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गुलामी का चिह्न है ‘अंगरेजी नववर्ष’

अपने जीवन में मैं आज तक जिन गुत्थियों को सुलझाने में असमर्थ रहा हूं तथा आज भी सुलझाने के प्रयास में हूं, उनमें से एक गुत्थी कलेंडर सम्बन्धी भी है। मैं आज तक यह जानने समझने में असमर्थ रहा हूं कि हमारा ‘दिनमान’ 24 घंटे का ही क्यों होता है? इस दिनमान में एक घंटा 60 मिनट तथा एक मिनट 60 सेकेंड का ही क्यों होता है? किसी सप्ताह में मात्र 7 दिन ही क्यों होते हैं? और इस कलेंडर का नववर्ष 1 जनवरी को मनाए जाने के बावजूद हमारा वित्तीय वर्ष 1 अप्रैल से क्यों प्रचलित है? विशेषतः उस ‘फर्स्ट अप्रैल’ से जिसे स्वयं को आधुनिक कहनेवाले अनेक लोग ‘एप्रिल फूल’ या ‘मूर्ख दिवस’ के रूप में भी मनाते हैं?

ऐतिहासिक पुस्तकें व गुगल की सूचनाएं हमें यह तो बताती हैं कि इस 1 जनवरी से आरम्भ होनेवाले ईसवी ‘नये वर्ष’ का प्रचलन रोमन सम्राट जूलियस सीजर द्वारा प्रचलित 10 मासी कलेंडर के कारण प्रारम्भ हुआ है। किन्तु ये सूचनाएं भी इस विषय में मौन हैं कि ‘श्रीमान जूलियस साहब’ द्वारा प्रचलित किये गये इस कलेंडर का कोई वैज्ञानिक आधार भी था अथवा उन्होंने अपने पांथिक पूर्वाग्रहों व विश्वासों के कारण इसका प्रचलन किया? साथ ही यह सूचनाएं इन प्रश्नों का तो कोई भी उत्तर नहीं दे पातीं कि उनके द्वारा प्रचलित इस 10 मासी कलेंडर का अष्टम् मास (ऑक्टोबर), नवम् मास (नवम्बर) तथा दशम् मास (दिसम्बर) संस्कृत के आठवें, नवें व दसवें माह को क्यों ध्वनित करते हैं? इसके अलावा इन मासों की भारतीय मासों से संगति करने पर (अर्थात् भारतीय 12मासी कलेंडर के आधार पर दो मास और जोड़ने पर) नववर्ष की तिथि भारतीय नववर्ष की मार्च-अप्रैल माह में पड़नेवाली तिथि के किसी रूढ़ रूप से क्यों मिलती है।

क्या है ईसवी कलेंडर की यह गणना?

ईसवी कालगणना मूलतः उस जूलियन कलेंडर का परिवर्तित परिवर्धित रूप है जिसे रोमन सम्राट जूलियस सीजर ने लागू किया था। इससे पूर्व यह कलेंडर 304 दिन का 10 महीनों वाला था। (चौकानेवाला तथ्य यह भी कि इस दसमासी कलेंडर के 7वें माह का नाम सेप्टेंबर, आठवें का ओक्टोबर, नवें का नवम्बर व दसवें का दिसम्बर नाम था।)

जूलियस सीजर ने इसमें अपने नाम से जुलाई तथा सीजर अगस्ट्स के नाम से अगस्त माह से जोड़ इसे 360 दिन का बना दिया। तब इस कलेंडर की शुरूआत 25 मार्च (लगभग वह समय जब भारतीय नववर्ष का आरम्भ होता है) से होती थी।

1532 में 13वें पोप ग्रेगरी ने इसमें पुनः संशोधन किया। इसके बाद इसका 25 मार्च के स्थान पर 1 जनवरी से आरम्भ किया जाने लगा। इतना होते हुए भी यह कलेंण्डर पृथ्वी-सूर्य के मध्य के परिपथ के समय-चक्र को पूरा करने में समर्थ न हुआ तो इस समय-चक्र से साम्य बनाने के लिए फरवरी को 28 दिन का बना, इसमें प्रत्येक 4 वर्ष बाद 1 दिवस जोड़े जाने का विधान रखा गया।

1582 में कैथोलिक देशों का इस कलेंडर से परिचय होने के बाद अंततः 1739 में इंगलैण्ड ने स्वीकार किया और 1752 तक ब्रिटिश-अमेरिका आदि ब्रिटिश उपनिवेश में इसे स्वीकारा गया।

किन्तु इस जानकारी में भी इन सूचनाओं का अभाव है कि इस कलेंडर की समय विभाजन इकाई ‘ऑवर/हाॅवर’ का आधार क्या है? यह क्यों 60 मिनट या 60 सेकेंड का है? हमारा दिनमान किसी 20-30 जैसे सरल घंटाचक्र का न होकर क्यों 24 घंटे का ही माना जाता है? और क्यों इस वैज्ञानिक कलेंडर के रूप में प्रचारित किये जानेवाले समयमान के बावजूद हमारा वित्तीय वर्ष अप्रैल से आरम्भ होता है?

इन सभी जिज्ञासाओं का तर्कसंगत उत्तर भारतीय खगोलीय गणना पद्धति देती है। इसके अनुसार-भारतीय गणना में काल (समय) की मूल इकाई ‘त्रुटि’ है। इसका आधुनिक मान 0.324 सेकेंड है। इस गणना में 60 त्रुटि का एक रेणु, 60 रेणु का लव, 60 लव का लेषक, 60 लेषक का प्राण, 60 प्राण से विनाड़ी, 60 विनाड़ी से नाड़ी तथा 60 नाड़ी का एक अहोरात्र होता है। 7 अहोरात्र मिलकर एक सप्ताह बनाते हैं तथा 2 सप्ताह एक पक्ष। 2 पक्षों का माह बनता है तथा 2 माह की एक ऋतु। 6 माह का एक अयन होता है, जबकि 2 अयन अर्थात 12 माह का एक वर्ष।

जानते हैं जिस सूर्य सिद्धान्त में गणना का यह सूक्ष्म रूप दिया गया है वह कितना पुराना है? इसके अनुसार इसकी आयु 22 लाख वर्ष प्राचीन है। हालांकि इसमें समय-समय पर परिवर्तन, परिवर्धन होते रहे हैं। वर्तमान में प्रचलित सूर्यसिद्धान्त आचार्य वराहमिहिर व आचार्य भास्कराचार्य द्वितीय द्वारा परिवर्धित स्वरूप है।

सूर्य सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी द्वारा सूर्य की की जानेवाली परिक्रमा की अवधि 365 दिन 15 घटी 31 पल 31 विपल व 24 प्रतिविपल है। इसे 365.258756484 दिन भी कह सकते हैं। इस परिपथ का विभाजन 27 नक्षत्र, 108 पाद में किया गया है। 9-9 पाद मिलकर 12 राशियां बनाते हैं। इसमें जिस कालखंड में सूर्य जिस राशि में रहता है वहीं उस समय का सौरमास होता है।

भारतीय कालगणना केवल सौर परिपथ की गणना कर ही संतुष्ट नहीं होती। वह चंद्रमा के पृथ्वी की परिक्रमा में लगनेवाले समय की भी गणना करता है। यह गणना भी सौरगणना की भांति 27 नक्षत्र, 108 पाद व 12 राशिचक्र में होती है। चंद्रवर्ष सौरवर्ष से 11 दिन 3 घटी 48 पल छोटा होता है। इससे सामंजस्य बनाने के लिए 32 माह 16 दिन 4 घटी बाद एक चंद्रमास की वृद्धि की जाती है। यह अधिक मास कहलाता है। कालगणना में यह वृद्धि अकारण या सौरगणना से संगति बिठाने हेतु यूं ही नहीं की जातीं। वरन यह भी नक्षत्र संचरण के अनुसार होती हैं।

इसी प्रकार गणनाकारों ने सृष्टि के आरम्भ की तिथि का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा रविवार से मान अपनी गणना की है। इस दिवस के प्रथम होरा का नामकरण राशिस्वामी सूर्य के नाम पर जबकि द्वितीय होरा का नामकरण राशि स्वामी चन्द्र के नाम पर कर दिवसों के नामकरण किये गये हैं। यही दिवसों के अन्य नामकरण (यथा- मंगल, बुध, गुरू, शुक्र व शनि) का भी आधार है।

सुप्रसिद्ध विद्वान पुरूषोत्तम नागेश ओक की मानें तो ईसवी कलेंडर का समय का 24 घंटावाला विभाजन भारतीय होराकाल (ढाई घड़ी का एक होरा माना जाता है) ‘होराकाल’ के अनुकरण में लिया गया है। जबकि दिवसों के सन्डे, मण्डे.. आदि नाम अथवा विश्व के अन्य कलेंडरों में दिवसों के नाम भी भारतीय नामों की नकल/अनुकरण मात्र हैं। ओक साहब के अनुसार ‘यदि भारत ने अंगरेजों केवल अंधानुकरण न किया होता और ठीक उसी समय अपना तिथि परिवर्तन किया होता, जिस समय इंगलैण्ड में होता है, तो भारत में भी मध्यरात्रि को नहीं, सूर्योदय के समय तिथि बदली जाती।

हां, यह अवश्य है कि खगोलीय जटिलताओं के कारण अपनी भारतीय गणनापद्धति गणना में विशुद्ध होने के कारण थोड़ा जटिल अवश्य है। और संभवतः यही कारण है कि हम काल की जटिलता में पड़े बिना एक सरल पद्धति का सहारा लिए हुए हैं। भले ही वह कितनी ही अवैज्ञानिक, कितनी ही अमानक क्यों न हो।

वैसे हमारे ऋषियों ने प्रत्यके भारतीय को इस गणना की पहचान कराने के लिए ‘संकल्प मंत्र’ के रूप में जो अभिनव प्रयोग किया है, अगर उसके अर्थ जानें तो हम सभी को अपनी गणना सुगम प्रतीत होने लगेगी। यह संकल्प मंत्र है- ओ3म अस्य श्री विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्राह्मणां द्वतीये परार्धे (अर्थात महाविष्णु द्वारा प्रवर्तित अनंत कालचक्र में वर्तमान ब्रहमा की आयु का द्वितीय परार्ध-वर्तमान ब्रहमा की आयु के 50 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। यह 51 वें वर्ष का प्रथम दिन है। इस दिन अर्थात) श्री श्वेतवराह कल्पे, वैवस्वत मन्वन्तरे (ब्रहम के दिन में 14 मन्वन्तर होते हैं, उसमें वर्तमान में सातवां वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है) अष्टाविंशतितमे कलियुगे (एक मन्वन्तर में 71 चतुर्युगी मानी जाती हैं। यह उनमें से 28वीं है) कल्प प्रथमचरणे (अर्थात कलियुग का प्रारम्भिक समय है) कलिसंवते/ युगाब्दे… ।

इसके बाद संकल्प मंत्र देश, काल व स्थान का भी बोध कराता है। मंत्र के अनुसार- जम्बू द्वीपे, ब्रहमावर्ते देशे, भरतखंडे, … स्थाने, … संवत्सरे, अयने,….आदि। इस प्रकार हमें अपनी गुत्थियों के कई प्रश्नों के उत्तर तो मिल जाते हैं। किन्तु एक प्रश्न अभी शेष है। वह यह कि हमारा वित्तीय वर्ष अप्रेल से क्यों आरम्भ होता है?

इस प्रश्न का उत्तर भी भारतीय कालगणना पद्धति देती है। वास्तव में हमारा प्रकृति चक्र सूर्य ही नहीं चन्द्रमा व अन्य ग्रहों से प्रभावित होता है। चंद्रमा के प्रभाव से समुद्र में होनेवाले ज्वार व भाटा के परिवर्तन, इसके फसल चक्र पर पड़नेवाले प्रभाव, प्रकृति से इसका तादात्म्य व दैनिक जीवन में इसका वैज्ञानिक उपयोग होने के कारण ही हमारे ऋषियों ने सौरगणना को जानते हुए भी चंद्रगणना का प्रचलन किया है। ताकि इस जटिल गणना पद्धति से अनजान व्यक्ति भी अपना दैनिन्दिनी कार्यक्रम वैज्ञानिक आधार पर कर सके। इस पद्धति में सृष्टि का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को हुआ माना जाता है। इसी लिए भारतीय नववर्ष तथा वित्तवर्ष दोनों चैत्र मास (रूढ़ अर्थ में अप्रैल मास) से करने का प्रचलन है।

अंगरेजों ने भारत को स्वाधीन भले ही 1947 में कर दिया हो, किन्तु अपने 90 वर्षीय शासनकाल में वे भारत में अपनी अनेक ऐसी परम्पराएं छोड़ गये हैं, जो हम भारतीयों से छूटे नहीं छूटतीं। अगर कभी इन्हें छोड़ने का मन भी बनाते हैं तो बाजारवाद का गणित नये-नये तमाशे खड़ा कर हमें फिर धकेल देता है उन्हीं अधकचरी, अवैज्ञानिक मान्यताओं की ओर। जिनका कोई ऐतिहासिक, भौगोलिक या सांस्कृतिक आधार न होते हुए भी कई बार तो हम महज इसलिए भी मनाते हैं कि लोग हमें ‘बैकवर्ड न समझें।’

ऐसा ही एक उन्माद आगामी शुक्रवार को उस समय देखने को मिलेगा, जब देश के अधिसंख्य लोग ईसवी कलेंडर की एक तिथि (सन् 2020 के 2021) बदलने मात्र पर, रात्रि के 12 बजे, नशे की हालत में, एक-दूसरे को ‘हैप्पी न्यू ईयर’ का विश करते मिलेंगे। वहीं इस अंधानुकरण में शामिल न होने वाले लोग भी ‘एक-दूसरे को नये वर्ष की शुभकामनाएं’ दे रहे होंगे।

क्यों न हम इस बार संकल्प लें कि इस गुलामी के प्रतीक अवैज्ञानिक ‘ईसवी नववर्ष’ को मनाने के स्थान पर हम अपना भारतीय, पूर्णतः वैज्ञानिक तथा जीवन में पग-पग पर हमारे काम आनेवाला नववर्ष मनाना आरम्भ करेंगे।

(लेखक कृष्णप्रभाकर उपाध्याय स्वतंत्र स्तम्भकार हैं)

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