सुप्रीम कोर्ट ने किया बड़ा बदलाव, सजा-ए-मौत पाने वाले कैदी का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन जरूरी
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा के मामले में कुछ नई चीजें शामिल की हैं। जस्टिस उदय यू ललित की अगुवाई वाली बेंच ने कैदी के मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन को अनिवार्य कर दिया है। इसके अलावा कोर्ट ने जांच के दौरान कैदी के आचरण की भी रिपोर्ट देने की मांग की है, जिससे पता चल सके कि फांसी ही एकमात्र सजा है या नहीं। खास बात है कि शीर्ष अदालत ने यह उपाय बचन सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब (1980) मामले में सुनाए गए फैसले की भावना के सहारे किया है। इस फैसले में आरोपी के संबंध में हालात को बिगाड़ने और कम करने के तुलनात्मक विश्लेषण को जरूरी करते हुए मौत की सजा देने में ‘रेयरेस्ट ऑफ द रेयर’ के सिद्धांत को स्थापित किया है।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस ललित ने बचन सिंह मामले में सुनाए गए फैसले से प्रेरणा ली है। हाल ही में मौत की सजा के मामलों में उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों में ‘पूर्ण सहयोग’ से केवल सबूत ही नहीं, बल्कि कैदी के मानसिक स्वास्थ्य की ताजा जानकारी देने की भी जरूरत होगी। आमतौर पर शीर्ष अदालत में सुनवाई के पहले दिन मामले को आगे की तारीख पर ले जाते हुए कैदी की फांसी पर रोक लगा दी जाती है। हालांकि, जस्टिस ललित का कहना है कि अंतिम दलीलों के शुरू होने से पहले कैदी के बारे में अलग-अलग कारकों का मूल्यांकन उचित सजा तय करने में कोर्ट की मदद करेगा।
जनवरी और फरवरी में जज ने तीन अलग-अलग आदेशों लगभग एक जैसी बातें कही थी। उन्होंने कहा था कि आरोपी के आचरण के बारे में दोनों पक्षों को पहले जानकारी दी जाए, तो यह हर तरह से मददगार होगा। इन मामलों में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के उच्च न्यायालयों की तरफ से सुनाई गई मौत की सजा के आदेश के खिलाफ अपील दायर हुई थीं।
इन आदेशों में राज्य सरकार और संबंधित जेल विभाग के अधिकारियों को यह सुनिश्चित करने के लिए कहा गया था कि शासकीय चिकित्सा संस्थान का प्रमुख कैदी के मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन के लिए एक उचित टीम का गठन करे। आदेशों में कहा गया था कि हमें यह भी लगता है कि न्याय का हित यह बताता है कि हम याचिकाकर्ता के मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन हासिल करें। साथ ही यह भी कहा गया था कि एक टीम की तरफ से रिपोर्ट कोर्ट के सामने पेश की जाए, जिसमें प्रशिक्षित मनोचिकित्सक और एक मनोवैज्ञानिक शामिल हों।
कोर्ट के 4 निर्देशों की सेट में प्रोबेशन अधिकारी की ओर से कैद के दौरान कैदी के व्यवहार से जुड़ी रिपोर्ट पेश करना भी शामिल था। आदेश में कहा गया था कि हम जेल में याचिकाकर्ता की तरफ से किए गए कार्यों के बारे में जेल प्रशासन की एक रिपोर्ट सुनवाई की अगली तारीख से पहले पेश करने की निर्देश देते हैं। खास बात है कि बचन सिंह के मामले में यह सामने आया था कि कोर्ट को अपराध और अपराधी दोनों की जांच करना चाहिए। इसके बाद यह तय किया जाना चाहिए कि क्या मामले में मौत की सजा ही एकमात्र सही सजा है या नहीं। इसके अलावा इसे बढ़ाने और कम करने वाले कारकों पर भी जोर दिया गया था, जो मामले के तथ्य और हालात पर निर्भर हों।
साल 2014 में शीर्ष अदालत ने फैसला सुनाया था कि फांसी की सजा में अस्पष्ट देरी भी मौत की सजा को कम करने का आधार था। साथ ही कैदी, उसके रिश्तेदार या नागरिक सजा को कम करने के संबंध में रिट याचिका दायर कर सकता है। कोर्ट के फैसले में कहा गया था कि मौत की सजा में देरी कैदी पर ‘अमानवीय असर’ डालती है, जिन्हें दया याचिका के लंबित रहने के दौरान मौत के साय में सालों इंतजार करना पड़ता है। साथ ही यह भी कहा गया था कि अधिक देरी निश्चित रूप से उनकी शरीर और दिमाग पर दुखद असर डालती है।
उसी साल संवैधानिक बेंच ने यह भी कहा गया था कि मौत की सजा पाए दोषी की पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई तीन जजों की बेंच ओपन कोर्ट में करेगी। इससे पहले ऐसे मामलों में दो जजों की बेंच बगैर किसी मौखिक बहस के विचार करती थी।