मदर ऑफ इंडियन रिवोल्यूशन मैडम भीखा जी कामा की जयंती पर उनसे जुड़े ख़ास पहलू
दस्तक विशेष ( विवेक ओझा ) : ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ जब स्वदेशी आंदोलन भारतीय राष्ट्रवाद की नसों में स्वाधीनता के लिए प्रतिरोधक टीका बनने की तैयारियां कर रहा था , उस समय सबसे बड़ी जरूरत थी राष्ट्रीय चेतना को जगाने की। उस चेतना की कि भारतीय सक्षम हैं , समर्थ हैं आत्मनिर्भरता और आत्मनिर्धारण की राह पर चलने के लिए। स्वदेशी आंदोलन के दौर में देश में क्रांति एक युवा धर्म के रूप में स्वाधीनता सेनानियों का एक विज़न बनता जा रहा था । इस क्रांति को अभिव्यक्त करने वाले तौर तरीके खोजे जा रहे थे। कहीं बहिष्कार का अस्त्र दिख रहा था तो कहीं देश का अपना झंडा बना कर उसे फहरा देने के पुरजोर प्रयास किये जा रहे थे। इसी कड़ीं में क्रांति के जरिये राष्ट्रीय शक्ति को टटोलने की कोशिश हो रही थी। इसमें अनेकों क्रांतिधर्मी अपना अपना योगदान देने में लगे थे। हिन्दू , मुस्लिम , सिख , ईसाई , पारसी हर समुदाय के लोग भारत के स्वदेशी आंदोलन को अपने अपने योगदान के जरिये एक सफल मिशन बनाने की आकांक्षा से युक्त थे। इस क्रांतिकारिता की यात्रा को जिस महिला ने नारी संघर्ष की गाथाओं से जोड़ने की नींव रखी , वों थीं मैडम भीखा जी कामा। शायद यही वजह थी कि उन्हें ” मदर ऑफ इंडियन रेवोल्यूशन” कहा जाता है। मैडम कामा वो पहली भारतीय महिला थीं जिन्होंने विदेशी जमीन पर 22 अगस्त 1907 को भारत का पहला झंडा फहराया था और यह तिरंगा झंडा था।
मैडम भीखा जी का बचपन और पारिवारिक पृष्ठभूमि:
भीखाजी कामा का जन्म 24 सितंबर, 1861 को मुंबई में एक पारसी परिवार में हुआ था। मैडम कामा के पिता सोराबजी पटेल मशहूर व्यापारी थे और उनकी माता जाईजीबाई पटेल एक गृहणी थीं। भीखाजी के 9 भाई-बहन थे। उन्होंने अपनी शिक्षा एलेक्जेंड्रा नेटिव गर्ल्स संस्थान में हासिल की थी। यह स्कूल 1863 में मनोकजी कुर्सेटजी श्रॉफ ( 1808- 1887) द्वारा बनवाया गया था जो एक बड़े समाज सुधारक और स्त्री शिक्षा के मुखर चैंपियन थे। मुंबई के हजारीमल सोमानी मार्ग पर स्थित यह स्कूल भीकाजी कामा की प्रबल बुद्धि का गवाह बना। वर्ष 1885 में भीखाजी कामा ने रुस्तम कामा से विवाह किया जो कि एक वकील और पारसी समाज सुधारक थे। रुस्तम कामा खरशेदजी रुस्तम जी कामा के पुत्र थे। खरशेदजी कामा के. आर. कामा इंस्टीट्यूट ऑफ ओरिएंटल स्टडीज के संरक्षक थे। रुस्तम कामा और मैडम भीखाजी के ब्रिटिश शासन पर विचारों में काफी अंतर था। रुस्तमजी कामा ब्रिटिश सरकार के हिमायती थे और भीकाजी एक मुखर राष्ट्रवादी थीं। वर्ष 1885 में इंडियन नेशनल कांग्रेस की पहली बैठक आयोजित की गई थी और उस बैठक में मैडम भीखाजी कामा ने भाग लिया था।
ऐसी महिला जिन्हें थी भारतीयों के स्वास्थ्य की चिंता :
सितंबर, 1896 में मुंबई में एक बहुत भीषण दुर्भिक्ष आया और उसके पहले प्लेग की महामारी आई। प्लेग के पहले वर्ष में मुंबई में जमशेदजी जीजीभाय यानी जेजे हॉस्पिटल में बीमारी और उसके उपचार के परीक्षण के लिए एक रिसर्च लेबोरेटरी खोली गई थी। मैडम भीकाजी कामा ने अपने को उस टीम से जोड़ा जो जमशेदजी जीजीभाय हॉस्पिटल में लोगों के देखभाल के लिए लगी थी। दुर्भाग्य से वह खुद प्लेग की चपेट में आ गईं और इतनी कमजोर हो गईं कि वर्ष 1902 में उन्हें अपने मेडिकल केयर के लिए लंदन जाना पड़ा। बॉम्बे के गवर्नर ने एक बैक्टीरियोलॉजिस्ट डॉक्टर वाल्डेमर मोरडेकाइ हॉफकाइन को प्लेग महामारी की विकट स्थिति को देखते हुए बुलाया। हॉफकाइन इसके पहले कॉलरा के इलाज के लिए एक वैक्सीन की खोज कर चुके थे और इसीलिए अब उन्हें मुंबई के प्लेग महामारी से निपटने में मदद देने के लिए बुलावा भेजा गया था । वर्ष 1896 में मुंबई में ब्यूबोनिक प्लेग से निपटने के लिए पहला वैक्सीन जमशेदजी जीजीभाय ( जेजे हॉस्पिटल) अस्पताल के फार्माकोलॉजी रूम में परीक्षण करते हुए तैयार किया गया। जिस रूम में यह तैयार किया गया उसे रूम 000 नाम दिया गया था और यहीं पर हाफकाइन के पारसी असिस्टेंट नौसरवानजी सर्वेयर ने पहले प्लेग वैक्सीन की सुरक्षा के परीक्षण के लिए हाफकाइन को यह टीका लगाया था। हॉफकाइन पर वैक्सीन का परीक्षण सफल रहा और वैक्सीन पूर्ण रूप से तो नही पर आंशिक रूप से सफल रही।
राष्ट्रप्रेम से सराबोर भीखाजी की लंदन में सक्रियता :
वर्ष 1902 में भीखा जी लंदन गईं थीं और लंदन में वह सुप्रसिद्ध भारतीय राष्ट्रवादी श्यामजी कृष्ण वर्मा और दादा भाई नौरोजी से मिली। दादाभाई से उनकी मुलाकात श्याम जी कृष्ण वर्मा के जरिये हुई थी। दादाभाई उस समय इंडियन नेशनल कांग्रेस के ब्रिटिश कमेटी के प्रेसिडेंट थे। इससे पूर्व दादा भाई नौरोजी लंदन गए थे जहां वह मैडम भीकाजी कामा की परिवार के लंदन ऑफिस के साथ काम करना चाह रहे थे और यह इंग्लैंड में पहला इंडियन बिजनेस फर्म था । दादा भाई नौरोजी अपना खुद का बिजनेस भी वहां खड़ा करना चाहते थे और उसके बाद उन्होंने ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस के सदस्य बनने के लिए चुनाव लड़ा था। दादा भाई नौरोजी ब्रिटेन की संसद का चुनाव लड़ने वाले पहले एशियाई थे और लंदन के फिन्सबरी से हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए सांसद चुने गए थे। लंदन में रहते हुए भीकाजी ने दादा भाई नौरोजी के निजी सचिव के रूप में भी काम किया था। मैडम भीकाजी कामा 1905 में दादा भाई नौरोजी की सचिव बनी थीं। इन दोनों ने ही श्यामजी कृष्ण वर्मा को इंडियन होम रूल सोसाइटी को स्थापित करने में अपना सहयोग प्रदान किया था। लंदन में मैडम भीकाजी कामा ने लंदन के हाइड पार्क में भारतीय स्वतंत्रता की वकालत करने वाले उत्तेजक भाषण दिए थे उन्होंने कहा था कि” रेसिस्टेंस टू टायरेनी इज ओबिडिएंस टू गॉड”। उनका यह उद्धरण उनके मैक्सिम गोर्की को लिखे गए पत्र में सुरक्षित है। नंबर और अक्टूबर 1912 में उन्होंने मैक्सिम गोर्की के साथ पत्राचार किया था जो आज गोर्की आर्काइव्स में सुरक्षित है जिसमें मैडम भीकाजी कामा की एक फोटो और भारतीय क्रांति के उनके झंडे की फोटो भी मौजूद है। इस दौर में उन्होंने वीडी सावरकर, एमपीटी आचार्य और लाला हरदयाल समेत कई क्रांतिकारियों के साथ काम किया था।
भारतीय झंडे के निर्माण के जरिये राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति :
भीखा जी ने 1905 में विनायक दामोदर सावरकर और श्यामजी कृष्ण वर्मा की मदद से भारत के ध्वज का पहला डिजाइन तैयार किया। भीखाजी ने जो पहला झंडा लहराया था, उसमें देश के विभिन्न धर्मों की भावनाओं और संस्कृति को समेटने की कोशिश की गई थी। उसमें इस्लाम, हिंदुत्व और बौद्ध मत को प्रदर्शित करने के लिए हरा, पीला और लाल रंग इस्तेमाल किया गया था। साथ ही उसमें बीच में देवनागरी लिपि में ‘वंदे मातरम’ लिखा हुआ था। झंडे में हरी पट्टी पर बने आठ कमल के फूल भारत के आठ प्रांतों को दर्शाते थे। लाल पट्टी पर सूरज और चांद बना था। सूरज हिन्दू धर्म और चांद इस्लाम का प्रतीक था। ये झंडा अब पुणे की केसरी मराठा लाइब्रेरी में सुरक्षित रखा गया है। 22 अगस्त 1907 को मैडम भीखा जी कामा ने जर्मनी के स्टुटगार्ट में आयोजित इंटरनेशनल सोशलिस्ट कॉन्फ्रेंस में भाग लिया था जहां उन्होंने भारत में प्लेग और दुर्भिक्ष से आई विनाशकारी त्रासदियों को लोगों के सामने रखा। ब्रिटिश लेबर पार्टी के नेता रैम्जे मैकडोनाल्ड नहीं चाहते थे कि भीखा जी कामा स्टुटगार्ट सम्मेलन को संबोधित करें , इसलिए उन्होंने इस बात का विरोध किया जबकि ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल के एक अन्य सदस्य जोरिस ने मांग की कि भीखा जी को इस सम्मेलन में अपने विचार अभिव्यक्त करने दिये जायें। उन्होंने अपने उद्बोधन भाषण में भारतीय स्वाधीनता , मानवाधिकार , समानता की मांग ब्रिटिश शासन से की। भारत के झंडे को लहराते हुए उन्होंने कहा था , ” यह भारतीय स्वाधीनता का झंडा है। इसे पकड़ों ! यह जन्म ले चुका है। यह उन युवा भारतीयों के रक्त से पवित्र हो चुका है जिन्होंने अपने जीवन का त्याग कर दिया। इस भारतीय स्वाधीनता के झंडे को ऊंचा उठाने और इसका अभिवादन करने के लिए मैं आप लोगों का आवाहन करती हूं। मैं विश्व के सभी स्वतंत्रता प्रेमियों से इस झंडे का समर्थन करने की अपील करती हूं”।
मैडम भीकाजी कामा की एक भारतीय झंडे के साथ तस्वीर पेरिस में राजनीतिक कार्यकर्ता और भारतीय वकील सरदार सिंह राणा के साथ की भी मिलती है। उन्होंने दुनिया के तमाम देशों में जाकर भारत को आजाद कराने के पक्ष में माहौल बनाने का काम किया था। 46 साल की पारसी महिला भीकाजी कामा ने जर्मनी के स्टुटगार्ट में हुई दूसरी ‘इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस’ में ये झंडा फहराया था।
पत्रकारिता के माध्यम से भारतीय राष्ट्रवाद को मजबूती :मैडम भीखा जी कामा भारत के पहले महिला पत्रकारों में से एक थीं। पेरिस में भीखाजी ने वंदे मातरम नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित किया और लोगों को क्रांतिकारी साहित्य वितरित करने के काम में सक्रिय रुप से लगी रहीं । सितंबर 1909 में जब उन्होंने वंदे मातरम पत्रिका की शुरुआत की तो उसे भारतीय राष्ट्रवादी भावना को जागृत करने का एक प्रमुख हथियार बनाया। इसके मुख्य पृष्ठ पर नाम के साथ उसी झंडे की छवि छापी जाती रही जिसे मैडम कामा ने फहराया था। वंदे मातरम का जब पहला अंक आया तो उसमें मदन लाल धींगरा की शहादत और सर कर्जन वायली की हत्या का विस्तृत रूप में जिक्र किया गया । कर्जन वायली सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया था जिसकी 1 जुलाई 1909 को मदन लाल ढींगरा ने हत्या कर दी थी । अंग्रेजों ने वंदे मातरम के राष्ट्रवादी कविता के शीर्षक पर प्रतिबंध लगा दिया था और उन्होंने भीखाजी के प्रकाशन पर भी इस बात का प्रतिबंध लगाया कि उसे भारत आयात न किया जा सके लेकिन फ्रांसीसी उपनिवेश पांडिचेरी के रास्ते से चोरी-छिपे वंदे मातरम की प्रतियां भारत पहुंचती रहीं । मैडम भीखाजी कामा को वंदे मातरम पत्रिका के पांडिचेरी और भारतीय सेना के सैनिकों के मध्य वितरण कराने में मद्रास के एक क्रांतिकारी एमपीटी आचार्य का सहयोग मिला। मैडम भीकाजी कामा ने 1910 में फ्रेंच सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली थी और इसीलिए फ्रेंच उपनिवेश पांडिचेरी के रास्ते को भारतीय क्रांतिकारी साहित्य को भारत भेजने में उन्हें सुविधा हो सकी। जब उन्होंने यह सुना कि ब्रिटिशर्स फ्रेंच लोगों पर दबाव बना रहे थे कि वह ब्रिटिश विरोधी भारतीय क्रांतिकारियों को पांडिचेरी में गिरफ्तार करें तब मैडम भीखाजी कामा ने 1910 में एक फ्रेंच सोशलिस्ट बैरिस्टर पॉल रिचर्ड को पांडिचेरी भेजा। पॉल रिचर्ड मैडम भीकाजी कामा का भारतीय क्रांतिकारियों के नाम लिखे पत्र को लेकर 1910 में पांडिचेरी पहुंचे मैडम भीकाजी चाहती थी कि पॉल रिचर्ड का भारतीय क्रांतिकारियों के साथ मजबूत अंतर संपर्क स्थापित हो जाए ताकि भारत के ब्रिटिश प्रशासकों को जवाब देने के तरीकों को खोजा जा सके वर्ष 1910 में पॉल रिचर्ड ने फ्रेंच असेम्बली में पांडिचेरी की एक सीट तलाश करने वाले उम्मीदवार की तरफ से अभियान हेतु पांडिचेरी पहुँचे। पॉल रिचर्ड ने फ्रांसीसी सरकार में अपने प्रभाव का इस्तेमाल भी इस बात के लिए किया कि फ्रांसीसी सरकार ब्रिटिश सरकार की भारतीय क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने के दबाव में न आये।
वर्ष 1990 मैडम भीकाजी कामा ने एक और साप्ताहिक पत्र “मदन्स तलवार” की शुरुआत की थी और यह पत्र मदन लाल धींगरा की याद में शुरू किया गया था। इस साप्ताहिक पत्र में श्रोताओं के रूप में भारतीय सिपाहियों और ब्रिटिश इंडियन आर्मी में काम करने वाले लोगों को चुना गया था। मैडम भीखाजी कामा ने भारतीय स्वाधीनता के समर्थन के लिए कई संचार माध्यमों को चुना और उसमें से एक पोस्टकार्ड का प्रकाशन भी था। उन्होंने विनायक दामोदर सावरकर के इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस ऑफ 1857 के क्रांतिकारी साहित्य को बढ़ावा दिया, उसके प्रचार प्रसार में योगदान दिया । सावरकर की इस पुस्तक की मौलिक मराठी पांडुलिपि पेरिस में मैडम भीखाजी कामा के पास सुरक्षित रखी थी । कालांतर में मैडम भीकाजी कामा ने इस पांडुलिपि को अभिनव भारत सोसायटी के डॉक्टर कोटिनहो को दे दिया था। मैडम भीखाजी कामा अभिनव भारत की एक सदस्य थीं और उन्होंने यह शपथ ली थी की मृत्यु अथवा विजय तक वह ब्रिटिश अत्याचारियों से संघर्ष करती रहेंगी। मैडम भीखाजी कामा ने न्यू इंडिया सोसाइटी का गठन किया था जो बाद में पेरिस इंडिया सोसाइटी कहलाया और ऐसा माना जाता है कि इसे अभिनव भारत की तर्ज पर ही गठित किया गया था। मैडम भीखाजी कामा का पेरिस स्थित घर जब भारतीय क्रांतिकारियों के राष्ट्रवादी भावना की प्रयोगशाला बन गया तब 1910 में ब्रिटिश सरकार ने फ्रांस से उनके प्रत्यर्पण के लिए कहा लेकिन फ्रांस ने इसे नामंजूर कर दिया और इसके बाद ब्रिटिश शासन ने उनके भारत में स्थित परिसंपत्तियों को ज़ब्त कर लिया। 1914 में प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत के बाद फ्रांस जो कि ब्रिटेन का सहयोगी बन चुका था उसने थोड़े समय के लिए भीखाजी को जेल में रखा। अक्टूबर 1914 में जब भीखाजी कामा ने पंजाब रेजीमेंट के सैनिकों को उकसाने की कोशिश की जो लड़ाई लड़ने के लिए फ्राँस के मर्सिलीज पहुंचे ही थे। थोड़े समय बाद फ्रांसीसी सरकार ने भीखाजी को विची भेज दिया था जहां उन्हें उन्हें नजरबंद कर दिया गया था। नवंबर 1917 में उन्हें इस शर्त के साथ रिहा किया गया कि वह साप्ताहिक रूप से पुलिस को रिपोर्ट करती रहेंगी। जब प्रथम विश्व युद्ध खत्म हुआ तो भीखाजी कामा अपने पेरिस स्थित घर वापस लौट आई और अपने राजनीतिक और क्रांतिकारी गतिविधियों को पुनः जारी किया । थोड़े ही समय में भीखाजी कामा को रूसी लोग भारत की जोन ऑफ आर्क कहने लगे और भारतीय उन्हें भारतीय क्रांति की माता कहने लगे। क्रिमिनल इंटेलिजेंस ऑफिसर ऑफ द होम डिपार्टमेंट( पॉलीटिकल) ऑफ द गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ने 1913 में भीखाजी कामा को पेरिस में स्थित भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के एक प्रमुख नेता के रूप में मान्यता प्रदान करते हुए उन्हें चिन्हित किया था।मैडम भीखा जी कामा पूरी निर्भीकता के साथ अपनी बातों को लिखती और बोलती थीं । एक बार उन्होंने लिखा है कि आप में से कुछ लोग कहते हैं कि एक महिला के रूप में मुझे हिंसा का विरोध करना चाहिए और ऐसी भावना मेरी एक समय थी भी , लेकिन अब वह भावना जा चुकी है । यदि हम बल का प्रयोग करते हैं तो यह सिर्फ इसलिए करते हैं कि हम बल का प्रयोग करने के लिए बाध्य हैं। स्वतंत्रता के लिए संघर्ष असाधारण प्रयासों की मांग करता है । विदेशी शासन के खिलाफ सफल विद्रोह और क्रांति ही देशभक्ति है और हम अपने देश को वापस चाहते हैं। एक भी इंग्लिश बलूत का वृक्ष (ओक) भारत में हमें नहीं चाहिए। हमारे पास अपने खुद के पवित्र बरगद के वृक्ष और सुंदर कमल के फूल हैं तो इसलिए आइए अपना यह ध्येय बनाते हैं कि हम सभी भारत के लिए हैं और भारत भारतीयों के लिए है।ऐसा कहा जाता है कि गुजरात के समाजवादी नेता इंदूलाल याग्निक ने मैडम भीकाजी कामा के भारतीय स्वाधीनता के झंडे को चोरी-छिपे भारत में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मैडम भीकाजी कामा का झंडा आज पुणे में केसरी मराठा लाइब्रेरी में मौजूद है।
पेरिस में भीखाजी की सक्रियता : ब्रिटिश सरकार की मैडम भीखाजी कामा पर पैनी नज़र रहती थी। लॉर्ड कर्ज़न की हत्या के बाद मैडम कामा साल 1909 में पेरिस चली गईं जहां से उन्होंने ‘होम रूल लीग’ की शुरूआत की थी। उनका लोकप्रिय नारा था, “भारत आज़ाद होना चाहिए; भारत एक गणतंत्र होना चाहिए; भारत में एकता होनी चाहिए।” तीस साल से ज़्यादा तक भीकाजी कामा ने यूरोप और अमरीका में भाषणों और क्रांतिकारी लेखों के ज़रिए अपने देश के आज़ादी के हक़ की मांग बुलंद की। अपने यूरोप प्रवास के दौरान भीकाजी ने ‘पेरिस इंडियन सोसाइटी’ बनाई। अपने जीवन के आखिरी दिनों में 74 साल की उम्र में मैडम भीकाजी कामा 1935 में वापस भारत लौटीं। मैडम कामा ने मुंबई के पारसी जनरल अस्पताल में 13 अगस्त, 1936 को अपनी अंतिम सांस ली। चिर निद्रा में सोने से पहले उनके मुंह से निकलने वाले आखिरी शब्द ‘वंदे मातरम’ थे।