सैम अंकल का ढलान और ड्रैगन की उड़ान ?
नई दिल्ली (स्तम्भ) : वर्तमान वैश्विक व्यवस्था एक युगान्तकारी बदलाव के मुहाने पर खड़ी है,जिसके बारे में ठोस भविष्यवाणी भले ही ना कि जा सके लेकिन एक वस्तुगत अनुमान तो जरूर लगाया जा सकता है। 2008 की आर्थिक मंदी के बाद से वैश्विक सर्वोच्चता को लेकर अमेरिका और चीन में प्रतिस्पर्धा तेज़ हो गयी। इसी क्रम में कोरोना की आपदा ने अमेरिका को कमजोर करना और चीन को मजबूत करना शुरू कर दिया है। इसके पहले की सर्वोच्चता की इस लड़ाई को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखे तो उसके लिए पहले यह समझना जरूरी है कि आखिर अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बना कैसे। दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब जापान पर नाभिकीय हमले के जरिये अमेरिका को हार्ड पॉवर के रूप में सभी देशों ने स्वीकार कर लिया। इस सैन्य सर्वोच्चता को स्थायित्व देने के लिए नाटो,सीटो, सेंटो क जरिये अमेरिका पूरे विश्व मे अपने सैन्य गंठबंधन भी बनाये।वही अपनी आर्थिक सर्वोच्चता को बनाने के लिए अमेरिका ने जहाँ डॉलर को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में स्थापित करने में सफलता पाई,वही ब्रेटनवॉड्स संस्थाओ के गठन के जरिये अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर अपना वर्चस्व स्थापित किया।यही नही अमेरिका ने गैट वार्ता को शुरू कर मुक्त व्यापार की दिशा में कदम बढ़ाया और अमेरिकी कंपनियों ने कम समय मे ही पूरी दुनिया को अपना बाजार बना लिया ।
लेकिन अमेरिकी सर्वोच्चता का सबसे खास पहलू बना उसका सॉफ्ट पॉवर होना। जो विश्व मे उसकी सांस्कृतिक और वैचारिक वर्चस्वता को स्थापित कर गया। इसके लिए अमेरिकी कंपनियों ने विश्व मे उपभोक्तावादी संस्कृति पर आधारित अमेरिकन जीवन शैली को लोकप्रिय बनाया।विश्व की श्रेष्ठतम प्रतिभावों का अमेरिका में ही जमावड़ा हुआ। हॉलिवुड ने अमेरिका की फैंटेसी को पूरी दुनिया के आंखों में भर दिया।इस तरह सैम अंकल यानी अमेरिका पूरी दुनिया का सबसे ताकतवर देश बन पाया।
किंतु “अंत्तराष्ट्रीय समीकरण अब बहुत तेजी से बदल रहे है। कोरोना के सामने दुनिया की सबसे बड़ी ताकत को दुनियॉ लाचार होता देख रही है। देखा जाए तो अमेरिकी सर्वोच्चता को डेंट तो 2008 की आर्थिक मंदी के बाद ही लग गया था,लेकिन सही मायने में तो कोरोना ने अमेरिका की कमजोरियों को निशाना बनाया है,जहाँ उसके सामर्थ्य के अधिकांश हथियार धरे के धरे रह गए है।अमेरिका की आर्थिक, सैन्य,तकनीकी सर्वोच्चता फिलहाल उसे इस आपदा से बचने में मदद नही कर पा रही।उसकी स्वास्थ्य सेवाएं असहाय हो चुकी है।अर्थव्यवस्था महान मंदी की ओर जा रही है। हर 10 अमेरिकी मजदूर में 1 मजदूर का रोजगार खत्म हो चुका है। जबकि आपदा के इन क्षणों में अमेरिका के राजनीतिक दल राष्ट्रपति चुनाव में अपनी सम्भवनाओ को लेकर अधिक चिंतित दिखाई दे रहे है। रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दोनों के बीच तीखी नोक छोक हो रही है।यही कारण है पाल कुरगमेंन जैसे विचारक मानते है कि अमेरिका में अब तो लोकतंत्र भी खतरे में आ चुका है।”
तो ऐसे में अनुमानों का बाजार तेज़ हो चुका है कि क्या अब ड्रैगन अपनी उड़ान से सैम अंकल को परास्त कर पायेगा। इसी संदर्भ में फाइनेंशियल टाइम्स के विदेशी मामलों के टिप्पणीकार गिडिअन राशमैन ने 13 अप्रैल के अपने मे लेख में ऐसे ही कुछ प्रश्न उठाये। उनके अनुसार
विश्व की कौन सी मुद्रा पर आप सबसे अधिक भरोसा करते है ? और अपने गृहदेश के बाहर किस देश मे आप अपने बच्चों को विश्वविद्यालय पढ़ने या काम करने के लिए भेजना चाहेंगे।उनके अनुसार विश्व के अधिकांश मध्यमवर्गीय लोगो का जवाब होगा – मुद्रा के रूप में डॉलर और देश के रूप मे अमेरिका। लेकिन उनका अगला सवाल है कि क्या इस आपदा के बाद भी यह स्थिति बनी रहेगी ? क्या पोस्ट कोरोना विश्व मे भी अमेरिका की यह सर्वोच्चता बनी रहेगी।
ऐसे में यह सम्भावना मजबूत हो रही है की इस आपदा के बाद अमेरिका विदेशियों के लिए कम आकर्षक हो जाये और यदि ऐसा होगा तो इसके लिए कई कारण जिम्मेदार होंगे।
पहला, अमेरिका में बढ़ता जेनोफोबिया जो नस्लीय हिंसा और भेदभाव को बढ़ावा दे सकती है। यह अमेरिका में प्रवासियों के विरोध के भाव को मजबूत करेगा।
दूसरा, अमेरिका में आने वाली महान आर्थिक मंदी की आहट। क्योंकि कोरोना आपदा से निकलने के क्रम में डॉलर पर विश्व के विश्वास का भी क्षरण होने वाला है। अमेरिकी सरकार के द्वारा इस आपदा से बचाव के लिए जारी किया गया 2 ट्रिलियन डॉलर का स्टिमुलस पैकेज अमेरिका के राष्ट्रीय ऋण को बढ़ाएगी,जो पिछले कुछ वर्षों में लगातार बढ़ता गया है।इसी दौरान फेडरल रिजर्व बैलेंस शीट का खर्चा लगतातर बढ़ता ही जा रहा है,क्योंकि इससे न केवल ट्रेजरी बांड खरीदे जा रहे है,बल्कि कॉरपोरेट ऋण की भी क्षतिपूर्ति की जा रही है। समस्या यह है कि अभी तक अमेरिका को अनेक मोर्चे पर चुनौती मिलती रही है,लेकिन अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रुप में डॉलर की सर्वोच्चता बनी रही थी। जो उसकी राजनीतिक सर्वोच्चता को बनाये रख रही है और अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों पर बढ़त बनाये रखने का जरिया थी,अमेरिका किसी देश या कंपनी को डॉलर व्यवस्था से बाहर करने के प्रतिबन्ध का इस्तेमाल करता रहा है।इसका सबसे बड़ा उदाहरण ईरान,वेनेजुएला या रूस है ।
तीसरा, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है अमेरिका में राजीनीति स्वतंत्रता के सामने बढ़ता संकट। यह स्वास्थ्य संकट राज्य की अनियंत्रित शक्ति का बड़ा आधार बन सकता है,जहा सर्वाधिक महत्वपूर्ण अमेरिकी जीवन मूल्य यानी गोपनीयता की स्वतंत्रता पर सरकार का हस्तक्षेप बढ़ सकता है।
चौथा, अंतरराष्ट्रीय संस्थाओ से अमेरिका की बाहर निकलने की प्रवित्ति और वैश्विक जिम्मेदारियों से बचने के उसके प्रयास उसकी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में बने हुए वर्चस्व को कमजोर करेंगे। विशेषकर हाल ही में जिस प्रकार उसने WHO की फंडिंग को रोकने की घोषणा की है,वह उसे वैश्विक समुदाय से दूर कर सकता है।
दूसरी तरफ ड्रैगन यानी चीन ने अपनी वैश्विक सर्वोच्चता स्थापित करने की कोशिश 2008 की वैश्विक मंदी के बाद से ही शुरू कर दी थी,लेकिन 2008 के बाद अमेरिका की आर्थिक सर्वोच्चता को भले ही चोट पहुंची हो पर यह उसके वैचारिक सांस्कृतिक वर्चस्व के कारण विश्व के पुलिसमैन के रूप में अमेरिका की स्वीकार्यता बनी रही।
इन परिस्थितियों के बीच पोस्ट कोरोना से प्रभावित विश्व मे चीन की सर्वोच्चता क्या स्थापित हो पाएगी! इसका जवाब निम्नलिखित प्रश्नों के सम्बन्ध में चीनी सरकार की नीतियों पर निर्भर करेगा:
- हार्ड पॉवर के रूप में तो चीन आज बेहद मजबूत दिखाई देता है,पर सवाल यह है कि क्या उसे सॉफ्ट पॉवर के रुप में स्वीकार्यता मिल पाएगी?क्योंकि इसी पर उसका ग्लोबल सुपर पावर बनने का सपना निर्भर करेगा।इसीलिए चीन इस बात के लिए संघर्ष कर रहा है कि कम से कम चीन की श्रेष्ठ प्रतिभाएं चीन में ही रहकर काम करे।चीन फिलहाल “Thousand Talents” कार्यक्रम के जरिये विश्व के शीर्ष शिक्षाविदों को बेहतरीन सैलरी और रिसर्च फैसिलिटी देकर आकर्षित करने का प्रयास कर रहा है।लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि अनेक शिक्षाविद जो अमेरिका से चीन लौटे थे,वह चीन के राजनीतिक परिवेश से खिन्न होकर फिर वापस चले गए।
- इसी प्रकार कोरोना आपदा के समय अपनी छवि सुधार एजेंडे के तहत मेडिकल डिप्लोमेसी भी चीन ने तेज़ की है,पर अनेक देश उसके मेडिकल उपकरणों की गुणवत्ता पर सवाल उठाते दिख रहे है।चीन के प्रति यह वैश्विक विश्वास संकट क्या उसे इतना सक्षम बना पायेगा की वह अमेरिकी सर्वोच्चता को चुनौती दे पाए?
- 1945 के बाद अमेरिका ने स्वतंत्रता,मानवाधिकार और बाजारवाद पर आधारित जिन उदार लोकतांत्रिक मूल्यों को विश्व मे स्थापित किया था,क्या पोस्ट कोरोना विश्व मे चीन ऐसे किसी वैकल्पिक राजनीतिक आर्थिक मूल्यों को स्थापित कर पायेगा?
- क्या जिस प्रकार अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से अमेरिका बाहर निकल रहा है, उस परिस्थिति में चीन नव विकास बैंक,AIIF, SCO के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को अपने नियंत्रण में आकार देने में सक्षम हो पायेगा ? इन सब स्थितियों परिस्थितियों पर अभी किसका पलड़ा भारी होगा यह जल्द ही तय हो जायेगा।
(लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ है)