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यूपी : जातीय संतुलन की सियासत

एक जमाना था जब भारतीय जनता पार्टी ‘बाभन-बनियों’ की पार्टी मानी जाती थी। बीजेपी की छवि तोड़ने के लिए पहली बार कल्याण सिंह दो कदम आगे बढ़े। अब मोदी-शाह की जोड़ी दस कदम आगे बढ़ कर पार्टी में जातीय संतुलन बनाने के लिए सोशल इंजीनिर्यंरग के सारे दांव चल रही है। इससे कार्यकताओं में असंतोष है। यूपी में हाल में हुए बीजेपी के संगठन के चुनाव पर राजनीतिक विश्लेषक संजय सक्सेना की रिपोर्ट।

वे सर्दियों के दिन थे। कल्याण सिंह यूपी बीजेपी संगठन के बड़े पदाधिकारी थे। उनके सामने नए जिलाध्यक्षों की सूची लाई गई। सूची ब्राह्मण, ठाकुर बनिया जिला अध्यक्षों से भरी थी। कल्यार्ण ंसह ने वो सूची जमीन पर फेंकते हुए कहा कि लिस्ट में जो थोड़े बहुत नाम दलित और पिछड़ों के हैं, उन्हें भी हटा कर ब्राह्मण-ठाकुर भर लीजिए। नब्बे के दशक का यह किस्सा एक प्रत्यक्षदर्शी वरिष्ठ पत्रकार ने सुनाया। इस साल संगठन चुनाव की जो पहली लिस्ट हाईकमान के पास भेजी गई, उसके साथ भी कमोबेश यही हश्र हुआ होगा। इस लिस्ट में पिछड़े, दलित और महिलाओं की भागीदारी की कमी रह गई थी। भारतीय जनता पार्टी के इतिहास में शायद पहली बार हुआ है जब मंडल, जिला और नगर इकाइयों के अध्यक्षों का चयन करने के लिए अंतिम तौर पर ‘दिल्ली‘ से नामों को हरी झंडी दी गई। बीजेपी में लंबे समय बाद ऐसा देखने को मिला है जब प्रदेश और राष्ट्रीय नेतृत्व जिलाध्यक्षों की नियुक्ति के लिए एकमत नहीं हो सका। पूरे यूपी को बीजेपी ने 98 संगठनात्मक जिलों में विभाजित कर रखा है। जनवरी के पहले हफ्ते से ही जिलों में चुनाव प्रक्रिया जारी है।

पिछले दिनों 70 जिलों के लिए नए जिलाध्यक्षों की घोषणा की गई है। इनमें से 39 जिलाध्यक्ष सामान्य वर्ग से हैं, जिनमें 20 ब्राह्मण, 10 ठाकुर, 4 वैश्य, 3 कायस्थ और दो भूमिहार हैं, जबकि, 25 ओबीसी और छह अनुसूचित जाति से हैं। इनमें 44 नए चेहरे शामिल हैं, इनमें 5 महिलाएं हैं। 26 को दोबारा मौका दिया गया है। बाकी 28 जिलों में अब तक जिलाध्यक्ष नहीं चुने गए। अब लगता है कि नए भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ही इन्हें सीधे नामित करेंगे। बीजेपी ने 2026 में होने वाले पंचायत चुनाव और 2027 में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। इसके लिए टीम चुनी जा रही है। जो टीम प्रदेश नेतृत्व ने तैयार की थी वह खारिज हो गई। हाईकमान ने मंडल, जिला महानगर और नगर इकाइयों में अध्यक्ष पद के लिए मजबूत जनाधार वाले नेताओं की दावेदारी सिर्फ इसलिए खारिज कर दी थी क्योंकि वह जातिगत सियासत में फिट नहीं बैठ रहे थे। पहली लिस्ट में शामिल तमाम नामों पर सवाल उठने लगे थे। इस पर शीर्ष नेतृत्व ने आपत्ति जताई। ऐसे में प्रदेश स्तर पर संगठन मंत्री ने एक-एक नाम पर गहनता से परीक्षण करने के बाद सभी विसंगतियों को दूर करके सूची तैयार कराई। तब जाकर हाईकमान ने लिस्ट जारी करने की इजाजत दी।

सब कुछ ठीक नहीं
पार्टी के भीतर हालात कितने खराब थे, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आपसी विवाद और राजनीतिक दबाव के चलते पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भी दो दर्जन से अधिक जिलों के अध्यक्षों की घोषणा नहीं कर पाया। यूपी बीजेपी करीब ढाई महीने की मशक्कत के बाद जिला इकाई के संगठनात्मक चुनावों के लिए 98 में से केवल 70 जिलों में ही अध्यक्ष के नाम की घोषणा कर पाई। यह सब तब हुआ जबकि भाजपा संगठन के चुनाव की प्रक्रिया पिछले साल ही शुरू हो गई थी और जिले के नाराज नेताओं को मनाने के लिए उनकी काफी मान-मनौव्वल की गई थी। उस समय मंडल अध्यक्षों का चुनाव दिसंबर और जिलाध्यक्षों का चुनाव जनवरी के अंत तक कराने की समय सीमा तय की गई थी। लेकिन मंडल अध्यक्षों का चुनाव ही जनवरी में संपन्न हो पाया था। आलम ये है कि पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी, प्रदेश चुनाव प्रभारी महेंद्रनाथ पांडेय के संसदीय क्षेत्र चंदौली और डिप्टी सीएम केशव मौर्य के गृह जनपद कौशांबी तक में जिलाध्यक्ष की नियुक्ति नहीं हो सकी है। इस प्रक्रिया में पार्टी ने सामाजिक और जातीय संतुलन बनाने का प्रयास किया है। हालांकि, 28 जिलों में गुटबाजी और आंतरिक विरोध के कारण जिलाध्यक्षों की नियुक्ति स्थगित करनी पड़ी है। कुछ जिलों में सांसदों, विधायकों और स्थानीय नेताओं के बीच सहमति न बन पाने के कारण चुनाव प्रक्रिया में बाधाएं भी आईं। विशेष रूप से, अलीगढ़ जिला, महानगर, हापुड़, फिरोजाबाद और शामली जैसे पांच जिलों में चुनाव स्थगित करना पड़ा। इन जिलों में सांसदों और विधायकों के बीच खींचतान के कारण आम सहमति नहीं बन पाई, जिससे चुनाव प्रक्रिया को रोकना पड़ा। प्रदेश में बीजेपी के 98 संगठनात्मक जिलों में से लगभग 50 फीसदी जिलाध्यक्षों को बदलने का निर्णय काफी सोच समझ कर लिया गया है, ताकि आगामी पंचायत चुनाव 2026 और विधानसभा चुनाव 2027 के लिए संगठन को सशक्त बनाया जा सके।

इतना हंगामा क्यों
कानपुर में तो भाजपा उत्तर जिलाध्यक्ष पद के नामांकन के दौरान पार्टी कार्यकर्ताओं ने चुनाव प्रक्रिया में गड़बड़ी का आरोप लगाते हुए हंगामा ही खड़ा कर दिया। कार्यकर्ताओं ने चुनाव अधिकारी को जूते का बुके थमा दिया, जो पार्टी अनुशासन के विपरीत एक गंभीर घटना थी। कार्यकर्ताओं का आरोप था कि मंडल अध्यक्ष और जिला प्रतिनिधि पदों के लिए आवेदन प्रक्रिया के बाद र्वोंटग नहीं कराई गई और शीर्ष नेतृत्व द्वारा सीधे नाम घोषित कर दिए गए। इसके अलावा, दलित कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और जातिगत भेदभाव के आरोप भी लगाए गए। नगर अध्यक्ष पद के चुनावों में भी गुटबाजी और असहमति की घटनाएं सामने आई हैं। बिजनौर के किरतपुर में नगर अध्यक्ष पद के चुनाव के दौरान भाजपा के दो गुटों में जमकर हंगामा हुआ। चुनाव पर्यवेक्षक के सामने ही कार्यकर्ताओं ने एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए, जिससे चुनाव प्रक्रिया बाधित हुई। कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया कि समर्पित भाजपा कार्यकर्ताओं की अनदेखी कर समाजवादी पार्टी के पूर्व कार्यकर्ताओं को बूथ अध्यक्ष बनाया गया, जिससे असंतोष बढ़ा।

जिलाध्यक्षों की नियुक्ति में जातीय समीकरण साधने की कोशिशें भी विवाद का कारण बनी हैं। पार्टी ने विभिन्न जातियों को प्रतिनिधित्व देने का प्रयास किया है, लेकिन कई स्थानों पर विधायकों और सांसदों की पसंद को प्राथमिकता देने से गुटबाजी बढ़ी है। कार्यकर्ताओं का मानना है कि इससे संगठन में निष्पक्षता प्रभावित हो रही है और सही फीडबैक प्रदेश नेतृत्व तक नहीं पहुंच पा रहा है। कहा यह भी गया कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश में ढाई करोड़ से अधिक सदस्य बनाकर रिकॉर्ड स्थापित किया था, लेकिन मंडल अध्यक्ष और जिलाध्यक्ष की नियुक्ति में सदस्यता अभियान में सक्रिय भूमिका निभाने वाले कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की गई। कई स्थानों पर अधिक सदस्य बनाने वाले कार्यकर्ताओं को पैनल से बाहर रखा गया, जबकि कम सदस्य बनाने वालों को पद दिए गए, जिससे असंतोष बढ़ा है।

नए चेहरे की तलाश
बीजेपी के लिए यह चिंता की बात है कि एक तरफ जिला इकाई के चुनाव में उसके नेता पार्टी की फजीहत करा रहे हैं तो दूसरी ओर इसी के चलते उत्तर प्रदेश भाजपा के नये अध्यक्ष के नाम की घोषणा में भी देरी हो रही है। इस देरी की वजह बीजेपी में निर्णय लेने की प्रक्रिया का अब अधिक केंद्रीकृत हो जाना है, जहां अंतिम निर्णय केंद्रीय नेतृत्व द्वारा लिया जाता है। स्थानीय स्तर पर चर्चा और सुझावों के बावजूद, अंतिम निर्णय में समय लग रहा है, जिससे प्रदेश अध्यक्ष के चयन में देरी हो रही है। पार्टी की केन्द्रीय इकाई यूपी प्रदेश अध्यक्ष के लिये एक ऐसे नेता की तलाश में है जो संगठन को मजबूती प्रदान कर सके, आगामी चुनावों में सफलता सुनिश्चित कर सके, और सरकार तथा संगठन के बीच संतुलन स्थापित कर सके, कार्यकर्ताओं में जोश भर सके और आगामी चुनावी चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हो। इसमे शक नहीं कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातीय समीकरण महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐसे में बीजेपी दलित या ओबीसी चेहरे को आगे बढ़ाने पर विचार कर रही है, जो विभिन्न समुदायों के बीच संतुलन स्थापित कर सके और पार्टी के समर्थन आधार को मजबूत कर सके। संभावित उम्मीदवारों में केंद्रीय मंत्री बी.एल. वर्मा (लोधी समाज), हरीश द्विवेदी (ब्राह्मण समाज), और अन्य नेताओं के नाम चर्चा में हैं। प्रदेश बीजेपी में आंतरिक गुटबाजी को भी नियुक्ति में देरी का एक कारण माना जा रहा है। विभिन्न गुटों के बीच मतभेद के चलते नये प्रदेश अध्यक्ष के नाम पर निर्णय में बाधा उत्पन्न हो रही है।

मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र्र सिंह चौधरी अभी पद पर बने हुए हैं। पार्टी नेतृत्व चाहता है कि नए अध्यक्ष की नियुक्ति सोच-समझकर और सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए की जाए, ताकि संगठन को मजबूत किया जा सके और पंचायत चुनाव व विधानसभा चुनाव का किला फतह किया जा सके। आलाकमान को लगता है कि बीजेपी के लिए आगामी पंचायत और विधानसभा चुनावों में संगठनात्मक एकता और कार्यकर्ताओं का मनोबल महत्वपूर्ण होगा। परंतु यह भी सच है कि इसके लिए वर्तमान विवादों को सुलझाना और निष्पक्ष एवं पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया सुनिश्चित करना पार्टी के लिए जरूरी है, ताकि जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं का विश्वास बना रहे और संगठन मजबूत हो। संगठन चुनाव में जिस तरह की घटनाएं सामने आईं, उससे स्पष्ट है कि भाजपा को अपने आंतरिक लोकतंत्र को सुदृढ़ करने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे, ताकि भविष्य में इस प्रकार के विवादों से बचा जा सके और पार्टी की छवि एवं एकता बनी रहे।

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