विवेक ओझा

भू राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की भेंट चढ़ता रूस यूक्रेन और इजरायल फिलिस्तीन संघर्ष

देहरादून (विवेक ओझा) : रूस और यूक्रेन संघर्ष विश्व राजनीति की सबसे बड़ी घटना बनके उभरी है जिसने राष्ट्रों के बीच आपसी मतभेद को भी बढ़ावा दिया है। शक्ति राजनीति, क्षेत्रीय राजनीति, निहित स्वार्थों के चलते इस समस्या का समाधान नहीं खोजा जा सका है। वहीं रूसी राष्ट्रपति पुतिन यूक्रेन के खिलाफ़ निर्णायक जंग में लगे हुए हैं। निर्णायक इसलिए कि छिट पुट स्तर पर यूक्रेन को सबक सिखाने के कई प्रयास रूस ने पहले भी किए लेकिन अब रूस केवल क्रीमिया जैसे क्षेत्र पर कब्जे से ऊपर की सोच रखता है जिसके चलते उसने यूक्रेन के शहरों, गांवों पर मिसाइल रॉकेट दागे, ड्रोन हमलों की बारिश कर दी , नाभिकीय ऊर्जा संयंत्रों को निशाना बनाया ताकि नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में यूक्रेन पंगु हो जाए, केमिकल वेपन, फास्फोरस बॉम्ब का इस्तेमाल किया। रूस यूक्रेन की पूरी पीढ़ी को पंगु बनाने पर आमादा है और यूक्रेन भी रूस की इस मंशा में पूरा साथ दे रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि यूक्रेन के राष्ट्रपति अगर रूस से समझौता कर लेते हैं, कुछ आवश्यक शर्तों को मानकर विनाश को रोक सकते हैं तो उन्हें ऐसा करना चाहिए था क्योंकि जिस स्तर पर यूक्रेन में जन धन की क्षति हुई है उसके लिए जितनी रूस की आक्रामक नीतियां जिम्मेदार हैं, उससे कम जेलेंसकी की नहीं है।

यूक्रेन नाटो का सदस्य बनने के लिए आमादा रहा, पश्चिमी ताकतों के कहने पर रूस की ताकत को नजरंदाज करते हुए उससे लड़ बैठा। यूक्रेन में रूसी भाषा बोलने वाले वाले क्षेत्रों की सामाजिक सांस्कृतिक जरूरतों को नज़रअंदाज़ किया जिसकी कीमत उसे चुकानी पड़ रही है। इसका ये मतलब नही है कि रूस सही है और उसकी कार्यवाही औचित्यपूर्ण है। लेकिन रूस के द्वारा ऐसी आक्रामकता दिखाने के पीछे कुछ कारण हैं जिन्हें समझना आवश्यक है। रूस ने यूक्रेन पर इतना बड़ा हमला इसलिए नहीं किया कि रूस को सिर्फ यूक्रेन से नफरत है बल्कि यूक्रेन उन पश्चिमी देशों का सहयोगी है जो रूस को आर्थिक, कूटनीतिक प्रतिबंधों की अग्नि में झोंक देना चाहते हैं। यूक्रेन और यूएस संबंध रूस को रास नहीं आ सकता।

अमेरिका चीन को कैटसा कानून के तहत शत्रु देश घोषित कर चुका है और अगर वो अमेरिका यूक्रेन की सैन्य, आर्थिक , कूटनीतिक मदद करता है और रूस के मन में यूक्रेन के लिए तबाही का भाव बढ़ जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो देशों की नीतियों का रूस यूक्रेन संबंधों पर स्पिल ओवर इफेक्ट पड़ रहा है। पश्चिमी देशों ने रूस को जी 8 , जी 7 से निष्कासित किया, उसे चीन , ईरान का साथी घोषित किया, रूस के बहिष्कार का कोई भी प्रयास नहीं छोड़ा इसलिए वेस्टर्न पॉवर के सहयोगियों के लिए भी रूस निष्ठुर हो जाता है। ऐसे में यूक्रेन को पश्चिमी देशों को केंद्र में रखकर नहीं बल्कि द्विपक्षीय स्तर पर शांति के लिए प्रयास करने चाहिए थे। राइट टू सेल्फ डिटरमिनेशन या आत्म निर्धारण के अधिकार के लिए इस बात का ध्यान में रखना जरूरी है कि इस अधिकार का तभी मतलब है जब राष्ट्र और उसके नागरिक अस्तित्व में रहें, अपने को मिटाकर जंग जारी रखने की नीति कहीं से औचित्यपूर्ण नहीं कही जा सकती। वहीं रूस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य हैं तो किसी भी ऐसे प्रस्ताव जो उसके हित के खिलाफ हो उसपे वो वीटो पॉवर का इस्तेमाल कर सकता है जबकि यूक्रेन के साथ ऐसी स्थिति नहीं है। इन बातों का मतलब ये है कि रूस की आक्रामकता से जितना ये युद्ध खिंचा है , यूक्रेन की कुछ अदूरदर्शी नीतियों के चलते भी इसे बढ़ावा मिला है। यूक्रेन में क्लीनिक, हॉस्पिटल, शिक्षण संस्थान, मिलिट्री कॉम्प्लेक्स किसी को भी रूसी ड्रोनों ने नहीं छोड़ा है। ऐसे में यूक्रेन की सामरिक वरीयताओं की समझ यह तय करेगी कि ये युद्ध कितना लंबा चलेगा।

रूस को जिस तरह से तमाम देशों ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अलग थलग करने की कोशिश की है, यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि रूस अब सुपरपावर नही रह गया है, उसने भी रूस को इस बात के लिए प्रेरित किया है कि वो दुनिया को दिखाएं कि रूस नाभिकीय बॉम्ब का इस्तेमाल कर तीसरे विश्व युद्ध का आगाज़ कर सकता है, मून में न्यूक्लियर पावर यूनिट लगा सकता है, यूक्रेन को पूर्ण तरीके से तबाह कर सकता है। ऐसे में रूस एक ही स्थिति में रुक सकता है अगर उसका तिरस्कार न किया जाय, उससे वाद संवाद की शुरुआत पश्चिमी देश करें और वैश्विक शांति सुरक्षा के पक्ष में अपने वैचारिक अड़ियलपन को थोड़े समय के लिए दूर रखें।

रूस यूक्रेन युद्ध इसलिए भी बहुत लंबा खींच रहा है क्योंकि पुतिन ने इसे रूस में राष्ट्रवाद और अति राष्ट्रवाद का एक बड़ा हथियार मान लिया है और उसके आधार पर जनता को अल्ट्रा नेशनलिस्ट रूस के नज़दीक ला रहे हैं लेकिन रूस को भी इसका गंभीर परिणाम झेलना पड़ा है। रूस के 60 हज़ार से अधिक सैनिक इस युद्ध में मारे जा चुके हैं वहीं रूस यूक्रेन युद्ध जब से शुरू हुआ है तब से एक लाख से अधिक सैनिक मारे जा चुके हैं, 3 लाख से अधिक सैनिक घायल हो चुके हैं। रूस यूक्रेन युद्ध इस बात का सबूत है कि सामरिक वरीयतायें प्रबल हों तो यूएन पीसकीपिंग मिशन, यूएनएससी प्रस्ताव, सीजफायर प्रस्ताव प्रभावी नहीं होगा। ऐसे में रूस जैसे देश ये नहीं देखेंगे कि ग्लोबल फूड सप्लाई चेन कैसे प्रभावित होगी और कैसे ऊर्जा मुद्रास्फीति बढ़ेगी। वैश्विक व्यापार अवरुद्ध होगा और राष्ट्रों के मन में शंका, संदेह, तनाव उत्पन्न होगा।

इजरायल फिलिस्तीन मुद्दा: इजरायल फिलिस्तीन मुद्दा भी आत्मसम्मान और सैन्य दंभ के जाल में उलझ कर रह गया है। जेरूशलम जैसे धार्मिक स्थान पर अनन्य अधिकार रखने की इच्छा के साथ शुरू हुई इस लड़ाई ने आत्म निर्धारण के अधिकार के नाम पर लड़ने वाले आतंकी संगठनो जैसे हमास को जन्म दे दिया और एंटी सेमिटिज्म ( यहूदियों से नफरत करने की भावना) फिलिस्तीन की आबो हवा में फैला दिया गया वहीं इजरायल में इस्लामोफोबिया ( इस्लाम से नफरत करने की भावना) को बढ़ावा दे दिया गया और इसके बाद ये दोनों देश एक राजनीतिक लक्ष्य के लिए धर्म और विचारधारा को आधार बनाकर युद्ध करने लगे।

आंकड़ों की देखें तो मई, 2024 तक इजरायल और फिलिस्तीन की जंग में 36000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं जिसमें हर उम्र और लिंग के लोग शामिल हैं। इजरायल का प्रतिशोध तो इस स्तर तक का रहा कि फिलिस्तीन के आईवीएफ सेंटर को भी निशाना बनाया गया जिसमें 4000 भ्रूण नष्ट हो गए और निः संतान दंपत्ति की आख़िरी आशाएं ख़त्म हो गईं, ये वो लोग थे जिनका शायद हमास से लेना देना न रहा हो , लेकिन हमास की इजरायल के प्रति कट्टरता का खामियाजा इन्हें भुगतना पड़ा।

दोनों ही युद्धों ( रूस यूक्रेन, इजरायल हमास) में युद्ध अपराध , मानवता के खिलाफ़ अपराध, युद्ध बंदियों के खिलाफ अपराध बड़े पैमाने पर हुए, जेनोसाइड ( जातीय संहार) की भावना के साथ एक दूसरे पर हमले किए गए, महिला बलात्कार को एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया। इजरायल फिलिस्तीन युद्ध महज एक युद्ध नही है , ये मानवाधिकार उल्लंघन, महिलाओं की सुरक्षा, प्रकृति पर्यावरण को डैमेज करने की भी कहानी है।

कुछ ऐसे देश हैं जो यह सोचते हैं कि युद्ध लड़ने की घोषणा करना ही बहादुरी नहीं युद्ध को जीतने के लिए काम करना जरुरी और विपक्षी को हर तरह से डराना जरूरी है लेकिन जब भी दो देश युद्ध में संलग्न होते हैं तो उन्हें दो कब्रें तैयार करनी होती हैं एक अपने दुश्मन के लिए और एक खुद के लिए। एक विकल्प ये भी हो सकता है कि शत्रु को डरा दिया हो , मान मर्दन कर दिया हो तो उसके बाद शांति की भीख दे देनी चाहिए क्योंकि मकसद पूरा हो चुका होता है। इजरायल को भी इस बात को सोचने की जरूरत है अन्य मिडिल ईस्ट वेस्ट एशिया की राजनीति एक नया ही मोड़ लेगी जो कई देशों के लिए दुखदाई होगा।

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