अर्थव्यवस्था के लिए घातक राजनीति का रेल ट्रैक
सियाराम पांडेय ‘शांत’ : किसान नेताओं ने देश के कई राज्यों में रेल ट्रैक पर बैठकर केंद्र सरकार के खिलाफ रोष प्रकट किया। किसानों के आंदोलन को देखते हुए पहली बात तो आंदोलन के निर्धारित समय पर कम ट्रेनें चलीं। जो चलीं, उन्हें रोककर किसान नेताओं ने आत्मसंतुष्टि का अनुभव किया। कुछ राजनीतिक दलों ने भी उनका साथ दिया। गणतंत्र दिवस परेड जैसे हालात न हों, इससे निपटने के लिए दोनों ही पक्ष तैयार थे। इसलिए इसबार के आंदोलन में गणतंत्र दिवस पर हुई घटना जैसा कुछ देखने को नहीं मिला।
कृषि कानून किसके लिए हितकारी है- किसानों के लिए, पूंजीपतियों के लिए या राजनीतिक दलों के लिए , यह विचार-विमर्श का विषय है लेकिन किसान आंदोलन के नाम पर देश की अर्थव्यवस्था को तहस-नहस करने के जो प्रयास किए जा रहे हैं, उससे किसका भला हो रहा है, लगे हाथ देश को यह भी बता दिया जाना चाहिए। पंजाब के पंचायत चुनाव नतीजों को कुछ लोग किसान आंदोलन से देख सकते हैं लेकिन सबको पता है कि जिस राज्य में जिस किसी दल की सरकार होती है, पंचायत चुनाव में उसी दल की विजय का परचम लहराता है। इसकी वजह भी किसी से छिपी नहीं है।
किसान आंदोलन के तीन माह पूरा होने में केवल 5 दिन बाकी हैं। तीनों नए कृषि कानूनों की वापसी से कम पर किसान नेता मानने को तैयार नहीं हैं। अब तो वे केंद्र और राज्यों में होने वाले किसी भी चुनाव में भाजपा को वोट न देने की अपील भी करने लगे हैं। इससे साफ हो गया है कि यह आंदोलन किसानों का कम, राजनीतिक दलों का ज्यादा है। जिस तरह अधिकांश विरोधी दल इस आंदोलन के साथ खड़े हैं, उससे भी इसी बात का संकेत जाता है कि यह सारा विरोध राजनीतिक है। यूएसए के प्रमुख अखबार में भारत के किसान आंदोलन का समर्थन इस बात की तस्दीक करता है कि आंदोलन भले ही किसानों के नाम पर हो रहा हो लेकिन इससे जुड़े चेहरों में कुछ अगर राजनीतिक दलों से जुड़े हैं तो कुछ उनसे गहरे प्रभावित हैं।
रेलगाड़ियां इस देश को जोड़ने का काम करती हैं। वह सभी दिशाओं के लोगों को, वहां के उत्पादों को देश भर में ले जाने का काम करती हैं। रेल भारत की विभिन्न संस्कृतियों और भाषाओं की, परंपराओं की, विचारों और व्यवहारों की और साथ ही अनेकता में एकता की भाव संवाहक है। उसे रोकने का मतलब है देश को रोकना। किसान नेताओं के आग्रह पर देशभर में ट्रेनों को रोका गया। कुछ लोग रेल ट्रैक पर बैठ गए। यह भी नहीं सोचा कि रेल में उन्हीं का अपना कोई सफर कर रहा होगा। समय पर अपने गंतव्य तक न पहुंच पाने में उसे कितनी परेशानी हुई होगी। रेलवे की एकदिन की कमाई 146 करोड़ रुपये होती है। किसानों ने चार घंटे भी रेल यातायात को बाधित किया तो उससे देश का कितना नुकसान हुआ, इस बाबत सोचना किसी ने भी जरूरी नहीं समझा। उत्तर प्रदेश विधानसभा के बजट सत्र के पहले दिन कुछ माननीय गन्ना लेकर सदन में पहुंच गए। उनकी किसानों से सहानुभूति है, यह बात समझी जा सकती है लेकिन जो विधायक गन्ना लेकर विधानसभा नहीं आए, उन्हें किसान प्रिय नहीं है, ऐसी बात भी नहीं है।
केंद्र सरकार के मंत्री पहले दिन से ही कह रहे हैं कि यह आंदोलन पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के कुछ बड़े किसानों का है। नए कृषि कानूनों से देश के 95 प्रतिशत लघु एवं मध्यम किसानों को लाभ होगा। सरकार पहले ही कह चुकी है कि कानून की खामियां बताई जाए, वह उसमें संशोधन करेगी लेकिन न तो विपक्ष कानून के दोष बता रहा है और न ही किसान नेता। आंदोलन के जरिए वे सरकार पर दबाव बनाए रखना चाहते हैं। रेल रोको आंदोलन का सर्वाधिक असर कहीं दिखा है तो वह पंजाब और हरियाणा में ही। हरियाणा-पंजाब के कई बड़े शहरों में प्रदर्शनकारी ट्रैक पर बैठ गए। राजस्थान में जयपुर और आसपास के इलाकों में भी ट्रेनें रोकी गई। हालांकि ट्रैक पर बैठे लोगों का यह भी कहना है कि किसी को परेशान करना उनका मकसद नहीं है। इसलिए ट्रेन में सफर कर रहे बच्चों के लिए दूध-पानी के इंतजाम किए गए हैं। इस मानवीयता का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन लोगों को इस आंदोलन से कितनी परेशानी हुई होगी, इस बारे में सोचने का दायित्व आखिर किसका है?
हरियाणा में करीब 80 जगहों पर प्रदर्शनकारियों ने रेल रोकी। पंजाब के 15 जिलों में 21 स्थानों पर किसानों ने ट्रेनें रोकी। पटियाला जिले में नाभा, संगरूर में सुनाम, मानसा, बरनाला, बठिंडा में रामपुरा, मंडी, संगत और गोनियाना, फरीदकोट में कोटकपूरा, मुक्तसर में गिद्दड़बाहा, फाजिल्का में अबोहर और जलालाबाद, मोगा में अजीतवाल, जालंधर में तरनतारन, अमृतसर में फतेहगढ़ में ट्रेनें रोकी गई। किसानों के इस प्रदर्शन में राजनीतिक दल भी शामिल रहे। पटना में जन अधिकार पार्टी लोकतांत्रिक के कार्यकर्ताओं ने तय समय से आधे घंटे पहले ही रेल रोकना शुरू कर दिया। कुछ कार्यकर्ता पटरी पर लेट गए, पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया। किसानों के प्रदर्शन को देखते हुए मेट्रो रेल प्रबंधन भी एहतियात बरतता नजर आया। टीकरी बॉर्डर मेट्रो स्टेशन, पंडित श्रीराम शर्मा, बहादुरगढ़ सिटी और ब्रिगेडियर होशियार सिंह मेट्रो स्टेशन बंद कर दिए गए थे। किसानों के ऐलान को देखते हुए देशभर में रेलवे प्रोटेक्शन स्पेशल फोर्स की 20 अतिरिक्त कंपनियां यानी करीब 20 हजार अतिरिक्त जवान तैनात किए गए। इनमें से ज्यादातर को पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में तैनात किया गया।
सरकार पहले दिन से ही किसानों की आय बढ़ाने की दिशा में काम कर रही है। वैसे जिस तरह से केंद्र सरकार ने किसानों की आशंकाओं को दूर करने की रणनीति बनाई है, उससे इतना तो साफ है कि वह खुद भी नहीं चाहती कि किसानों का आंदोलन लंबा खिंचे। इसके लिए वह हरसंभव प्रयास भी कर रही है। किसानों के लिए प्रधानमंत्री किसान सम्मान राशि के भुगतान का मामला हो या फिर फसल बीमा योजना का, हर दिशा में सरकार अपने तईं अच्छा प्रयास कर रही है। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पंजाब के कुछ बड़े किसान अगर केंद्र सरकार की नीतियों का विरोध कर रहे हैं तो इसके मूल में विरोध की राजनीति ही अहम है। रेल आंदोलन का असर जितना इन तीन राज्यों में दिखा है, उतना अन्य राज्यों में बिल्कुल भी नहीं दिखा है। रेल ट्रैक पर आंदोलनकारियों की मौजूदगी भी यह बताने के लिए काफी है कि यह आंदोलन अब सिमट रहा है और इसके नेता अब आंदोलन की अस्तित्व रक्षा के ही पैंतरे अपना रहे हैं। अब भी समय है कि आंदोलनकारियों को देश के व्यापक हित में अपना आंदोलन वापस लेना चाहिए, यही युगधर्म भी है।
(यह लेखक के स्वतंत्र विचार है)