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महंगाई दर में जोरदार गिरावट… 14 साल के निचले स्तर पर पहुंची

नई दिल्ली : लंबे समय तक महंगाई आम भारतीयों की बड़ी चिंताओं में से एक रही है, लेकिन इस वक्त तस्वीर उल्टी दिख रही है। खुदरा महंगाई बढ़ने की दर और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक यानी सीपीआई, दोनों में जबर्दस्त गिरावट दिख रही है। रिजर्व बैंक का लक्ष्य है कि महंगाई दर को चार प्रतिशत या उससे दो फीसदी ऊपर-नीचे के दायरे में रखा जाए। यानी, एक अच्छी अर्थव्यवस्था में दो से छह प्रतिशत तक की महंगाई दर को बर्दाश्त करने लायक माना जाता है।

इस वक्त महंगाई पिछले 14 साल में सबसे कम है। अगर विकास की रफ्तार तेज करने में कामयाबी मिल जाए, तो शायद महंगाई थोड़ी बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था का भविष्य बेहतर हो सकेगा। रिजर्व बैंक की जिम्मेदारी यही है कि वह महंगाई की लगाम इतनी कसे कि अर्थव्यवस्था का घोड़ा न तो बेरोकटोक भागे और न ही रुकने को मजबूर हो जाए।

छह प्रतिशत से ऊपर महंगाई का मतलब होता है कि हालात ठीक नहीं हैं, लेकिन दो फीसदी से कम होने का मतलब भी कुछ ऐसा ही होता है। जनवरी में भारत की खुदरा महंगाई दर 4.3 प्रतिशत थी, जो अब गिरकर 0.25 फीसदी पर पहुंच गई है। थोक महंगाई दर तो शून्य के भी नीचे यानी (-)1.21 प्रतिशत पर है। शून्य के नीचे होने का अर्थ है कि दाम बढ़ने के बजाय गिर रहे हैं। सुनकर तो यह अच्छा लगता है, लेकिन क्या वास्तव में यह अच्छी हालत है? बहुत से लोग पूछ रहे हैं कि महंगाई अगर 1979 के बाद के सबसे निचले स्तर पर आ गई है, तो बाजार में इसका असर क्यों नहीं दिखता? वहां तो चीजें सस्ती नहीं मिल रही हैं!

यहां इस किस्से में एक पेच है। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे ‘बेस इफेक्ट’ कहते हैं, यानी जिस चीज को आप देख रहे हैं, उसकी तुलना किससे कर रहे हैं? महंगाई के मामले में यह तुलना होती है एक साल पहले के आंकड़े से। इस वक्त महंगाई दर में जबर्दस्त गिरावट दिखने की वजह यह भी है कि पिछले साल इन्हीं महीनों में महंगाई की चाल ऊपर की ओर थी। इसे यूं भी समझ सकते हैं कि अगर पिछले साल सितंबर के मुकाबले अक्टूबर में महंगाई में तेज बढ़त थी और इस साल सितंबर और अक्टूबर में दाम बराबर रहे, तब भी अक्टूबर में महंगाई का आंकड़ा गिरावट दिखाएगा। यह बात सिर्फ अक्टूबर की नहीं है। अप्रैल, मई, जून, जुलाई और सितंबर में भी यही असर पड़ रहा था, कहीं कम तो कहीं ज्यादा।

लेकिन अब जब महंगाई दर काफी नीचे पहुंच चुकी है, तो इसका उल्टा असर शुरू होता है। आंकड़ों का विश्लेषण करने वाली एक रिपोर्ट का अनुमान है कि तीन महीनों तक महंगाई दर शून्य से नीचे दिख सकती है। इसका मतलब यह होगा कि फिर अगले साल इन्हीं महीनों में ‘बेस इफेक्ट’ का असर उल्टा दिखेगा और तब अचानक महंगाई तेज दिखने लगेगी। महंगाई के आंकड़े में इस बार एक-दो बातें और देखने लायक हैं। एक तो महंगाई कम होने की सबसे बड़ी वजह है, खाने-पीने की चीजों के दाम गिरना। अक्टूबर में खाद्य महंगाई दर शून्य से पांच प्रतिशत नीचे के रिकॉर्ड स्तर पर थी। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में इसकी हिस्सेदारी 39 प्रतिशत की है। जाहिर है, यह गिरेगा, तो महंगाई गिरेगी, लेकिन इसके साथ एक चिंता भी जुड़ी है।

खाने-पीने की कुछ चीजों के दाम तेजी से गिरते-उठते हैं। एक या दो चीजों के दाम में तेज उतार-चढ़ाव भी महंगाई के आंकड़े को बना या बिगाड़ सकता है। इसी तरह की रफ्तार पेट्रोल, डीजल, गैस वगैरह के दाम में भी दिखती है, क्योंकि कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय भावों का असर उन पर पड़ता है। इसीलिए अर्थशास्त्री लंबे दौर में महंगाई का रुख समझने के लिए ‘कोर इनफ्लेशन’ का इस्तेमाल करते हैं। यहां महंगाई दर में वह आंकड़ा इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें खाद्य पदार्थों व ऊर्जा को बाहर करके बाकी हिसाब जोड़ा जाता है। इस कसौटी पर महंगाई की तस्वीर कुछ और हो जाती है।

यहां महंगाई का आंकड़ा 4.4 प्रतिशत पर दिख रहा है। शायद यही उस सवाल का जवाब है कि महंगाई इतनी कम हो गई है, तो बाजार में दिखती क्यों नहीं? ऐसा इसलिए भी होता है, क्योंकि एक मध्यवर्गीय परिवार के ज्यादातर जरूरी खर्च यहीं जोड़े जाते हैं। घर का किराया, स्कूल की फीस, दवा, रिक्शा, टैक्सी या बस, ट्रेन के किराये, रेस्तरां में खाने का खर्च और सभी तरह की सेवाओं की फीस इसमें शामिल होती है। ये वे खर्च हैं, जिनमें कमी नहीं हो रही, बल्कि इनमें से कई धीरे-धीरे बढ़े ही हैं।

इस बार महंगाई का गणित बिगाड़ने वाली एक और चीज है- सोने-चांदी का भाव। इन दोनों के दाम बेतहाशा बढ़े हैं और इसका असर भी कोर महंगाई पर दिख रहा है। हालांकि, महंगाई के आंकड़े में इनका वजन बहुत नहीं है, पर बढ़ते दाम के साथ इनका दबदबा भी बढ़ रहा है। उपलब्ध आंकड़ों के हिसाब से जहां पिछले साल की शुरुआत में इन दोनों धातुओं का महंगाई के आंकड़े में एक फीसदी के दसवें हिस्से से भी कम का योगदान था, वहीं इस अक्टूबर तक यह बढ़कर 0.88 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। लगभग दस गुना।

अगर यह सब दरकिनार करके मान लिया जाए कि महंगाई दर में तेज गिरावट आ चुकी है और आगे भी कुछ समय तक आती रहेगी, तो क्या यह खुशखबरी नहीं है? आखिर रिजर्व बैंक महंगाई दर को 4 प्रतिशत पर क्यों रखना चाहता है? जवाब यह है कि अगर चीजों के दाम बढ़ेंगे नहीं, तो व्यापारियों के लिए उन्हें बनाना व बेचना फायदे का सौदा नहीं रह जाएगा। तब उनकी और देश की तरक्की कैसे होगी? बहुत कम महंगाई का मतलब यह भी माना जाता है कि बाजार में मांग कम हो रही है, लोग पैसे खर्च नहीं करना चाहते और इसीलिए व्यापारी दाम बढ़ाने की स्थिति में नहीं हैं। कंपनियां अगर दाम नहीं बढ़ा पाएंगी, तो वे नया निवेश क्यों करेंगी?

साल 1990 तक जापान दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में गिना जाता था, लेकिन उसके बाद कई साल तक वहां महंगाई दर शून्य हो गई। इससे जो संकट पैदा हुआ, आज 30 साल बाद भी जापान उससे उबरने की कोशिश में लगा है। इन तीन दशकों को जापान में ‘लॉस्ट डिकेड्स’ कहा जाता है। यूरोप में 2012 से 16 तक महंगाई दर गिरकर एक फीसदी से नीचे पहुंच गई थी। इसके नतीजे यूरोप ही नहीं, बाकी दुनिया को भी भुगतने पड़े। ब्याज दर घटाकर शून्य करनी पड़ी। आर्थिक विकास पर ब्रेक लग गया और बेरोजगारी का विस्फोट हो गया। साल 2008 के भुगतान संकट के बाद अमेरिका को भी करीब-करीब ऐसी ही मुसीबत से जूझना पड़ा था।

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