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जीवन के आनन्द का आधार है योग का नियमित अभ्यास

डॉ. योगी रवि

नई दिल्ली: युज धातु से उत्पन्न योग का अर्थ है अपूर्णता का पूर्णता से मिलन। व्यवहारिक रूप से योग का परिणाम है शरीर मन और चेतना का एक साथ कार्य करने की क्षमता प्रदान करना। गीता में योग को कार्य की कुशलता की स्थिति में अभिव्यक्त किया गया है। योगसूत्र में योग के पितामह महर्षि पतंजलि चित्त के वृत्तियों का पूरी तरह निरोध होने की स्थिति को योग कहते है।

योग के पितामह महर्षि पतंजलि चित्त

वर्तमान में योग का चिन्तन व प्रयोग बदला है। नवीन सामरिक चुनौंतियों के बीच योग अब वैकल्पिक चिकित्सा का सार्थक प्रयोग बन चुका है, जितना मानव नियमित स्वस्थ रहने के लिए योग का अभ्यास प्रयाेग कर रहा है। उससे भी कहीं अधिक जीवन शैली से उत्पन्न रोगों मधुमेह, मोटापा, कमर दर्द, सिर दर्द, घुटनों का दर्द, हाइपर टेंशन, एकाग्रता की कमीं जैसे अनेकों रोगों में योग चिकित्सा की नयी सम्भावना बनकर उभरा है।

मूलतः योग का लक्ष्य जीवन मुक्ति, परम आनन्द व शान्ति की स्थिरता है। परन्तु शरीर भाव की प्रबलता और चुनौतियाँ वर्तमान में योग की उपयोगिता सीमित कर रही है।शरीर और मन की संतुष्टि, संतुलन व चिकित्सा में योग पूरा हो रहा है।

मानव के दुखों का अन्तरिम कारण उसकी अज्ञानता है। योग उसी अज्ञानता से मुक्ति का शाश्वत व वैज्ञानिक प्रयोग है। चेतना के बन्धनों से क्रमिक मुक्ति हो या प्रकृति के साथ अपने सम्बन्धों का ज्ञान होना हो- योग जीवन को सम्पूर्णता के साथ आनन्दित करता है। मानव अपनी कार्यकुशलता से भी आनन्दित होता है। योग कार्यकुशलता का शिखर प्रदान करता है।

कुशलतापूर्वक कार्य करते हुए भी कार्य व परिणाम मुक्ति का बोध कराता है। जीवन को आनन्द और शान्ति की सही स्थिति देता है। अपने प्रार्दुभाव से लेकर अब तक योग शाश्वत व हर पल नवीन रहा है। काल के प्रभाव में योग की उपयोगिता का स्वरूप भले ही बदला हो, प्रभाव शाश्वत ही रहा है।

रोग की स्थिति हो या नियमित स्वस्थ रहने का उद्देश्य, योगाभ्यास हर परिस्थिति में स्वास्थ्य देता रहा है। मानव जीवन का आनन्द ही योगाभ्यास का परिणाम है। किन्हीं और कारणों से आनन्द क्षणिक भी हो, पर योगाभ्यास का आनन्द चेतना की मुक्तता का होता है, जो नियमित और अनन्त होता है।

शरीर और मन के स्तर पर योगाभ्यास तंत्रिका तन्त्र और हारमोंस को सीधा प्रभावित करता है। जिससे शरीर और मन में अधिक संतुलन और आनन्द की उत्पत्ति होती है। भावनात्मक स्तर पर योग का प्रभाव भावनाओं के विक्षोभ व विखराव को रोकने व संयमित उपयोग की योग्यता प्राप्त करने के रूप में दिखता है। भावनाओं का सही उपयोग व आनन्दित अभिव्यक्ति योगाभ्यास से प्राप्त होती है।

मानव को योगाभ्यास चेतना, शरीर, मन और प्रकृति के साथ बेहतर सम्बन्धों के लिए करना चाहिए। आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बन्ध के साथ षटकर्म की क्रियाओं का ऋतु अनुसार अभ्यास- प्रयोग, नियमित रखना चाहिए। प्रत्याहार और ध्यान का दिनचर्या में नियमित प्रयोग क्रम बनाना चाहिए। जीवन का अन्तरिम लक्ष्य शाश्वत आनन्द तथा मुक्ति भाव में स्थिर रहना है।

योगाभ्यास की निरन्तरता हमें मुक्ति भाव की स्थिरता तथा शाश्वत आनन्द प्रदान करने में सक्षम है। वर्तमान समय अनेक कालिक चुनौतियों से घिरा है। समय प्रबन्धन आधुनिक काल की बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। नये रोगों की चुनौतियाँ, आधुनिक सभ्यता की आदतें योगाभ्यास की नियमितता को चुनौती दे रही हैं। फिर भी चिकित्सा योग के प्रयोग व परम्परागत योग विद्या ने आधुनिक समाज को बदला है। मानव योग के प्रभाव व परिणाम को देखते हुए योगाभ्यास के लिए अब समय भी निकाल रहा है तथा अपनी चुनौतियों की विभीषिकाओं के बीच भी योगाभ्यास मानव को आनान्दित कर रहा है

योगाभ्यास मानव को हर परिस्थिति में आनन्द और शान्ति देता रहा है। चेतना व प्रकृति के बेहतर सम्बन्धों का ज्ञान कराता रहा है। मुक्ति बोध हो या शाश्वत सत्य की ओर यात्रा, योगाभ्यास ने जीवन को अनंत दिया है। आवश्यकता योग की विराटता को समझने और उसे अपनाने की है।

योगाभ्यास के परिणामों को स्थिर बनाये रखने के लिए नियमितता की अनिवार्यता को समझना होगा। साथ ही योग के अनुभवों में छिपी विराटता तथा मुक्तता की प्रेरणाओं को समझना होगा ताकी आसन प्राणायाम से आगे बढ़कर प्रत्याहार को अपना सकें और ध्यान का मार्ग प्रशस्त हो सके। आइये! योग से योगाभ्यास के रूप में जुड़ें। नियमित होकर जीवन में अधिक आनन्दित होने दें, शरीर, मन व भावनाओं में सर्वोत्तम स्वास्थ्य स्थापित होने दें।

(लेखक योग विशेषज्ञ व प्राकृतिक चिकित्सक हैं।)

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