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कवि केदारनाथ अग्रवाल की पुण्यतिथि पर स्पेशल

कवि केदारनाथ अग्रवाल

पुण्यतिथि पर विशेष 

22 जून, 2021 (दस्तक टाइम्स) : दस्तक साहित्य की ओर से बहुचर्चित कवि केदारनाथ अग्रवाल की पुण्यतिथि पर उनकी मन को छू लेने वाली चार कविताएं।।।

पहली कविता उस ऋतु पर है जिसके साथ इस समय हम सब प्रवाहमान होना चाहते हैं ।

पहला पानी गिरा गगन से

उमड़ा आतुर प्यार,

हवा हुई, ठण्डे दिमाग के जैसे खुले विचार ।

भीगी भूमि-भवानी, भीगी समय-सिंह की देह,

भीगा अनभीगे अंगों की

अमराई का नेह

पात-पात की पाती भीगी-पेड़-पेड़ की डाल,

भीगी-भीगी बल खाती है

गैल-छैल की चाल ।

प्राण-प्राणमय हुआ परेवा,भीतर बैठा, जीव,

भोग रहा है

द्रवीभूत प्राकृत आनन्द अतीव ।

रूप-सिन्धु की

लहरें उठती,

खुल-खुल जाते अंग,

परस-परस

घुल-मिल जाते हैं

उनके-मेरे रंग ।

नाच-नाच

उठती है दामिने

चिहुँक-चिहुँक चहुँ ओर

वर्षा-मंगल की ऐसी है भीगी रसमय भोर ।

मैं भीगा,

मेरे भीतर का भीगा गंथिल ज्ञान,

भावों की भाषा गाती है

जग जीवन का गान ।

दूसरी कविता मेरे हिसाब से हवा पर लिखी गई अब तक की सर्वश्रेष्ठ कविता है। इसमें केदारनाथ अग्रवाल जी ने हवा को जीवंत कर दिया मानो हवा न हो कोई मन मयूर को नृत्य कराती हुई नवयुवती हो।

हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ

वही हाँ, वही जो युगों से गगन को

बिना कष्ट-श्रम के सम्हाले हुए है

हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ

वही हाँ, वही जो धरा की बसंती

सुसंगीत मीठा गुंजाती फिरी हूँ

हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ

वही हाँ, वही जो सभी प्राणियों को

पिला प्रेम-आसन जिलाए हुई हूँ

हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ

कसम रूप की है, कसम प्रेम की है

कसम इस हृदय की, सुनो बात मेरी–

अनोखी हवा हूँ बड़ी बावली हूँ

बड़ी मस्तमौला। न

हीं कुछ फिकर है,

बड़ी ही निडर हूँ।

जिधर चाहती हूँ,

उधर घूमती हूँ, मुसाफिर अजब हूँ।

न घर-बार मेरा, न उद्देश्य मेरा,

न इच्छा किसी की, न आशा किसी की,

न प्रेमी न दुश्मन,

जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ।

हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!

जहाँ से चली मैं जहाँ को गई मैं –

शहर, गाँव, बस्ती,

नदी, रेत, निर्जन, हरे खेत, पोखर,

झुलाती चली मैं झुमाती चली मैं!

हवा हूँ, हवा मै बसंती हवा हूँ।

चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया;

गिरी धम्म से फिर, चढ़ी आम ऊपर,

उसे भी झकोरा, किया कान में ‘कू’,

उतरकर भगी मैं, हरे खेत पहुँची –

वहाँ, गेंहुँओं में लहर खूब मारी।

पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तक

इसी में रही मैं!

खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी,

मुझे खूब सूझी –

हिलाया-झुलाया गिरी पर न कलसी!

इसी हार को पा,

हिलाई न सरसों, झुलाई न सरसों,

मज़ा आ गया तब,

न सुधबुध रही कुछ,

बसंती नवेली भरे गात में थी

 

हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!

मुझे देखते ही अरहरी लजाई,

मनाया-बनाया, न मानी, न मानी;

उसे भी न छोड़ा-

पथिक आ रहा था, उसी पर ढकेला;

हँसी ज़ोर से मैं, हँसी सब दिशाएँ,

हँसे लहलहाते हरे खेत सारे,

हँसी चमचमाती भरी धूप प्यारी;

बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी!

हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!

केदारनाथ अग्रवाल जी की तीसरी कविता नदी के साथ किये गए शानदार अपेक्षित आचरण पर आधारित है। इन कुछ ही पंक्तियों में कवि संवेदनाओं की पूरी एक नदी ही प्रवाहित कर देता है।

आज नदी बिलकुल उदास थी।

सोई थी अपने पानी में,

उसके दर्पण पर-

बादल का वस्त्र पडा था।

मैंने उसको नहीं जगाया,

दबे पांव घर वापस आया।

चौथी कविता महिलाओं की जिजीविषा पर आधारित है।

घर की फुटन में पड़ी औरतें

ज़िन्दगी काटती हैं

मर्द की मौह्ब्बत में मिला

काल का काला नमक चाटती हैं

जीती ज़रूर हैं

जीना नहीं जानतीं;

मात खातीं-

मात देना नहीं जानती।

 

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