शिवसेना को मुम्बई दहेज में नहीं मिली है !!
स्तंभ: विखंडित शिवसेना के दोनों घटकों (ठाकरे-शिंदे) गत् मंगलवार, दशहरा, चार अक्टूबर 2022, में हुयी गला काट होड से हर राष्ट्रवादी को प्रमुदित होना चाहिये। मैं इस गहरे उठापटक का गत दिनों मुंबई में मूक साक्षी रहा। ठीक ऐसी ही मारधाड़ हुयी थी पांच हजार साल पूर्व द्वारका में जब यदुवंशी भिड़े थे, नष्ट हो गये थे। मगर वह कुपित और व्यथित गांधारी के शाप का अंजाम था। राजमद ही केवल कारण रहा। महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना भी तमिलनाडु के द्रमुक, लालू यादव के ‘‘भूरा बाल उखाड़ो‘‘ (सवर्ण पार्टियों के खिलाफ मुहिम) और कश्मीर में पंडितों के विरूद्ध चला हिंसक अभियान का ही एक क्रूर रूप था।
इतिहास बताता है कि मुंबई द्वीपक्षेत्र पुर्तगाली राजकुमारी ब्रंगाजा की कैथरीन के साथ विवाह में दहेज के रूप में (23 जून 1661) ब्रिटिश राजा चार्ल्स द्वितीय को दिया गया था। इसी उदाहरण को मुम्बई प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष तथा नेहरू काबीना में खाद्य मंत्री रहे स्व. सदाशिव पाटिल कहा करते थे कि: ‘‘बम्बई नगर इन मराठों को दहेज में नहीं मिला है। यह हर भारतीय का है।‘‘ वे स्वयं मराठा थे। सदा विरोधी रहे रक्षामंत्री यशवंत चह्वाण के, जो ‘‘आमची मुम्बई‘‘ के प्रतिपादक थे।
यूं तो यही अपेक्षा थी निर्वाचन आयोग से कि वह दोनों भी चुनाव चिह्न देने से इंकार कर देगा, मगर तीखा व्यंग होता यदि एक गुट को तीर और दूसरे को कमान बांट देता। यूं शिवसेना का निशान है धनुष-बाण। गदा तथा तलवार ज्यादा उपयुक्त रहता। चुनाव चिह्न के आवंटन में आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि नवम्बर 3 को उपनगरी अंधेरी से विधानसभा उपचुनाव भी है। मगर उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है मुम्बई महानगर पालिका के मतदान। यहां अरबों का बजट होता है। यह उद्धव सेना की वित्तीय संजीवनी है। विश्व राजनीति में (सिवाय हिटलर की नाजी पार्टी के) शायद ही कोई राजनीतिक पार्टी निखालिस नफरत और जातिविग्रह पर बनी हो। शिवसेना का लक्ष्य हिन्दी-विरोधी (अंध मराठी भक्ति) है। फिर गुजरातियों से द्वेष है। दक्षिणभाषियों को भगाने की यह पैरोकार है। अब भले ही मुसलमानों से नवसृजित प्यार उमड़ रहा हो। इसके सांसद और पार्टी दैनिक ‘‘सामना‘‘ के संपादक-सांसद संजय राउत का मशहूर लेख है कि: ‘‘भारतीय मुसलमानों को मताधिकार से वंचित कर दिया जाये।‘‘ आजकल राउत जेल में है, धनसंशोधन के घृणित जुर्म में।
रिक्शा चालक से मुख्यमंत्री बने एकनाथ शिंदे और चित्रकारी शिक्षा के बाद राजनेता बने उद्धव ठाकरे में गत सप्ताह एक ही समय, सात किलोमीटर के फासले पर बने मैदान (दादर के शिवाजी पार्क में ठाकरे द्वारा तथा बांद्रा-कुली संकुल में शिंदे द्वारा) आयोजित रैलियों के चंद उद्गार सुनें। ठाकरे ने कहा कि उन्होंने इस रिक्शाचालक को काबीना मंत्री नामित किया था। उनके पुत्र को सांसद बनवाया था। फिर ठाकरे ने शिंदे-पौत्र श्रीकांत का नाम लिया जो मात्र अठारह माह का शिशु हैं। ठाकरे ने कहा कि शिंदे श्रीकांत को महानगर पार्षद बनाना चाहता है। इस तंज पर दहला चलते हुये शिंदे ने अपने मंच पर उद्धव के अग्रज जयदेव, उनकी पत्नी स्मिता ठाकरे, भतीजे, निहार बिंदु माधव ठाकरे को मंच पर बैठाया। उद्धव के तीन चौथाई कुटुंबीजन तो बागी शिंदे की सभा में थे।
उद्धव के साथ उनका पुत्र और उनकी काबीना में पर्यावरण मंत्री रहे आदित्य थे। उद्धव की धर्मपत्नी, पूर्व सिने सितारिका, अब संपादिका लावण्यमयी रश्मि पाटंकर-ठाकरे पर शिंदे का आरोप है कि उनके विभाग में लगातार वे हस्तक्षेप करतीं रहीं। शिंदे का अलग पार्टी रचने का यह खास कारण रहा। शिंदे नगर निर्माण मंत्री थे, जो महाराष्ट्र में महंगे भूभाग का सबसे बड़ा जमींदार है। फिलहाल नयी पीढ़ी को अवगत होना चाहिये कि प्रगतिशील, वामपंथी, सर्वदेशीय, विविधता-प्रधान मंुबई क्रमशः भाषावादी, घोर अवर्णप्रिय, सकीर्णतम प्रदेशवादी कैसे हुआ? यह गत अर्द्धशती की गाथा है। तब मुम्बई को लघुभारत माना जाता था। जंगे आजादी का गढ़ रहा। संदर्भ 1966 के ग्रीष्मकाल का है। युवा बाल प्रबोंधकर ठाकरे अंग्रेजी दैनिक ‘‘फ्री प्रेस जर्नल‘‘ के कार्टूनिस्ट थे। यदाकदा ‘‘टाइम्स आफ इंडिया‘‘ के लिये भी कार्टून बनाते थे। हालांकि आरके लक्ष्मण ही प्रधान कार्टूनिस्ट थे। उनके साथ काम करने का मुझे अवसर मिला था।
हमारे यूपी प्रेस क्लब (लखनऊ) में भी ‘‘मैं कैसे चित्रित करता हूं‘‘ विषय पर बोलने लक्ष्मण आ चुके हैं। तब तक बाल ठाकरे उग्र हिन्दूवादी नहीं हुये थे। वे और श्रमिक नेता जॉर्ज फर्नांडिस ने एक दैनिक भी निकाला था। फिर बाल ठाकरे ने अपनी निजी पत्रिका ‘‘मार्मिक‘‘ निकाली। इसी पत्रिका को जाति और धर्म विग्रह का भीषण माध्यम बनाकर बाल ठाकरे ने शिवसेनारूपी राजनीतिक प्रेत को जन्माया। महाराष्ट्र में समावेशी समाज का विघटन वहीं से प्रारम्भ हुआ। ‘‘महाराष्ट्र केवल मराठी-भाषियों‘‘ के लिये वाले अभियान के पूर्व बाल ठाकरे के कट्टरवादी पिता केशव सीताराम ठाकरे उर्फ प्रबोंधकर ठाकरे ने ब्राह्मणवादी पर्व गणेशोत्सव के मुकाबले ‘‘श्री शिवभवानी नवरात्रि महोत्सव‘‘ शुरू किया था। गैर-ब्राह्मणों को एकसूत्र में पिरोकर यह जनसंघर्ष अंततः समस्त गैरमराठियों के विरूद्ध मोर्चा बन गया। शिवसेना के नाम से एक संकीर्ण विचारधारा का गुट 19 जून 1966 को मुम्बई में स्थापित हुआ। तब ‘‘टाइम्स आफ इंडिया‘‘ के एक रिपोर्टर के नाते मैं इस घातक घटनाक्रम का प्रत्यक्षदर्शी रहा। उसी समय से दक्षिण भारतीय, खासकर कन्नड उडिपि होटल, बिहार-यूपी के रहनेवाले हॉकर्स, खोंचेवालों, आटो ड्राइवरों इत्यादि पर शारीरिक हमले जारी हो गये। फिर फिल्मी सितारों का भयावदोहन शुय हुआ। अमिताभ बच्चन तो बाल ठाकरे से क्षमा याचना तक कर चुकें हैं। इसी पैतिृक परम्परा का परिणाम रहा कि शिवसेना की समानांतर शासकीय व्यवस्था बना दी गयी। फिर विधानसभा तथा संसद के चुनाव में भागीदारी आयी।
तभी की घटना है। केन्द्रीय चुनाव आयोग का निर्देश आया कि हर राजनीतिक पार्टी को अपना संगठनात्मक मतदान भी कराना पड़ेगा। पहले तो बाल ठाकरे ने गरज कर मना कर दिया, मगर तत्कालीन केन्द्रीय निर्वाचन आयुक्त डा. जीवीजी कृष्णमूर्ति ने साफ निर्देश दिया कि आंतरिक चुनाव नहीं हुये तो पंजीकरण निरस्त होगा। बाघ का निशानवाली शिवसेना का यह शेर तब मिमियाने लगा। खाना पूर्ति द्वारा फर्जी मतदान दिखा दिया। डा. कृष्णमूर्ति मेरे गांव चीराला (आंध्र प्रदेश) के वासी, मेरे फुफेरे अग्रज थे। इस पूरी गाथा का अचरजभरा पहलू है कि मुसलमानों के मित्र शरद पवार ने शिवसेना से तालमेल बिठा कर खिचड़ी सरकार बना डाली। बाल ठाकरे कई बार शरद पवार को ‘‘ दाउद इब्राहीम का मित्र‘‘ करार दे चुके हैं।
अर्थात ऐतिहासिक शिवाजी मैदान में दशहरा पर जो हुआ वह भारत के हित में कतई नहीं है। विघटनकारी योजना थी। मोदी के लोगों को उद्धव ठाकरे के गत विधानसभा चुनाव का अभियान वाले शब्दों को याद रखना चाहिये। तब गर्व से उद्धव ने एक जनसभा में कहा था कि ‘‘अब स्वयं दामोदरदास भी आ जाये तो भी भाजपा नहीं जीतती।‘‘ नरेन्द्र मोदी के स्वर्गीय पिता थे दामोदरदास। अर्थात भागवत पुराण वाले कृष्णभक्त उद्धव जैसे धर्मभीरू यह पूर्व मुख्यमंत्री नहीं हैं। ये ठाकरे उद्धव हैं जिन्हें सत्ता प्यारी हैं, जितनी कामी पुरूष को नारी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)