एवं प्रकृति के उपासक हैं। पेड़ों, पहाड़ों की पूजा और जंगलों को संरक्षण देने को ही धर्म मानते हैं। साल 2021 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में लगभग 12 करोड़ आदिवासी निवास करते हैं। झारखंड में आदिवासियों की संख्या एक करोड़ से भी अधिक है। झारखंड की एक बड़ी आबादी सरना धर्म को मानने वाली है। इस प्राचीनतम सरना धर्म का जीता-जागता ग्रंथ स्वयं जल, जंगल, जमीन और प्रकृति है। सरना धर्म की संस्कृति, पूजा पद्धिति, आदर्श और मान्यताएं प्रचलित सभी धर्मों से अलग है।
मुख्यमंत्री ने लिखा है कि झारखंड ही नहीं, बल्कि पूरे देश के आदिवासी समुदाय पिछले कई सालों से सरना धर्म कोड की मांग को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि प्रकृति पर आधारित आदिवासियों के पारंपरिक धार्मिक अस्तित्व के रक्षा की चिंता निश्चित तौर पर एक गंभीर सवाल है। हेमंत सोरेन ने कहा है कि सरना धर्म कोड की मांग इसलिए उठ रही है ताकि प्रकृति का उपासक यह आदिवासी समुदाय अपनी पहचान के प्रति आश्वस्त हो सके। वर्तमान में जब समान नागरिक संहिता की मांग कतिपय संगठनों द्वारा उठाई जा रही है, तो आदिवासी समुदाय की इस मांग पर सकारात्मक पहल उनके संरक्षण के लिए जरूरी है। यदि सामाजिक न्याय के सिद्धांत पर इनका संरक्षण नहीं किया गया तो इनकी भाषा, संस्कृति के साथ इनका अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा।
हालांकि यह पहली बार नहीं है कि हेमंत सोरेन ने सरना धर्म कोड को लेकर प्रयास किया है। आदिवासियों के सरना धर्म कोड को लेकर हेमंत सरकार ने नवंबर 2020 में झारखंड विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर इसे पास कराकर केन्द्र को भेजा था। करीब तीन वर्ष बीत जाने के बाद भी केन्द्र द्वारा इस पर कोई सुधि नहीं लिए जाने के बाद एक बार फिर राज्य सरकार इस बहाने केंद्र पर दबाव बनाने में जुट गई है। पीएम को लिखे अपने पत्र में मुख्यमंत्री ने कहा है कि मुझे आदिवासी होने पर गर्व है और एक आदिवासी मुख्यमंत्री होने के नाते मैं न सिर्फ झारखंड बल्कि पूरे देश के आदिवासियों के हित में आपसे आग्रह करता हूं कि सरना धर्म कोड की मांग को यथाशीघ्र पूरा किया जाए। एक बार फिर सूबे में इस पर सियासत तेज हो गई है। इससे सवाल उठ रहे हैं कि क्या आदिवासी हिंदू नहीं हैं? फिर उनके लिए अलग धर्म की आवश्यकता क्यों पड़ी?
क्या है सरना धर्म और जुड़ा विवाद!
सरना एक धर्म है जो प्रकृतिवाद पर आधारित है और सरना धर्मावलंबी प्रकृति के उपासक होते हैं। झारखंड में सरना कोड की मांग नई नहीं है। जनगणना 2021 की प्रक्रिया शुरू होने से इसने तेजी पकड़ ली है। विधानसभा में पास हुए प्रस्ताव को अगर केन्द्र ने मंजूरी दे दी तो देश में सरना एक नए धर्म के रूप में सामने आएगा। जानकारों के मुताबिक, झारखंड में 32 जनजातियां हैं, जिनमें 8 पर्टिकुलरली वल्नरेबल ट्राइबल ग्रुप हैं। यह सभी जनजाति हिंदू कटेगरी में ही आते हैं। इनमें से जो ईसाई धर्म स्वीकार कर चुके हैं, वे अपने धर्म के कोड में ईसाई लिखते हैं। यह भी एक कारण है कि आदिवासी समुदाय अपनी धार्मिक पहचान को बनाए रखने के लिए सरना कोड की मांग कर रहे हैं।
कितने लोग मानते हैं सरना धर्म को!
रिपोट्र्स के मुताबिक, जनगणना 2011 में झारखंड के 40.75 लाख और देशभर के छह करोड़ लोगों ने अपना धर्म सरना दर्ज कराया था। इसमें भी सबसे ज्यादा झारखंड में 34.50 लाख थे। राजी पड़हा सरना प्रार्थना सभा के धर्मगुरु बंधन तिग्गा ने बताया कि झारखंड में 62 लाख सरना आदिवासी हैं। रांची महानगर सरना प्रार्थना सभा मिशन 2021 के तहत अपने स्तर पर झारखंड के सरना आदिवासियों की जनगणना करवा रही है। तिग्गा कहते हैं कि 21 राज्यों में आदिवासियों ने अपना धर्म सरना दर्ज करवाया था। इस वजह से इसे अलग पहचान मिलनी ही चाहिए।
यह पहचान मिलेगी कैसे
जनगणना 2001 के लिए दिए गए निर्देश में हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन इन 6 धर्मों को 1 से 6 तक के कोड नंबर दिए थे। अन्य धर्मों के लिए धर्म का नाम लिखना था, लेकिन कोई कोड नंबर नहीं देना था। 2011 की जनगणना में भी यही सिस्टम अपनाया गया था। 1951 में पहली जनगणना में आदिवासियों के लिए धर्म के कॉलम में नौवें नंबर पर ट्राइब उपलब्ध था, जिसे बाद में खत्म कर दिया गया। इसके हटने से आदिवासियों की गिनती अलग-अलग धर्मों में बंटती गई। इससे समुदाय की गणना नहीं हो सकी।
केन्द्र सरकार का इस मसले रुख
झारखंड के आदिवासियों को जनगणना में अलग से धर्म कोड का प्रस्ताव केन्द्र सरकार ठुकरा चुकी है। इस संबंध में विभिन्न आदिवासी संगठनों के आग्रह पर केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने स्पष्ट किया था कि यह संभव नहीं है। रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया का कहना है कि अलग धर्म कोड, कॉलम या श्रेणी बनाना व्यावहारिक नहीं होगा। अगर जनगणना में धर्म के कॉलम में नया कॉलम या धर्म कोड जोड़ा तो पूरे देश में ऐसी और मांगें उठेंगी।
राजनीतिक जानकारों की मानें तो आदिवासी वोट बैंक की वजह से झारखंड की पार्टियां इस मुद्दे को हवा देती हैं। विधानसभा में प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान हेमंत सोरेन ने कहा कि यह बात सही है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। आदिवासी समुदाय को खत्म करने की कोशिश हो रही है। इससे पहले भाजपा विधायक नीलकंठ सिंह मुंडा ने कहा कि यह प्रस्ताव राजनीति से प्रेरित है। भाजपा को प्रस्ताव में आदिवासी/सरना लिखने पर आपत्ति है। सरना धर्म लिखा जाए या आदिवासी सरना धर्म कोड का प्रस्ताव लाया जाए।
क्या इससे धर्मांतरण का खतरा टल जाएगा
दरअसल, इस मुद्दे को लेकर मतभेद है। एक तबका मानता है कि आदिवासियों को हिंदू बताया जा रहा है, जो गलत है। उन्हें उनकी अलग धार्मिक पहचान देनी चाहिए। वहीं, एक तबका इसके खिलाफ है। वह चाहता है कि यदि सरना को अलग पहचान दे दी तो भोले-भाले आदिवासियों को बरगलाकर धर्मांतरण कराना आसान हो जाएगा। हालांकि, ईसाई मिशनरीज के लोग इस तरह के आरोप नकारते रहे हैं।