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नई विश्व व्यवस्था गढ़ेगा तालिबान

विवेक ओझा: एक ट्रिलियन डॉलर का खर्चा तो अकेले अफगानिस्तान में अमेरिका ने 2001 से 2021 के बीच कर डाला और हर साल 890 बिलियन डॉलर का व्यापारिक घाटा वैश्विक व्यापार में झेला है। वहीं रूस ने पुतिन के नेतृत्व में अपनी वैश्विक क्षेत्रीय भूमिकाओं को नए सिरे से तलाशना शुरु किया और रूस और चीन ने शंघाई सहयोग संगठन के बैनर तले अमेरिका और पश्चिमी देशों पर विश्व व्यापार और क्षेत्रीय राजनीति के मुद्दों पर दबाव बनाना जारी रखा है जिसको अब अमेरिका ने ठीक तरीके से निपटने की ठानी है।  इसलिए अब यह माना जा रहा है कि विश्व और क्षेत्रीय राजनीति के विवाद के बिंदुओं पर अमेरिका असंलग्नता की नीति को वरीयता देगा और इन सबमें उलझनें का मौका चीन रूस जैसे देशों को देगा।

अगस्त के दिन जब भारत अपना 75वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा था उसी दिन भारत सहित पूरी दुनिया को एक ख़बर मिली की तालिबान ने अफगान लोगों की आज़ादी हर ली है और काबुल सहित सभी प्रमुख अफगान क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया है। इस ख़बर ने दुनिया भर के देशों के होश उड़ा दिए। तालिबान इस हद तक इतनी जल्दी जाकर अफगानिस्तान को इस्लामिक अमीरात बनाने पर आमादा हो जाएगा, इसकी कल्पना भी देशों ने नहीं की थी।

दरअसल इस टर्निंग पॉइंट के आने के पीछे जो सबसे बड़ा कारण है वह है अमेरिका द्वारा 31 अगस्त तक अपने सैनिकों को अफगानिस्तान से वापस बुलाने का निर्णय। अमेरिका के इतनी जल्दी वापस जाने और तालिबान के द्वारा इतनी जल्दी कब्ज़ा करने की घटना को लोग स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। अमेरिका की अफगानिस्तान से वापसी  की भिन्न-भिन्न व्याख्याएं भी होनी शुरू हो गई हैं। एक वर्ग का मत है कि अमेरिका ने यह निर्णय जान बूझकर किया है जिससे वह चीन, रूस, पाकिस्तान और टर्की को अफगान भू राजनीति और तालिबान की कार्य प्रणाली में उलझा हुआ देख सके। एक तरफ  अमेरिका जहाँ काबुल से 11,000  किलोमीटर दूरी पर स्थित हैं, वहीं चीन 3322 किलोमीटर और रूस 4053 किलोमीटर दूर स्थित है। अफगानिस्तान मध्य एशियाई देशों के साथ सीमा भी साझा करता है। ऐसे में तालिबान एक नई ही किस्म की क्षेत्रीय राजनीति को हवा दे रहा है। 

अमेरिका की अर्थव्यवस्था 2008 के सब प्राइम लेंडिंग आर्थिक संकट के बाद एक तरफ़ जहाँ लडख़ड़ाती नजऱ आई थी, वही चीन ने वैश्विक और क्षेत्रीय राजनीति खासकर दक्षिण एशिया की राजनीति में अपनी प्रभावी भूमिका और सामरिक बढ़त के सभी साजों सामान तैयार करने में लग गया था। 2008 के बाद जहाँ एक तरफ़ चीन ने मध्य एशिया, यूरोप, लैटिन अमेरिका, दक्षिण एशिया के बाजारों को आर्थिक चतुराई के साथ खंगालना शुरू किया था, रेयर अर्थ मेटल और अन्य बेशकीमती संसाधनों का निर्यात करने में लगा था, छोटे देशों को ऋण देकर उन्हें ऋण जाल में फँसाने की कोशिश करता रहा, पूर्वी यूरोपीय देशों को इकोनॉमिक फ्रंट पर अपने नजदीक लाने की कोशिशें करता रहा वहीं दूसरी तरफ अमेरिका एक वैश्विक सुरक्षा प्रहरी के रूप में दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अमेरिकी हित और प्रतिष्ठा बचाने के लिए भारी सैन्य व्यय करता रहा और अपने संसाधन गंवाता रहा। कभी वो अल कायदा और जैश-ए-मुहम्मद को नियंत्रित कर रहा था तो कभी इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों और उसके घटकों को निशाना बनाता रहा, कभी उसने अल शबाब के खिलाफ़ कार्यवाही की तो कभी बोको हराम के खिलाफ़। अफगानिस्तान में मदर ऑफ ऑल बॉम्ब भी अमेरिका ने ही गिराया न कि चीन या रूस ने।

वैश्विक आतंकवादियों की सूची भी अपडेट करने में अमेरिका ही लगा रहा। चीन, रूस और कुछ अन्य क्षेत्रीय ताकतों ने अपने को इस दायित्व से मुक्त ही रखा। कुल मिलाकर कहने का मतलब यह है कि अमेरिका ने इस बात को समझने और उसके अनुरूप निर्णय लेने में देर कर दी कि वो अपनी पॉलिसी के चलते गंवाता जा रहा है और चीन अपनी व्यवहारिक नीतियों के चलते बहुत कुछ हासिल करता जा रहा है। चीन, भारत सहित यूरोपीय देशों ने आर्थिक स्तर पर अमेरिका को जो झटके दिये, उस पर भी निर्णायक रुख दिखाने में अमेरिका ने थोड़ी देर की।

1 ट्रिलियन डॉलर का खर्चा तो अकेले अफगानिस्तान में अमेरिका ने 2001 से 2021 के बीच कर डाला और हर साल 890 बिलियन डॉलर का व्यापारिक घाटा वैश्विक व्यापार में झेला है। वहीं रूस ने पुतिन के नेतृत्व में अपनी वैश्विक क्षेत्रीय भूमिकाओं को नए सिरे से तलाशना शुरु किया और रूस और चीन ने शंघाई सहयोग संगठन के बैनर तले अमेरिका और पश्चिमी देशों पर विश्व व्यापार और क्षेत्रीय राजनीति के मुद्दों पर दबाव बनाना जारी रखा है जिसको अब अमेरिका ने ठीक तरीके से निपटने की ठानी है। इसलिए अब यह माना जा रहा है कि विश्व और क्षेत्रीय राजनीति के विवाद के बिंदुओं पर अमेरिका असंलग्नता की नीति को वरीयता देगा और इन सबमें उलझनें का मौका चीन रूस जैसे देशों को देगा। चीन ने बलोचिस्तान में हज़ारा और अन्य शियाओं और बलूचों का जो संहार साथ ही प्रतिकार देखा है, ऐसा अफगानिस्तान में नहीं दोहराया जा सकता, ऐसा नही कहा जा सकता। चीन उईगर मुस्लिमों के मुद्दे पर तनाव में ज़रूर रहेगा। अफगानिस्तान में रहने वाले उईगुरों के साथ तालिबान कैसा आचरण करता है, यह भी देखने लायक बात होगी।

तालिबानी सत्ता और हिंसा के बीच अफगान शरणार्थी

अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने की बात हो या अमेरिका के सैनिकों की वहाँ से वापसी इस मामले में जिन्हें सबसे ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है वो हैं अफगान शरणार्थी। पड़ोसी देशों के साथ-साथ यूरोपीय देशों में भी अफगान शरणार्थी हैं। यह एक बहुत बड़ा मानवतावादी संकट बन गया है। जिस तरह से अफगान महिलाओं पर अत्याचार हो रहे हैं, ऐसे में अफगान महिलाएं भी शरणार्थी के रूप में अपना जीवन कहीं गुजर बसर कर देना चाहती हैं। अगर आंकड़ों की बात करें तो इस समय पूरी दुनिया में सबसे अधिक अफगान शरणार्थी अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान में हैं। पाकिस्तान में वर्तमान में 1.5 मिलियन पंजीकृत अफगान शरणार्थी हैं और इसके अलावा वहाँ 1 मिलियन ऐसे अफगान शरणार्थी भी हैं जो पंजीकृत नहीं हैं।

जब 1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत संघ की सेनाओं का हमला हुआ तभी से अफगान शरणार्थी पाकिस्तान जाने लगे थे। एक ऐसा समय भी आ गया था जब पाकिस्तान में 4 मिलियन से अधिक अफगान शरणार्थी हो गए थे। हाल के वर्षों में इस संख्या में कमी आई है क्योंकि पाकिस्तान की सरकार ने जबरदस्ती अफगानों को वापस भेजने का कार्य भी किया है। पाकिस्तान ने भी भारत के समान ही 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी अभिसमय पर हस्ताक्षर नही किया है। इसलिए पाकिस्तान में अफगान शरणार्थी कई बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। दिसंबर, 2014 में जब पेशावर में 100 से अधिक स्कूली बच्चों का नरसंहार हुआ था तब पाकिस्तानी अथारीटीज ने अपने यहाँ रिफ्यूजी कैंप को हटाना शुरू कर दिया। अकेले वर्ष 2016 में पाकिस्तान से 365,000 अफगान शरणार्थियों को अफगानिस्तान जबरन वापस भेजा गया था और ह्यूमन राइट्स वॉच ने इसे दुनिया के सबसे बड़े अवैधानिक व्यापक जबरन वापसी की संज्ञा दी थी। उस साल पाकिस्तान से वापस भेजे गए शरणार्थियों में से एक थी शरबत गुल, वही आइकोनिक अफगान लडक़ी जिसकी तस्वीर जून 1985 में नेशनल जियोग्राफिक मैगज़ीन के कवर पर छपी थी।

आज से करीब 42 साल पहले 4 लाख   अफगान नागरिक साम्यवादी नेतृत्व वाले ताराकी और अमीन सरकार की हिंसा के चलते पाकिस्तान चले गए थे। 1980 के अंत तक पाकिस्तान में 4 मिलियन से अधिक अफगान शरणार्थी हो गए थे। फिर अगले चार वर्षों में पाकिस्तान और ईरान में अफगान शरणार्थियों की संख्या 5 मिलियन से भी अधिक हो गई थी।

  • 197९
    में अफगानिस्तान पर सोवियत संघ की सेनाओं का हमला हुआ
  • 2014
    में जब पेशावर में 100 से अधिक स्कूली बच्चों का नरसंहार हुआ
  • १६०००
    अफगान शरणार्थी भारत में रहते है यह जानकारी संयुक्त राष्ट्र ने दी

ईरान में अफगान शरणार्थियों की दूसरी सबसे बड़ी आबादी मौजूद है। पाकिस्तान इस मामले में पहले स्थान पर है। यूएनएचसीआर के आकड़ों के अनुसार, 1.5 से 2 मिलियन के बीच अफगान शरणार्थी ईरान में हैं और किसी दस्तावेज में उनका रिकॉर्ड नही है। इंटरनेशनल आर्गनाइजेशन फॉर माइग्रेशन के अनुसार, साल 2018 में 7 लाख 70 हज़ार अफगान शरणार्थियों को अफगानिस्तान वापस लौटना पड़ा था जबकि 2017 में ईरान से 4 लाख 62 हज़ार अफगान शरणार्थियों को अफगानिस्तान वापस लौटना पड़ा था। चूंकि ईरान की अर्थव्यवस्था में अधिकांश अफगानी इंफॉर्मल सेक्टर में काम करते रहे हैं और अमेरिका द्वारा ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए जाने के चलते भी अफगान शरणार्थियों को अपने देश वापस जाने के लिए बाध्य होना पड़ा। 2020 के संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक भारत में लगभग 16 हज़ार अफगान शरणार्थी रहते हैं जिनमें से अधिकांश दिल्ली में हैं। दिल्ली में खासकर लाजपत नगर अफगान शरणार्थियों के गढ़ के रूप में देखा जाता है। यूरोपीय देशों को इस बात की चिंता है कि कहीं अफगान शरणार्थियों का संकट वैसा ही न हो जाए जैसा 2015 में यूरोप को सीरिया संकट के समय झेलना पड़ा था।

भूमध्यसागर के रास्ते सीरिया के शरणार्थी जिस तरह से यूरोपीय देश में पहुँच रहे थे, उससे कई यूरोपीय देशों में तनाव पैदा हो गया था और वे शरणार्थियों को अपने यहाँ से वापस भेजने या यहाँ तक कि अपनी भूमि पर प्रवेश न करने देने के लिए हर संभव प्रयास करते नजऱ आये थे। यूरोपीय संघ के विदेशी मामलों के उच्च प्रतिनिधि जोसेफ बोर्रेल ने हाल ही में कहा है कि, तालिबान की अफगानिस्तान में सत्ता पर काबिज होने के बाद से बनी राजनीतिक परिस्थितियों के बीच हमें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि इसके चलते यूरोप में बड़े पैमाने पर शरणार्थियों की आवाजाही न शुरू हो जाए। कोविड का संकट झेल रहे यूरोपीय देशों में पहले से ही संसाधनों और अर्थव्यवस्था पर दबाव बना हुआ है, ऐसे में क्या यूरोप शरणार्थियोंं की दूसरी लहर झेल पायेगा। यूरोप के देश किस हद तक मानवतावादी सहयोग करने को तैयार होंगे, यह भी देखने वाली बात होगी। संयुक्त राष्ट्र रिफ्यूजी एजेंसी यूएनएचसीआर के अनुसार वर्ष  2021 के  जनवरी और फरवरी माह में टर्की के प्राधिकारियों द्वारा लगभग 44,00 अफगानों को जो अनियमित दशाओं में रह रहे थे, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। इससे पहले वर्ष 2020 के जनवरी से दिसंबर माह के दौरान  टर्की ने 6,000 अफगानों को उनके देश वापस भेज दिया था। टर्की में लगभग 1 लाख 17 हजार अफगान असाइलम सीकर यानी राजनीतिक शरण या आश्रय वाले और लगभग एक हज़ार अफगान शरणार्थी रहते हैं। इस लिहाज से अफगान संकट से मानवीय और अन्य तरीकों से निपटने में टर्की की भूमिका को भी नजऱंदाज नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि तालिबान और टर्की के बीच संभावित बातचीत के अनुमान भी लगाए जा रहे हैं।

हाल ही में जब 11 सितंबर को 9/11 आतंकी घटना की 20वीं वर्षगांठ का दिन आया तो अमेरिका सहित दुनिया ने भी इस बात पर विचार किया कि अमेरिका ने पिछले 20 सालों में आतंक के खि़लाफ़ अपनी वैश्विक लड़ाई में क्या खोया और क्या पाया? बात इस बात की हो रही है कि तालिबान की ताजपोशी के वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर क्या राजनीतिक, कूटनीतिक या सामरिक परिणाम सामने आए हैं। अमेरिका 9/11 की घटना इसलिए याद रखता है कि पहली बार किसी आतंकी संगठन ने उसकी संप्रभुता को चुनौती दी थी और फिर जिसे नेस्तनाबूद करने के लिए अमेरिका ने अपनी पूरी सैन्य, सामरिक और कूटनीतिक साहस और ऊर्जा झोंक दी थी अब उसी की फिर से सत्ता वापसी हो गई है। अब-जब अमेरिका ने पिछले महीने अफग़़ानिस्तान में अपने सैन्य मिशन को ख़त्म कर दिया है तब से इस निर्णय के संभावित परिणामों पर दुनिया के हर महकमें में चर्चा जारी है। इसी कड़ी में हाल ही में अमेरिका के डिफेंस सेक्रेट्ररी लॉयड ऑस्टिन ने कहा है कि अब अमेरिकी सैनिकों की वापसी और अफगानिस्तान में तालिबान की ताजपोशी के बाद से इस बात की संभावना काफी बढ़ गई है कि अल कायदा आतंकी संगठन एक बार फिर से अफग़़ान भूक्षेत्रों पर अपनी मजबूत पकड़ बना लेगा और उसी मानसकिता और सक्रियता से काम करना शुरू कर देगा जैसा कि उसने आज से 20 साल पहले अमेरिका जैसे देशों के खि़लाफ़ किया था साथ उसके गठजोड़ हक्कानी नेटवर्क के साथ और मजबूत होंगे। तालिबान ने अपनी अंतरिम सरकार के गठन की घोषणा के बाद अपनी सरकार और उससे जुड़े राजनीतिक पदों के लोगों के लिए वैधता की तलाश करनी शुरू कर दी है।

हाल ही में तालिबानी सरकार में शामिल हक्कानी नेताओं को अमेरिका की तरफ से ब्लैकलिस्ट किए जाने पर तालिबान ने आपत्ति जताई है। तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने  इस संबंध में कहा है कि, जिन नेताओं को हमने सरकार में जगह दी है उन्हें ब्लैकलिस्ट कर अमेरिका दोहा समझौते का उल्लंघन कर रहा है। तालिबान की मांग है कि, दोहा समझौते के दौरान मौजूद इस्लामिक अमीरात नेताओं को अब तक ब्लैकलिस्ट से अमेरिका को हटा देना चाहिए था लेकिन अमेरिका ऐसा ना कर उकसाने का काम कर रहा है। वहीं अमेरिका के व्हाइट हाउस प्रेस सेक्रेट्ररी ने हाल ही साफ कर दिया है कि अमेरिका को तालिबान सरकार को मान्यता देने की कोई जल्दी नही है, वह अपने सामरिक हितों के आधार पर ही निर्णय लेगा। तालिबान आज जिस तरीके की राजनीतिक कार्यसंस्कृति को अपना रहा है, जिस तरह से तालिबान ये कह रहा है कि अफग़़ान महिलाएं बच्चों को जन्म देने के लिए हैं न कि अंतरिम सरकार में कैबिनेट मिनिस्टर बनने के लिए, उससे ईरान सहित अफगानिस्तान के अन्य पड़ोसी देशों में इस बात की चिंता बनी हुई है तालिबान समावेशी सहभागितामूलक राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण कैसे करेगा। ईरान सहित अफग़़ानिस्तान के 5 अन्य पड़ोसी देशों -चीन, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज़्बेकिस्तान और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों ने कुछ रोज पहले ही वर्चुअल मीटिंग करते हुए तालिबान के राजकाज के तरीकों, साझे हितों, क्षेत्रीय सुरक्षा पर भी बात की है । ईरान इस बात से तनाव में है कि तालिबान अफग़़ानिस्तान के शियाओं के साथ कैसा बर्ताव करेगा क्योंकि ईरान में करीब 4 मिलियन अफग़़ान शरणार्थी रहते हैं और ईरान एक बड़े रिफ्यूजी क्राइसिस में पुन: फंस सकता है। इस प्रकार सभी देशों की तालिबान को लेकर कुछ न कुछ सुरक्षा आशंकाए हैं जिनके समाधान के लिए देश आंतरिक स्तर पर अपने अपने तरीके से लगे हुए हैं।

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