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नीतीश की विपक्षी एकता मुहिम में रोड़े बनेंगे छोटे दल! दिल्ली में बढ़ी सियासी हलचल

नई दिल्ली : जनता दल (यूनाइटेड) नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विपक्षी एकता अभियान के तहत दिल्ली दौरे ने सियासी हलचलें बढ़ा दी है। विपक्षी नेताओं के बीच तो बैठकों के दौर जारी हैं ही, भाजपा (BJP) भी इस पर नजर रखे है। दरअसल अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा की तैयारियां पहले ही शुरू हो चुकी हैं, लेकिन भावी रणनीति काफी कुछ विपक्ष की स्थिति पर निर्भर करेगी। भाजपा रणनीतिकारों का मानना है कि इसमें सबसे अहम भूमिका क्षेत्रीय दलों की होगी, जिनके साथ भाजपा भी संपर्क बनाए हुए है।

नीतीश कुमार की दिल्ली यात्रा से एक बात साफ तौर पर उभरी है कि भाजपा को चुनौती एकजुट होकर ही दी सकती है और इस पर सभी सहमत भी हैं, लेकिन नेतृत्व व राज्यवार तालमेल के पेच सबसे कठिन मुद्दा है। इस बार नीतीश के आने के अलग मतलब हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के बुलावे पर वह आए हैं। यानी खुद कांग्रेस इसकी पहल कर रही है। जदयू नेताओं का कहना है कि क्षेत्रीय दलों को साथ रखना जरूरी है और उसके लिए रणनीति भी राज्यवार होनी चाहिए। जहां जो मजबूत हो, वहां उसे प्रमुखता देनी चाहिए।

विपक्ष की इस कवायद से भाजपा बहुत विचलित नहीं है, लेकिन वह सतर्क भी है। भाजपा के एक प्रमुख नेता ने कहा कि विपक्ष के अपने अंतर्विरोध इतने ज्यादा हैं कि भाजपा को चुनौती देने की स्थिति नहीं है। कांग्रेस अब उतनी मजबूत नहीं है। वहीं क्षेत्रीय दलों में से कई की भाजपा के साथ भी अच्छी समझ है और वह भले ही विपक्षी खेमे में हों, लेकिन कांग्रेस के साथ नहीं हो सकते। इसके अलावा नीतीश को लेकर अब विश्वास का संकट भी रहेगा। बार-बार पाला बदलने से उनकी छवि भी प्रभावित हुई है।

विपक्षी खेमे में मजबूत क्षेत्रीय ताकतें द्रमुक, राकांपा, बीजद, बीआरएस, वायएसआरसीपी, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी प्रमुख शामिल हैं। भाजपा नेताओं का कहना है कि बीजद व वायएसआरसीपी के कांग्रेस के साथ जाने की संभावना न के बराबर है, बल्कि वह भाजपा के साथ खड़े हो सकते हैं। तणमूल कांग्रेस, राकांपा व आम आदमी पार्टी कथित विपक्षी एकता के कितने साथ होंगे, साफ नहीं है। द्रमुक कांग्रेस के साथ है, लेकिन हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेन्नई दौरे में मुख्यमंत्री स्टालिन ने जो गर्मजोशी दिखाई, उसके संकेत भी काफी अहम हो सकते हैं। बीआरएस जरूर विपक्षी खेमे में रहेगी।

सूत्रों के अनुसार भाजपा ने अपनी चुनावी तैयारियों में विपक्षी खेमे को भी ध्यान में रखा है। जगदीप धनखड़ के उपराष्ट्रपति बनने के बाद ममता बनर्जी के साथ पहले जैसा टकराव अब नहीं दिखता है। शरद पवार स्थितियों को लेकर फैसले लेते हैं।

सपा और बसपा ने अभी तक अपनी स्थिति साफ नहीं की है। इसके अलावा दोनों एक साथ किसी खेमे में शायद ही हों। सपा भले ही भाजपा के खिलाफ रहे, लेकिन बसपा अपने लाभ के लिए मौका पड़ने पर लचीला रुख अपनाएगी।

महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और पंजाब में अकाली दल की ताकत कमजोर हो चुकी है। दोनों दल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे में उनके लिए विपक्षी एकता व भाजपा विरोध बहुत ज्यादा मायने नहीं रखता। वह ज्यादा असर भी नहीं डाल पाएंगे। हालांकि उनका एक समर्थक वर्ग है। वह इनके कमजोर होने पर अपना नई पसंद खोज सकता है।

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