अद्धयात्मदस्तक-विशेष

राम को साधने का साधन हैं शिव

भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त:स्थमीश्वरम।।

रामचरित मानस के प्रारम्भ में ही तुलसीदासजी ने शिव और पार्वती की वंदना की है। शिव की कृपा के बिना हृदय में बसने वाले ईश्वर का साक्षात्कार असम्भव है, ऐसा बलपूर्वक कहा है। रामायण में राम को ही हृदयस्थ ईश्वर कहा गया है। इस प्रकार शिव-पार्वती की कृपा से राम का दर्शन होता है, यह बात सिद्ध हुई, अर्थात राम साध्य हैं और शिव साधन। यह मानस का सिद्धान्त है। इसी तथ्य को स्पष्ट शब्दों में भी कहा है-
सिव सेवा कर फल सुत सोई। अबिरल भगति राम पद होई।।
अत: शिव कृपा से ही राम भक्ति मिलती है और रामभक्ति की रूपरेखा इन शब्दों में व्यक्त की गई है-
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुं ताकें।।
अर्थात जिनके हृदय में राम की भक्तिरूपी मणि रहती है, उसे स्वप्न में भी दु:ख नहीं होता। यह दुख लवलेशविहीन अवस्था की मांग प्राणिमात्र की मौलिक मांग है, जीवन का लक्ष्य है और इस मांग की पूर्ति शिव-पार्वती की कृपा से ही संभव है। यदि राम दुख लवलेशविहीन अवस्था हैं तो शिव-पार्वती भक्ति और ज्ञानरूपी साधन है जिनके द्वारा दुख दूर होता है। इस प्रकार साधन-तत्व दो भागों में विभाजित है- एक है विचार प्रधान और दूसरा भावना प्रधान, या यों कहिये कि साधना के दो मार्ग हैं। एक है ज्ञान या विश्लेषण का मार्ग जिसे श्रद्धा अथवा सत्य की खोज का मार्ग भी कहते हैं, और दूसरा है भक्ति या सरल विश्वास का मार्ग।
भगवत् साक्षात्कार के लिए अंत में दोनों आवश्यक हैं अर्थात जानने वाला मान जाता है और मानने वाला जान जाता है। यही अद्र्धनारीश्वर के स्वरूप का रहस्य है। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रीरामचरितमानस में पार्वतीजी को विचार प्रधान तथा शिवजी को भावना प्रधान साधक के रूप में चित्रित किया गया है। विचार प्रधान साधना के लिए सबसे पहले यह जरूरी है कि साधक को अपनी वर्तमान विचारधारा में अविश्वास या संदेह पैदा हो जाए, क्योंकि अपनी वर्तमान धारणा में असंतोष या अविश्वास अथवा संदेह हुए बिना खोज या विश्लेषण की प्रवृत्ति जागृत नहीं हो सकती। मानस के पार्वती चरित्र पर ध्यान देते ही यह पता चलता है कि पहले उनका विचार था-
ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद।

परन्तु जब उन्होंने शिवजी के मुख से सुना-जय सच्चिदानन्द जग पावन। तो अपनी वर्तमान जानकारी में सन्देह उत्पन्न हो गया। उनके सामने एक समस्या आ खड़ी हुई। एक ओर जहां उनका यह विचार था कि चराचर में व्याप्त सत्ता का एक रूप में अवतार नहीं हो सकता, वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपनी आंखों से प्रत्यक्ष देखा कि शिवजी ने, श्रीराम, जो जानकी के वियोग में अज्ञानियों की तरह विकल हो रहे थे, प्रणाम किया और उनकी छवि को देखकर आनन्द-मग्न हो गये। इस समस्या ने ही सती की वर्तमान विचारधारा में संदेह उत्पन्न कर दिया जिससे उनके अंदर श्रद्धा या खोज की प्रवृत्ति जागृत हुई और वह सत्य की खोज करने को उद्यत हुईं। शिवजी को जब सती की इस आन्तरिक उलझन का बोध हुआ तो उन्होंने सती को अनेक प्रकार से यह समझाने का प्रयत्न किया कि वे श्रीराम को भगवान मान लें।
मुनिधीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं।।
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी।।

परन्तु-
लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिव बार बहु।
ऐसा होना स्वाभाविक ही था क्योंकि सती की विचारधारा शिव की विचारधारा से सर्वथा भिन्न है। जहां शिव भक्ति या सरल विश्वास से अर्थात् किसी को हृदय से मानकर उसके दर्शन की इच्छा करते हैं, वहां सती अपनी बुद्धि द्वारा पूरी जानकारी प्राप्त करने के बाद ही उसे मानने को तैयार होती हैं। जब शिव और सती के विचार अथवा मार्ग में इतना मौलिक अंतर है तो भला सती शिव की बातों को बिना समझे-बूझे मानने को कैसे तैयार होतीं। अत: वे शिवजी की आज्ञा पाकर उनकी बातों की सच्चाई की परीक्षा लेने चली।
(पूज्य ‘योगीजी’ के प्रवचनों से संकलित)

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