उत्तर प्रदेशदस्तक-विशेषराज्य

अलौकिक और अनूठा मेला महाकुंभ

प्रयाग की धरती पर दुनिया का सबसे पुराना और सबसे बड़ा मेला सजा हुआ है। ठीक वैसा आयोजन जिसकी परिकल्पना हिन्दू धर्म की प्राचीन स्मृतियों ने की थी। पौराणिकता और परंपराओं में अटूट श्रद्धा रखने वाले आस्था में डूबे असंख्य लोग जाने-अनजाने किए पापों से मुक्ति और मोक्ष की कामना लिए संगम की ओर चले आ रहे हैं। कोई विज्ञापन, कोई प्रचार नहीं। न उम्र की सीमा न जाति का बंधन। न स्त्री पुरुष का भेद, न अमीरी गरीबी का कोई फासला। न चेहरे पर सैकड़ों मील के सफर की कोई थकान। सब सदियों से बहती पवित्र गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती में डुबकी लगाने को आतुर हैं।
कुंभ नगरी से संजय पांडेय और आनंद त्रिपाठी की रिपोर्ट।

तीन नदियों के संगम पर कुंभ मेला एक प्रतीक है। इस प्रतीक में बहुत गहरा संदेश छुपा है। ये तीनों नदियां अलग अलग दिशाओं से आती हैं। इन तीनों का अलग वेग है और तीनों के रंग अलग हैं। इन नदियों की अपनी पृष्ठभूमि और विशिष्टताएं हैं। सब कुछ छोड़ कर ये तीन नदियां संगम में एक हो जाती हैं। इनका रंग एक हो जाता है, इनकी पहचान एक हो जाती है। कुंभ मेला देश की एकता और अखंडता की एक अनूठी मिसाल है। देश के अलग-अलग हिस्सों की वेशभूषा, भाषा, आदतें, नस्ल, रीति रिवाज, धर्म, जाति और पंथ लेकर स्त्री, पुरुष, बच्चे, बुजु़र्ग, किन्नर, साधु-संत, संन्यासी, अघोरी, नागा यहां आते हैं और मेले की भीड़ में एक हो जाते हैं। इस विविधता के पीछे छिपा हुआ एकता का सूत्र देश के विभिन्न हिस्सों से आए लोगों को एक साथ बांधे रखता है। जैसा कि महानिर्वाणी अखाड़े के महंत गंगा पुरी कहते हैं- ‘कुंभ हमारे राष्ट्र को एक में पिरोता है।’

रातभर जागती है कुंभ नगरी
जब प्रयागराज शहर गहरी नींद सोता है तब कुंभ नगरी जागती है। श्रद्धालु किसी खास पर्व या स्नान का इंतज़ार नहीं करते। डुबकी लगाने के लिए वे सूर्य देवता के जगने की भी प्रतीक्षा नहीं करते। कुंभ नगर में दाखिल होते ही श्रद्धालु संगम में डुबकी लगाने के लिए मचलने लगते हैं। न सर्दी उन्हें सताती है न पाला डराता है। जय गंगा मैया के उद्घोष के साथ वे गंगा स्नान कर सारे पुण्य अपनी झोली में समेट लेते हैं। रात में मेले का नज़ारा गजब है। तीन अमृत स्नान भले खत्म हो गए हों, लेकिन संगम में डुबकी लगाने के लिए आने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ कम नहीं हो रही है। प्रयागराज शहर में जहां रात 10 बजे ही सन्नाटे में डूबा है, वहीं दूसरी ओर 40 किलोमीटर एरिया में फैले कुंभनगर में 24 घंटे चहल-पहल है। हर तरफ भक्तिमय माहौल है। कहीं रामकथा चल रही है तो कहीं भजन कीर्तन। कहीं दुकानों पर श्रद्धालुओं की भीड़ है तो कहीं खाने के स्टॉल पर लोग जमा हैं। कहीं लोग अखाड़ों के भव्य दरवाजों को निहार रहे हैं तो कहीं भीड़ किसी धूनी रामाए अघोरी साधु पर मुग्ध हैं।
रात में करीब 12 बजे हैं। 150 श्रद्धालुओं का एक दस्ता कुंभनगर के सेक्टर-7 में प्रवेश करता है। भीड़ में कुछ युवा हैं तो बड़ी संख्या में बुजुर्ग हैं। इसमें से कुछ युवाओं का महाकुंभ आने का यह पहला मौका है लेकिन कड़कड़ाती ठंड और इतनी रात में चारों ओर चकाचौंध और लोगों की भीड़ देखकर वे हतप्रभ रह जाते हैं। इस बीच एक युवा बुज़ुर्ग से कहता है। ‘बंबई (मुंबई) के बारे में सुनले रहनी कि 24 घंटा जगे ले, लेकिन इलाहोबाद मुंबई से कुछ कम नइखे।’ बुज़ुर्ग महाकुंभ का महत्व बताते हुए कहते हैं ‘मुंबई जगे ले और भागेले, लेकिन कुंभ नगरी इंसान जागृत करे ले।‘

कंपकंपाती ठंड में रात को पहुंचे श्रद्धालुओं के इस दस्ते ने पहले से कोई बुकिंग नहीं करवा रखी थी। लेकिन रात 12 बजे जब वो कुंभनगर आते हैं तो उन्हें पास में ही बने रैन बसेरे में ठिकाना मिल जाता है। जबलपुर से आई सावित्री बताती हैं कि वो जिस बस से आई थीं, उसे दोपहर में पहुंचना था लेकिन रास्ते में बस खराब होने की वजह से वे सब आधी रात में यहां पहुंचे। आशंकित थे कि आधी रात हो गई। पता नहीं रहने की क्या व्यवस्था होगी लेकिन रैनबसेरे ने उनकी समस्या का झट से समाधान कर दिया। इसी तरह गुजरात के आनंद से पहुंचे तीर्थयात्रियों को भी रात में ठंड में भटकना नहीं पड़ा। उन्हें रुकने की जगह मिल गई। हालांकि, फाफामऊ के पास उनकी बस ने इतनी दूर उतारा कि कई किलोमीटर चलने के बाद वे कुंभ तक पहुंचे। सावित्री कहती हैं इसके लिए भी मेला प्रशासन को कुछ करना चाहिए।

बस डुबकी लगाने की हसरत
19 वर्षीय रामेंद्र बिहार के मधुबनी जिले से आए हैं। यह पहला मौका है, जब उन्हें महाकुंभ में आने का मौका मिला है। रामेंद्र बताते हैं कि 2019 में जब कुंभ लगा था, तब उनके मम्मी-पापा आए थे लेकिन तब मैं छोटा था, कहीं मेले में खो न जाऊं, इस डर से वे मुझे साथ नहीं लाए थे। इसलिए मैं अकेला आ गया। रात के 2 बजे कड़कड़ाती ठंड में श्रद्धालुओं के झुंड में रामेंद्र भी स्नान करने के लिए जा रहे हैं। ऐसे ही एक अन्य श्रद्धालु मध्य प्रदेश के सीधी जिले के मुकेश भी हैं, जो रात में पहुंचे तो सीधे संगम घाट आ गए, ताकि आसानी से स्नान हो जाए। संगम के किनारे से जैसे ही आगे बढ़ेंगे, आपको बड़ी संख्या में तीर्थयात्रियों के कई जत्थे स्नान के बाद आते-जाते हुए दिख जाते हैं। इस बीच करीब सुबह 6 बजे कुछ पंडालों से भजन की धुन सुनाई देती है। दूर-दूर से आए श्रद्धालुओं को भजन की धुन पंडाल में जाने पर मजबूर कर देती है। यहां पहुंचकर स्नान के बाद करीब 2 घंटे तक भजन कीर्तन का आनंद लेने के बाद तीर्थयात्री वापस अपने घर गांव की ओर निकल जाते हैं।

अगर आप महाकुंभ में संगम स्नान करने के लिए आ रहे हैं और खाने-पीने की चिंता सता रही है तो चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है। पूरे मेला क्षेत्र में 100 से भी अधिक ऐसे स्थान हैं, जहां अखाड़ों की तरफ से भोजन की व्यवस्था की गई है। इसमें कई तो 24 घंटे चलते हैं। नाश्ते से लेकर खाने तक की व्यवस्था नि:शुल्क है और शुद्ध सात्विक भोजन मुहैया करवाया जाता है। ऐसी ही एक रसोई चलाने वाले गुजरात के जगन भाई बताते हैं कि सुबह 7 बजे नाश्ता शुरू हो जाता है। हर दिन नाश्ते का मेन्यू बदलता रहता है। यहां पोहा रोजाना उपलब्ध रहता है। इसी तरह 12 बजे से भोजन की व्यवस्था श्रद्धालुओं के लिए होती है।

विदेशी सैलानियों ने डाला डेरा
हिंदू धर्म की अद्भुत परंपराएं हमेशा से पश्चिम को भारत की ओर आकर्षित करती रही हैं। कभी गेरुआ रंग, कभी मंदिरों तो कभी कुंभ-महाकुंभ जैसे विशाल धार्मिक आयोजनों के बहाने। रंग बिरंगी भक्ति रस में डूबी भारतीय संस्कृति सदियों से सात समंदर पार रहने वाले विदेशियों को अपनी तरफ किसी चुंबक सी खींचती रही है। आखिर ऐसा क्या है, जो दूसरे देशों के लोग भी सनातन की तरफ मुड़ रहे हैं। अपने अनुयाइयों के बीच साईं मां के नाम से मशहूर लक्ष्मी देवी मिश्रा के दुनिया के 100 से अधिक देशों में आश्रम हैं। इस बार महाकुंभ में उनके 150 से अधिक विदेशी अनुयायी आए हुए हैं। वो रोजाना संगम में डुबकी लगाते हैं। फर्राटा हिन्दी और संस्कृत बोलते हैं। मंत्रों का उच्चारण करते हैं। यज्ञ में भाग लेते हैं, योग और ध्यान करते हैं। इससे उन्हें ज्यादा आंतरिक शांति मिलती है। शक्तिधाम में 2019 में हुए कुंभ में 9 अनुयाइयों को महामंडलेश्वर की उपाधि भी दी गई थी। साई मां कहती हैं- उत्तर पश्चिमी देशों में संपन्नता तो बहुत है, मगर मन की शांति नहीं है। वहां वेद और गुरु की परंपरा नहीं है। यही वजह है कि सारी सांसारिक संपन्नता देखने और उनका भोग करने के बाद एक समय आता है जब आपको आतंरिक शांति की जरूरत पड़ती है। वो ज्ञान सिर्फ हमारे वेद और गुरु ही दे सकते हैं। हिन्दू धर्म ही एक ऐसा धर्म है, जो सबको अपनाता है। हमारी पद्धतियां कठिन जरूर है। मगर एक बार जब किसी का हिन्दू धर्म से जुड़ाव हो जाता है। तो वो उसी में रमने लगता है।

अखाड़ों की अजब-गजब दुनिया
मेले में सनातन संस्कृति और परंपरा की ध्वजा उठाने वाले अखाड़ों की भी अजब-गजब दुनिया है। अखाड़ों को अधिकतर नागा संन्यासियों और धूनी से ही जाना जाता है। जबकि ऐसा सिर्फ शैव अखाड़ों में ही होता है। हालांकि एक शैव अखाड़ा ऐसा भी है जिसमें न तो नागा संन्यासी होते हैं न ही धूनी। इससे उलट इस अखाड़े में हवन की परंपरा है और इसमें नैष्टिक ब्रह्मचारी ही मिलते हैं। प्राचीन समय से इस अखाड़े में ब्राह्मण ब्रह्मचारियों को भर्ती करने की परंपरा रही है। हालांकि अब दूसरी जातियों के ब्रह्मचारी भी इसमें शामिल किए जाने लगे हैं। सनातन धर्म के सबसे बड़े जूना अखाड़े से जुड़ा श्री शंभू पंच अग्नि अखाड़ा गायत्री की उपासना करता हैं। वैसे तो यह भी एक शैव अखाड़ा ही है, बावजूद इसके अग्नि अखाड़े में नागा संन्यासियों की भर्ती नहीं होती। अग्नि में ब्राह्मण ब्रह्मचारियों को ही प्राथमिकता के आधार पर शामिल किया जाता है। हालांकि अब दूसरी जातियों के ब्रह्मचारियों को भी उनके आचरण व अन्य पहलुओं को देखते हुए शामिल किया जाने लगा है। इस अखाड़े की एक खास बात यह भी है कि, इस अखाड़े में धूनी देखने को नहीं मिलती, जो शैव अखाड़ों की एक बड़ी पहचान है। अखाड़े के श्री महंत पूर्णानंद ब्रह्मचारी बताते हैं कि अग्नि में संन्यासी नहीं बल्कि ब्रह्मचारी होते हैं, जबकि अन्य शैव अखाड़ों में संन्यासी होते हैं। इस अखाड़े के ब्रह्मचारी हवन करते हैं और उनके हवन कुंड की रक्षा नागा संन्यासी करते हैं। अखाड़े के राष्ट्रीय महामंत्री सोमेश्वरानंद ब्रह्मचारी बताते हैं कि यह अखाड़ा भी आदि शंकराचार्य की परंपरा से जुड़ा है। इस अखाड़े में करीब पांच हजार ब्रह्मचारी हैं।

किन्नर अखाड़े का अलग आकर्षण
अखाड़े के प्रवेश द्वार पर लोगों की कतार है। सभी बस एक बार मिलकर आशीर्वाद लेना चाहते हैं। मिलने की आकांक्षा रखने वाले लोगों में महिलाएं, पुरुष, बच्चे और बूढ़े सभी वय के लोग हैं। कुछ महिला और पुलिस सुरक्षाकर्मी लोगों को रोकने की भरसक कोशिश में जुटे हैं। लोग मिन्नतें करते हैं कि बस मां के पैर छूने हैं। महिला सुरक्षाकर्मी भी उतनी ही शालीनता से मना कर रही हैं, अभी मुलाकात नहीं होगी। दोपहर दो बजे आओ। मां, सबसे मिलेंगी। वह गद्दी पर बैठेंगी। यह किन्नर अखाड़े का दृश्य है। जिस रोज, यानी, 12 जनवरी से, आचार्य महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी यहां पहुंची हैं, उस दिन से उनसे मिलने वाले लगातार इसी तरह अखाड़े में पहुंच रहे हैं। क्या बाहर से मिलने आने वाले, क्या यहां रह रहे किन्नर, महिला, पुरुष सभी के पास आचार्य महामंडलेश्वर के लिए ‘मां’ ही संबोधन है। महाकुंभ में मां की यह दुनिया बसी है, सेक्टर 16 के संगम लोअर मार्ग पर। लोगों की भीड़ और बस आशीर्वाद लेने की उत्कंठा देखकर यह सहज ही कहा जा सकता है कि महज दस साल में अखाड़े ने अपनी स्वीकार्यता बढ़ा ली है। अभी साल 2015 में ही तो इसे अखाड़े का दर्जा मिला था। साल 2016 में सिंहस्थ कुंभ में पहली बार अखाड़े ने शिरकत की थी। हालांकि तब उसे अन्य अखाड़ों के साथ स्नान करने का मौका नहीं दिया गया था। हालांकि बाद में जूना अखाड़ा के साथ हुए समझौते के बाद पहली बार साल 2019 के कुंभ में किन्नर अखाड़े ने शाही स्नान (अब अमृत स्नान) किया था। मंगलवार को द्वादशवर्षीय कुंभ में उसका पहला अमृत स्नान था। हालांकि, अब तक इस अखाड़े को 13 अखाड़ों वाली अखाड़ा परिषद ने 14वें अखाड़े के रूप में मान्यता नहीं दी है, जिसकी मांग जारी है।

Related Articles

Back to top button