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रामराज्य : आचरण को सदाचरण में रूपांतरित करने का मानस कर्म

विवेक ओझा

लेखक श्रीराम के चरित्र के औचित्य के सबसे बड़े सिद्ध कर्ता के रूप में हैं। अगले दो अध्यायों में इस ग्रंथ में नीचे दिए गए निष्कर्षों की प्राप्ति होती है जो इस ग्रंथ को पढ़ने की अपरिहार्यता को भी स्पष्ट आवाज देती है। : विवेक ओझा

रचनाकार: आशुतोष राणा

सूचना संस्कृति और विचार जगत के सम्मानित वरिष्ठों, बौद्धिक मार्गदर्शकों, मित्रों और विद्यार्थियों आशुतोष राणा सर रचित ग्रंथ रामराज्य पुस्तक की समीक्षा करना विचार जगत और भारत की आध्यात्मिक आभा की मानसिक आराधना करने जैसा है और मैंने कुछ रोज पूर्व इस ग्रंथ की पृष्टभूमि और पहले अध्याय कैकेई पर एक पाठक के रूप में अपने निष्कर्षों को आप सबके समक्ष प्रस्तुत किया था।

उसी कड़ी में आज दो और अध्याय पर इस ग्रंथ के पठन के बाद प्राप्त निष्कर्षों को आप सबसे साझा करना चाहता हूं जिससे आप भी स्वैच्छिक स्तर पर इस विलक्षण ग्रंथ की वैचारिकी से लाभान्वित हो सकें। व्यक्तिगत स्तर पर मेरा मत है कि वर्तमान के भारतीय जनमानस को जो राम जगाना चाहते हैं, उसकी पुकार हुंकार सुप्रसिद्ध रचनाकर्मी आशुतोष राणा ने भरी है। पूरा रामराज्य पढ़ने के बाद मेरा यह भी मानना है कि श्रीराम का दर्शन और लेखक के मानसिक कर्म और धर्म एकाकार हो गए हैं और यह महज लेखक की प्रशंसा मात्र नहीं है। प्रशंसा और लेखक का पुराना नाता रहा है।

वर्तमान संदर्भों की बात करें तो लेखक श्रीराम के चरित्र के औचित्य के सबसे बड़े सिद्ध कर्ता के रूप में हैं। अगले दो अध्यायों में इस ग्रंथ में नीचे दिए गए निष्कर्षों की प्राप्ति होती है जो इस ग्रंथ को पढ़ने की अपरिहार्यता को भी स्पष्ट आवाज देती है।

अध्याय-2 : सुपर्णा या शुपर्णखा

प्रतीकात्मक फोटो

इस पुस्तक में अहिंसक, सत्याग्रही और क्षमाशील श्री राम की उपस्तिथि में अग्रज के आदर्शों पर चलने वाले आज्ञाकारी अनुज से एक स्त्री की नासिका काटने के सत्य का परीक्षण किया गया है। मानो लेखक यह सवाल उठा रहा हो कि क्या राम और लक्ष्मण स्वतंत्र भारत के नारीवादी आंदोलनों की प्रवणता से वाकिफ नहीं थे। क्या राम और लक्ष्मण संविधान में जेंडर जस्टिस और जेंडर इक्वैलिटी के विमर्शों, बहसों से जूझने के लिए तैयार बैठे थे ? लेखक का मानना है कि ऐसा नहीं है क्योंकि श्री राम खुद नारीवादी मूल्यों की गरिमा को बचपन से समझते आए थे। राम जहां विष्णु के वहीं लक्ष्मण शेषनाग के अवतार थे, उन्हें ऐसा करना शोभा भी देता था और उन्होंने इसके लिए अथक प्रयास भी किया।

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लेखक ने बताया है कि राम वो हैं जिनका शस्त्र लाघव (हथियार चलाने की क्षमता) सदैव सोदेश्यपूर्ण रहा है। राम वो हैं जो किसी के प्राणों की रक्षा के लिए किसी दूसरे के प्राणों को लेने की बजाय उसकी चेतना को हर लेने को वरीयता देते हैं। इस मामले में राम मनुष्यों और पशुओं दोनों के चित्त को भलीभांति समझते हैं। राम चेतन को अचेतन और अचेतन को चेतन करने की कला में पारंगत हैं। प्रकृति के प्रत्येक कोने में रमण करने वाली चेतना राम के बारे में यह सब उद्घाटित करने वाला सुपर्णा का मन था। शुपर्णखा के नासिका के कटने के पिछे के कारणों की लेखक ने अद्भुत खोज करने की कोशिश की है। इस खोज पर उन्हें मेरे हिसाब से कुछ अभूतपूर्व निष्कर्ष की प्राप्ति हुई।

जिस प्रकार कैकेई के मन का वैचारिक द्वंद राम के सत के विजय का कारण बना, जिस प्रकार कैकेई ने वैश्विक लोक कल्याण, असत के पराभव के लिए राम को एक सार्वभौमिक मर्यादित उत्कृष्टता, चरित्र और लक्ष्य देने का मार्ग प्रशस्त करते हुए राम के वनवास की एक अति वांछनीय पृष्टभूमि का निर्माण किया था, कुछ उसी प्रकार शुपर्णखा ने कुछ खास कारणों से राम की अपराजेयता, इस जगत के लिए राम की अपरिहार्यता को स्वीकार किया। लेखक ने इसे स्पष्ट करने के लिए सुरी और आसुरी शक्तियों में मानसिक द्वंद का जीवंत चित्रण किया है। लेखक के लिए सुपर्णा और शुपर्णखा दो विचार हैं, दो दर्शन हैं, दो लक्ष्य हैं, सत की संपन्नता और असत की मानसिक विपन्नता के रूप हैं।

आशुतोष सर ने इसे और स्पष्ट विमर्श का विषय बनाने के लिए कुछ दुर्लभ संवादों को पुस्तक में स्थापित किया है। रावण, सुपर्णा और उसके पति विद्युतजिह्व के पारस्परिक संबंधों में ऐसा क्या घटित हुआ जिसने सुपर्णा को शुपर्णखा में बदलकर राम के लंका संधान को सफल बना दिया, इस बात का इस पुस्तक में सूक्ष्म अवलोकन किया गया है और यह बताने में लेखक सकारात्मक सृजनकारी शक्तियों से ओत प्रोत होकर लेखन करते नजर आते हैं। सुपर्णा और विद्युतजिह्व के एक विलक्षण प्रेम पत्र में लेखक ने जिस तरह से अपनी कलम चलाई है वो प्रेम और लालसा की परिणति के रूप में नजर आता है। रावण और विद्युतजिह्व के मध्य मतभेद और विद्युतजिह्व की महत्वाकांक्षाओं के रावणीय मूल्यांकन के जरिए शुपर्णखा के नासिका छेदन की घटना को समझा जा सकता है।

इस पुस्तक के इस अध्याय में लेखक ने राम के प्रति शुपर्णखा के मन में उपजे अलौकिक अनुराग की पहचान की है और वासना विषय वाले उसके प्रचलित चरित्र को एक नई दिशा दी है। यहां लेखक का जेंडर जस्टिस का भाव प्रबलता से काम करता है। सुपर्णा ने राम को दक्ष नहीं सिद्ध के रूप में देखा, राम के बाण संधान के अहिंसात्मक लक्ष्य को सुपर्णा के मन में जिन शब्दों के साथ लेखक ने उभारा है वो आपको लेखक की लेखनी का मुरीद बना देगा और साथ ही रामायण के नकारात्मक पात्रों की मुक्ति की गुहार सुनते लेखक के अद्भुत व्यक्तित्व का भी परिचय भी दे देगा।

राम हैं तो शिकारी और शिकार दोनों सुरक्षित हैं जैसे अनुपम विचार इस पुस्तक में यूहीं देखने को नहीं मिलते। पशु पक्षियों, वनस्पतियों से प्रेम करने वाले राम दंडकारण्य की अधिष्ठात्री सुपर्णा को एक विशेष किस्म के न्यायाधीश के रूप में नजर आए। कैसे ? इसके लिए यह पुस्तक आपको अवश्य पढ़नी चाहिए।

अध्याय-3 : पंचवटी

प्रतीकात्मक फोटो

पंचवटी नामक अगले अध्याय में राम द्वारा अपने शत्रुओं खर, दूषण और त्रिशरा के ससम्मान दाह संस्कार को राम द्वारा सभ्य समाज का एक सामान्य शिष्टाचार बताया गया है। लेखक यहां कह रहे हैं कि शत्रुता और शिष्टाचार में स्पष्ट अंतर समझने की जरूरत है फिर चाहे प्रतिस्पर्द्धा की बात हो या युद्ध या समर की। यह बता कर लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि विजेता और आक्रांता में अंतर समझना भी जरूरी है। विजेता में ममता समता शिष्टाचार सभी कुछ होता है पर आक्रांता इन सब गुणों से विहीन क्रूर निर्मम प्राणी होता है और लेखक कहते हैं कि राम निर्मम नहीं निर्माण का कारक है, राम धारक के साथ ही उद्धारक भी हैं।

मानो लेखक इस अध्याय में ये बता रहे हैं कि अगर आप लोग अपने शत्रु से प्रेम करना नहीं जानते तो इस अध्याय को पढ़कर जिओ और जीने दो का मंत्र श्री राम से सीख सकते हैं जिसकी आज बड़ी जरूरत है। आज हम अपने विरोधी, विपक्षी, प्रतिपक्षी, शत्रु, बैरी, मतभेदी के साथ कितने सहिष्णु हैं और हो सकते हैं, यह अध्याय आपको यही सीख देता है। लेखक का मत है कि मनुष्य होने की अनुभूति करना चाहते हैं तो श्रीराम के शत्रु सद्भाव को सीखें। यह अध्याय कहानी नहीं कहता, यह आपको जीवन कौशल देने की शुरुआत करता है। संसार में आना और संसार से जाना कैसे सफल हो सकता है, यह बात जानने की जरूरत सबको है और यह इस ग्रंथ में बताया गया है।

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राम वास्तव में वसुधैव कुटुंबकम् के निर्माता निर्देशक हैं। वह सर्वे भवन्तु सुखिनाः के रचनाकार हैं आज भी भारत इसी राह पर चल रहा है। इस पुस्तक के हर अध्याय की यह विशिष्टता है कि ये आपको खुद रचनाकार बना देगी, लेखक आपको हर अध्याय के जरिए खुद की एक वैचारिक यात्रा पर निकलने के उपादान के रूप में एक एक पंक्ति के साथ खड़े हैं। लेखक एक जगह बताते हैं कि एक सुंदर उद्देश्य के लिए श्रीराम की तरह किसी मित्र सखा की मूल जिज्ञासा को कैसे मोड़ा जा सकता है, यह सीखने की जरूरत है।

लेखक ने वक्ता राम के वाक् कौशल को माता सीता के नजरिए से प्रस्तुत करते हुए कहा कि राम जब बोलते हैं तब वह वर्तमान के धनुष दंड और अतीत की प्रत्यंचा पर अपने विचार रूपी बाण को रखकर भविष्य को भेद रहे होते हैं। ऐसी विलक्षण पंक्तियां शायद ही लिखी जा सकती हैं लेकिन आशुतोष सर उत्कृष्ट भाषाविद होने के चलते सरलता सहजता से ऐसा कर लेते है लेकिन ऐसा कर लेने के पीछे एक खास वजह यह भी है कि वो निर्विवाद रूप से रामेव जयते की कामना के आज के समय के सबसे बड़े पैरोकार हैं। राम और राम में उनकी आस्था यूं लगता है कि साथ साथ चलते हैं उनके विचारों के उर्वर, मनोरम पथ पर। ढेर सारे पथिक इस राह पर साथ चल सकते हैं।

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कामातुर रावण के विनाश की पृष्टभूमि रावण को प्राणों से भी प्रिय मानने वाली शुपर्णखा के हाथों कैसे लिखी गई, इस अध्याय में बताया गया है। अग्नि तारक भी होती है और मारक भी और सभी अग्नियों में सर्वाधिक घातक कामाग्नि होती है जिससे रावण ग्रसित था। इस बात का उल्लेख इस प्रकार किया गया है मानो लेखक आज के गुमराह युवाओं को लैंगिक शुचिता का पाठ भी पढ़ा रहे हों। देश में नारी गरिमा और लैंगिक न्याय साक्षरता के प्रसार की अपनी भूमिका के प्रति लेखक पूर्ण सजग हैं।

कुल मिलाकर कहें तो ये पुस्तक मानव व्यवहार और आचरण को निर्मित करने वाले घटकों से बेहतरी की दिशा में सार्थक संवाद करने का प्रयास है जिससे जीवन जीने के नए सूत्रों को सीखा जा सके। आचरण को सदाचरण में परिवर्तित करने की दिग्दर्शिका है ये पुस्तक और आप यह निष्कर्ष इस पुस्तक को पढ़ के शीघ्र ही निकाल पाएंगे।

क्रमश:

(लेखक अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं)

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