कृषि भूमि सुधार के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अभूतपूर्व पहल
सुरेश हिन्दुस्थानी: इतिहास इस तथ्य का प्रामाणिक दस्तावेज है कि भारत की भूमि पर एक समय दूध की नदियां बहती थीं, वहीं भारत की कृषि भूमि भी सोना उपजाती थी। इसका तात्पर्य यही है कि भारत भूमि की उर्वरा शक्ति बहुत ही अच्छी थी। भारत हर क्षेत्र में इतना सम्पन्न था कि विश्व का कोई भी देश उसके समक्ष ठहर नहीं सकता था। लेकिन आज भारत की कृषि भूमि का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। हालांकि वर्तमान में देश में इस बात के लिए गंभीरता पूर्वक चिंतन होने लगा है कि रासायनिक खादों के चलते कृषि भूमि में जो हानिकारक बदलाव आए हैं, उसे कैसे दूर किया जाए। इस बारे में देश के हित में समर्पण और निस्वार्थ भाव से कार्य करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने भूमि सुधार का बहुत बड़ा और आज के लिए अत्यंत आवश्यक अभियान हाथ में लिया है, जिसके अंतर्गत संघ के स्वयंसेवक गांव गांव जाकर किसानों से भूमि सुधार की दिशा में अभिनव पहल करेंगे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं द्वारा यह प्रयोग कोई नया नहीं है। संघ के अनेक कार्यकर्ता ग्रामीण उत्थान के कार्यों में लंबे समय से अपेक्षित परिणाम दे रहे हैं। देश के कई गांवों में खेती की दिशा में अभूतपूर्व परिवर्तन लाने वाले समर्पित कार्यकर्ताओं की टोली ने मध्यप्रदेश के मोहद (नरसिंहपुर) और झिरी (राजगढ़) में ऐसे ही प्रयोग करके भूमि सुधार का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है। इन गांवों के किसान जैविक पद्धति से खेती कर जहां भूमि को स्वस्थ बना रहे हैं, वहीं पर्यावरण के प्रदूषण को समाप्त करने में भी योगदान दे रहे हैं। इतना ही नहीं आसपास की गांवों में यह जागृति भी ला रहे हैं कि किसान जैविक पद्धति के आधार पर कृषि कार्य करें। इससे जहां भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ेगी, वहीं मानव के लिए उत्पन्न होने वाले अनाज और सब्जियों की गुणवत्ता में भी व्यापक सुधार होगा। इतना ही नहीं जैविक खेती की अच्छाइयों से प्रभावित होकर देश के कई किसान इस ओर प्रवृत्त हुए हैं और अपेक्षा के अुनसार परिणाम भी प्राप्त हो रहे हैं। यह बात सही है कि कोई भी अच्छा काम करने के लिए समय भी लगता है, लेकिन अच्छे और सुव्यवस्थित रुप से काम किया जाए तो परिणाम अच्छे ही मिलेंगे। रासायनिक खादों के प्रयोग से हमें भले ही जल्दी फसल प्राप्त हो जाए, परंतु उस फसल को अधिक समय तक नहीं रखा जा सकता। रासायनिक खादों के प्रयोग के चलते जो फसल प्राप्त होती है, उसे अधिक धन प्राप्त करने की दृष्टि से ही किया जाता है।
जैविक खेती एक ऐसी पद्धति है, जिसमें रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और खरपतवारनाशकों के स्थान पर जीवांश खाद के रूप में गोबर की खाद, हरी खाद, जैविक खाद आदि का उपयोग किया जाता है। इससे न केवल भूमि की उर्वरा शक्ति लंबे समय तक बनी रहती है, बल्कि पर्यावरण भी प्रदूषित नहीं होता और कृषि लागत घटने व उत्पाद की गुणवत्ता बढ़ने से कृषक को अधिक लाभ भी मिलता है। जैविक खेती वह सदाबहार कृषि पद्धति है, जो पर्यावरण की शुद्धता, जल व वायु की शुद्धता, भूमि का प्राकृतिक स्वरूप बनाने वाली, जल धारण क्षमता बढ़ाने वाली, कृषक को कम लागत से दीर्घकालीन स्थिर व अच्छी गुणवत्ता वाली फसल प्रदान करती है, लेकिन धरती माता की पूजा करने वाला किसान ही जब खेती को अप्राकृतिक तरीके से करने के लिए बाध्य हो जाए तो फिर धरती माता का स्वास्थ्य बिगड़ेगा ही। हम अगर प्रकृति के अनुसार चलेंगे तो प्रकृति हमारी रक्षा करेगी, लेकिन हमने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया तो संपूर्ण मानव जाति को प्रकृति ऐसा रूप भी दिखा सकती है, जहां से निकलने के सारे रास्ते बंद हो जाएंगे।
संपूर्ण विश्व में बढ़ती हुई जनसंख्या एक गंभीर समस्या है, बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ भोजन की आपूर्ति के लिए मानव द्वारा खाद्य उत्पादन की होड़ में अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए तरह-तरह की रासायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों का उपयोग, प्रकृति के जैविक और अजैविक पदार्थों के बीच आदान-प्रदान के चक्र को प्रभावित करता है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति खराब हो जाती है, साथ ही वातावरण प्रदूषित होता है तथा मनुष्य के स्वास्थ्य में गिरावट आती है। रासायनिक खादों के प्रयोग के चलते भारत की कृषि पर खतरनाक संकट आया है।
इससे जहां भारतीय कृषि भूमि प्रभावित हो रही है, वहीं आम जनजीवन के स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव हो रहा है। रासायनिक खादों के प्रयोग से जो भी फसल हमें प्राप्त हो रही है, वह जैविक खेती की तुलना में कई गुणा हानिकारक सिद्ध हुई है। इसी के कारण आज देश में कई किसान जैविक खेती की ओर अग्रसर हुए हैं। प्राय: देखा जा रहा है कि जिन किसानों ने जैविक खाद का प्रयोग करते हुए अपनी खेती प्रारंभ की है, उसके अपेक्षित परिणाम मिले हैं। खाद्यान्न, फल और सब्जियां प्राकृतिक स्वाद का अनुभव कराती हैं। आदर्श ग्राम योजना के अंतर्गत विकसित किए गए गांव मोहद में जैविक खेती के बाद जो उत्पादन किया जा रहा है, उससे प्राप्त उपज में प्राकृतिक सुगंध है। हम आजकल कहते हैं कि अब सब्जियों में पहले जैसा स्वाद नहीं रहा, लेकिन जैविक आधार से की जा रही खेती में उत्पादित फलों में पहले जैसा ही स्वाद आने लगा है। इससे हमें शुद्ध आहार की प्राप्ति हो रही है, वहीं भूमि की उर्वरा शक्ति में आशातीत सुधार दिखाई देने लगा है। इससे प्रेरित होकर आसपास के गांव के किसान भी अब जैविक खेती की ओर अपने कदम बढ़ाने लगे हैं। चारों तरफ जैविक खेती के प्रयोग किए जा रहे हैं और किसानों को सफलता भी मिल रही है। प्राचीन काल में मानव स्वास्थ्य के अनुकूल तथा प्राकृतिक वातावरण के अनुरूप खेती की जाती थी, जिससे जैविक और अजैविक पदार्थों के बीच आदान-प्रदान का चक्र निरन्तर चलता रहा था, जिसके फलस्वरूप जल, भूमि, वायु तथा वातावरण प्रदूषित नहीं होता था।
भारत वर्ष में प्राचीन काल से कृषि के साथ-साथ गौ पालन किया जाता था, जिसके प्रमाण हमारे ग्रंथों में प्रभु कृष्ण और बलराम हैं, जिन्हें हम गोपाल एवं हलधर के नाम से संबोधित करते हैं अर्थात कृषि एवं गोपालन संयुक्त रूप से अत्याधिक लाभदायी था, जो कि प्राणी मात्र व वातावरण के लिए अत्यन्त उपयोगी था। परन्तु बदलते परिवेश में गोपालन धीरे-धीरे कम हो गया तथा कृषि क्षेत्र का स्वास्थ्य लगातार बिगड़ रहा है। में तरह-तरह के कीटनाशकों के प्रयोग के चलते जैविक और अजैविक पदार्थों के चक्र का संतुलन बिगड़ता जा रहा है और वातावरण प्रदूषित होकर, मानव जाति के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है। अब हम रसायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों के उपयोग के स्थान पर जैविक खादों एवं दवाइयों का उपयोग कर अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं, जिससे भूमि, जल एवं वातावरण शुद्ध रहेगा और मनुष्य एवं प्रत्येक जीवधारी स्वस्थ रहेंगे।
भारत वर्ष में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि है और कृषकों की मुख्य आय का साधन खेती है। हरित क्रांति के समय से बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए एवं आय की दृष्टि से उत्पादन बढ़ाना आवश्यक है।
वर्तमान में जिस प्रकार से खेती से किसानों का मोह भंग हो रहा है, उसका एक मात्र कारण रासायनिक खेती ही है। प्राचीन काल में जब हमारे पूर्वज केवल जैविक आधार पर खेती करते थे, तब उत्पादन भी अच्छा होता था और लोगों का स्वास्थ्य भी अच्छा रहता था। यहां तक कि कई फसल और सब्जियां औषधि के नाम से जानी जाती थीं। वह समय फिर से वापस आ सकता है, इसके लिए किसान को पुरानी पद्धति से ही खेती करने के तरीके को अपनाना होगा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जो भी कार्य हाथ में लेता है, उसमें पूर्णतः भारतीय दृष्टि का समावेश होता है। आशय यही है कि संघ का प्रत्येक कार्य भारत की जड़ों को सींचने वाला ही होता है। भूमि सुधार की दिशा में किए जा रहे अभियान के तहत भी जहां देश के किसानों की खेती लागत को कम करने वाला माना जा रहा है, वहीं इस अभियान से दूषित खाद्य पदार्थों के उपयोग से भी छुटकारा मिलेगा। संघ का यह अभियान ग्रामीण विकास में भी सहायक होगा, इसलिए यह अभियान केवल संघ का अभियान न होकर सम्पूर्ण देश का अभियान बनना चाहिए। यह समय की आवश्यकता है।
(आलेख पूर्णतः मौलिक व स्वरचित है)