उत्तर प्रदेशदस्तक-विशेषराज्य

साधो, देखो जग बौराना!

बृजेश शुक्ल

दुनिया के इस सबसे बड़े धार्मिक आयोजन में डिग्रियों और सुंदरता में साधुत्व को खोजा जा रहा है, गजब दुनिया हो गई है। गिरि कंदराओं में रहने वाले साधु जो 12 वर्ष बाद संगम तट पर आते हैं, लोगों में उन सिद्ध पुरुषों को खोजने और उनके दर्शन की दीवानगी हुआ करती है। श्रद्धालु त्रिवेणी की कुछ बूंद और साधुओं की कृपा पाने के आकर्षण में महाकुंभ आ जाते हैं। जबरदस्त ठंड और तमाम चुनौतियों के बीच लोग महाकुंभ की तरफ बढ़े चले आ रहे हैं लेकिन अब क्या कहा जाए इस मीडिया को। उसकी नज़र चमत्कारी बाबाओं को ढूंढ रही है। सुंदर साध्वियों को खोज हो रही है। चिलम पीते और आम श्रद्धालुओं से गाली-गलौज और मारपीट करते बाबाओं को भी ढूंढ़ रही है। वह इसी दृष्टि से हमें कुंभ दिखा देना चाहते हैं। कबीर ने कहा था कि। ‘साधो, देखो जग बौराना। सांची कहौ तो मारन धावै झूठे जग पतियाना।’

क्या सुंदर साध्वी और बड़ी डिग्री धारक संतों में ही सिद्ध संत मौजूद हैं? लेकिन हम भूल बैठे बैठे हैं कि डिग्री और सुंदरता का संतई से कोई लेना-देना नहीं है। संतई ईश्वर की भक्ति से पैदा होती है, भजन से पैदा होती है, आराध्या की कृपा से पैदा होती है। इसके लिए सुंदर और असुंदर आप कुछ भी हो सकते हैं। जहां पर कृपा है वही सुंदरता है। वास्तव में समय ऐसा बदला कि अब संगम की रेती में उन संतों और साधुओं की खोज खत्म हो गई है जो सिद्ध पुरुष हैं लेकिन क्या यह आम श्रद्धालु कर रहे हैं, शायद नहीं। क्या डिग्री और सुंदरता ही साधुता का परिणाम है, शायद नहीं। लेकिन मीडिया को जो महिला सुंदर है, इन्हीं में साधुता दिखती हैं, साधना दिखती है समर्पण दिखता है। उसी में चमत्कार देखते हैं और उन्हीं में ईश्वर भक्ति भी दिखती है। खुद साध्वी परेशान हैं कि कैसे लोग हैं जो तपस्या को नहीं देख रहे हैं, उनकी सुंदरता को ही भक्ति मान बैठे हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने सही ही कहा था कि ‘जो कह झूठ मसखरी नाना, कलयुग सोई गुणवंत बखाना।।’

मुझे वर्ष 1989, 2001 और 2013 के महाकुंभ को नजदीक से देखने का अवसर मिला। ज्यादातर श्रद्धालु तो इसी प्रथम लक्ष्य से महाकुंभ जाते हैं कि गंगा-जमुना और सरस्वती कि त्रिवेणी में उनका पावन स्नान हो और उन साधुओं के भी दर्शन हो जो गिरि कंदराओं से निकलकर महाकुंभ में आते हैं। उनके चरणरज से ही लोग अपने को धन्य समझते हैं। संगम की रेती में श्रद्धा और भक्ति बिखरी हुई है लेकिन दुर्भाग्य है कि मीडिया में भक्ति और तपस्या पर चर्चा नहीं हो रही है। यहां पर चर्चा में सिद्ध साधु भी गायब हैं और साधुता भी। जो तमाम समस्याओं चुनौतियों को किनारे कर कुंभ में आए हैं, उनका एक लक्ष्य स्नान के साथ ही सिद्ध संतों के दर्शन का भी है। क्या हो गया है उन लोगों की दृष्टि को जो ऐसे साधु वेशधारियों को दिखाने में लगे हैं जो बात-बात में गाली देते हैं और श्रद्धालुओं को चिमटा लेकर दौड़ा लेते हैं, पीटते भी है।

गुरु वल्लभाचार्य जी ने जब सूरदास जी से कोई भजन सुनाने को कहा तो उन्होंने सुनाया कि ‘मो सो कौन कुटिल खल कामी।’ दीनता का यह शिखर है। लेकिन वल्लभाचार्य को यह भी पसंद नहीं आया और उन्होंने कहा कि ‘का सूर होकर रिरिया रहे हो, कोनो श्रीकृष्ण की लीला के पद सुना। असल में यही भक्ति है लेकिन आज के कई साधु वेशधारी श्रद्धालुओं पर ही हमला करते हैं। बात-बात पर लोगों को अपमानित करते हैं। महाकुंभ का यह लक्ष्य तो नहीं है। मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना कुंडे-कुंडे नवं पय:। जातौ जातौ नवाचारा: नवा वाणी मुखे मुखे।।

हर किसी की राय अलग-अलग होती है, सोच अलग होती है, कर्म अलग होते हैं, व्यवहार अलग होता है। संतों की भीड़ में ऐसे साधु वेशधारी भी हो सकते हैं जो बात-बात में क्रोधित होते हैं, आक्रामक व्यवहार करते हैं, गलत शब्दों का प्रयोग करते हैं लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि उन्हें ही दिखा दिया जाए कि यही साधु है। यही साधुओं का आचरण है। यह कोशिश है यह बताने की कि साधु इसी तरह के होते हैं। कुछ मूर्खों को यह कहने का मौका भी मिलता है। इस महाकुंभ की व्यवस्था भी अद्भुत है और वह सारे प्रयास किए गए हैं जिससे न संतों को कोई असुविधा हो और न ही आम श्रद्धालुओं को। मीडिया तो पूरे महाकुंभ में चमत्कार ढूंढ रहा है जबकि भारतीय संस्कृति चमत्कार को नमस्कार नहीं करती। जहां संतई है वहां पर चमत्कार को नमस्कार की कोई कीमत नहीं है। वहां बड़ी-बड़ी बातें नहीं है। बड़े-बड़े दावे नहीं हैं। यदि चमत्कार ही साधुता की निशानी होती तो तुलसी कबीर चैतन्य महाप्रभु, रामानुजाचार्य रामानंदाचार्य किसी भी पंक्ति में न आते। भारतीय समाज तो इन्हीं संतों की कृपा पर चला है। जहां दीनता है, ईश्वर की कृपा पर ही सब आश्रित है। अपना जो कुछ भी है वह ईश्वर की कृपा पर है। लेकिन आम श्रद्धालु तो अभी भी इस प्राचीन परंपरा का पालक है। जो हमेशा से साधुओं की कृपा दृष्टि पर ही निर्भर रहा है। उनके चरण रज को ही लेता रहा है।

लखनऊ के भवानीगंज की गायत्री कश्यप अपने पूरे मोहल्ले के साथ महाकुंभ गई। उनके दल के साथ 15 श्रद्धालु थे। वह ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं लेकिन उनका लक्ष्य कहीं ज्यादा साफ था। वह यहां से यह लक्ष्य बनाकर गईं कि मां गंगे-यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम में स्नान करेंगी और उन महान संतों की चरण रज को लेंगी जिनके चरण संगम की रेती पर पड़े हैं और यही रज संगम तट पर बिखरी हुई है। इन नवनीत हृदय संतों की कृपा ही काफी है। गायत्री कश्यप बताती हैं कि महाकुंभ जाकर उनका लक्ष्य पूरा हो गया, जीवन सफल हुआ। उनकी कोशिश रही कि किसी तरह संगम का स्नान मिल जाए और परम संतों की कृपा का दर्शन हो जाए। उन्हें संगम स्नान मिला और साधु-संतों के दर्शन भी। उन्हें इस बात से क्या मतलब कि कौन चमत्कार दिखाता है कौन नहीं। कौन चिमटा लेकर आम लोगों पर हमला कर देता है, कौन बड़ी-बड़ी बातें करता है। डिग्री धारक है। डिग्री और सुंदरता के कारण ही साधुओं की श्रेणी में जा बैठा है। हिंदू धर्म किसी पर यह पाबंदी नहीं लगाता कि वह आध्यात्मिक शिखर पर विराजमान ना हो। यह अधिकार हर किसी को है कि वह धर्माचार्य के पद पर आसीन हो सकता है और महामंडलेश्वर भी बन सकता है। इसके लिए न तो सुंदर, असुंदर की कोई पाबंदी नहीं है और न ही महिला पुरुष का भेद।

आदि गुरु शंकराचार्य को मंडन मिश्रा की पत्नी भारती से शास्त्रार्थ करना पड़ा था। वह इससे इनकार नहीं कर सके। गार्गी ने ऋषि याज्ञवल्क्य जैसे प्रकांड विद्वान को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया। इस विशाल धारा को बहने दीजिए। इस देश में ज्ञान और भक्ति वैराग्य की पूजा हुई है। आम जनमानस उसी का दीवाना है। संगम में स्नान के बाद संतों के चरण रज लेने दीजिए। गायत्री कश्यप जैसे करोड़ों भक्त इसी रज को लेने जाते हैं और संगम में डुबकी लगाना चाहते हैं यही उनका अंतिम लक्ष्य है। यहां भक्ति की धारा है और ग्लैमर की कोई जगह नहीं है। आपला को तो उनके पति ने इसलिए त्याग दिया था क्योंकि उन्होंने उनके शरीर में कोढ़ देख लिया था लेकिन उन्हीं आपला ने भक्ति और विद्वता के उस शिखर को पाया जहां बड़े-बड़े विद्वान भी उनके सामने नतमस्तक थे। संगम में गंगा यमुना और अदृश्य सरस्वती की पवित्र धारा को बहने दीजिए। इसी पर डुबकी लगाइए और संतों के चरण रज लीजिए। यह धारा अद्वितीय है अवर्णनीय है।

Related Articles

Back to top button