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तात्या टोपे: भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख सेनानायक, अंग्रेजों के नाक में कर रखा था दम

देश में आजादी का बिगुल फूंकने वाले कई बड़े नामों में एक नाम तात्या टोपे का भी है जिन्होंने न सिर्फ 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी, बल्कि पूरे देश में आजादी की चेतना का सूत्रपात भी किया और गुलामी को अपनी नियति मान चुकी देश की जनता को यह बताया कि आजादी क्या होती है और उसे हासिल करना कितना जरूरी है। बहुत कम लोगों को मालूम है कि तात्या टोपे का असली नाम रामचंद्र पाण्डुरंग टोपे था।

तात्या का जन्म महाराष्ट्र में नासिक के निकट येवला नामक गाँव में एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता पाण्डुरंग राव भट्ट़ (मावलेकर), पेशवा बाजीराव द्वितीय के घरू कर्मचारियों में से थे। इन वर्षों में तात्या पेशवा के दत्तक पुत्र नाना साहब के घनिष्ठ मित्र और सहयोगी बन गए। 1851 में डलहौजी के पहले मार्क्वेस ने नाना साहब को उनके पिता की पेंशन से वंचित कर दिया और इस तरह नाना और तात्या के बीच अंग्रेजों के खिलाफ झगड़ा शुरू हो गया।

तात्या टोपे ने नाना साहब के सहयोग से गुप्त रूप से ब्रिटिश विरोधी विद्रोह का आयोजन किया। मई 1857 में तात्या कानपुर में तैनात ईस्ट इंडिया कंपनी के भारतीय सैनिकों के कमांडर-इन-चीफ बने। तात्या गुरिल्ला योद्धा के रूप में अपने उल्लेखनीय कारनामों के साथ सैन्य मुठभेड़ों में विजयी हुए। बाद में उन्होंने अपना मुख्यालय कालपी में स्थानांतरित कर दिया और ग्वालियर पर कब्जा करने के लिए रानी लक्ष्मी बाई के साथ हाथ मिला लिया। लेकिन इससे पहले कि वह अपनी स्थिति को सुरक्षित कर पाते, उन्हें जनरल रोज ने हरा दिया। यह उनके जीवन का टर्निंग प्वाइंट था। तब से उन्होंने अंग्रेजों और उनके सहयोगियों को परेशान करने के लिए अपनी प्रतिष्ठित गुरिल्ला रणनीति का उपयोग करना शुरू कर दिया।

टोपे ने ब्रिटिश सेना पर अचानक कई छापे मारे और अपनी सेना की हार के बाद वह एक नई सेना बनाने के लिए दूसरी जगह खिसक गए। इस छापेमार युद्ध के दौरान तात्या टोपे ने दुर्गम पहाड़ियों और घाटियों में बरसात से उफनती नदियों और भयानक जंगलों के पार मध्यप्रदेश और राजस्थान में ऐसी लम्बी दौड-दौडी जिसने अंग्रेजी कैम्प में तहलका मचा रखा। बार-बार उन्हें चारों ओर से घेरने का प्रयास किया गया और बार-बार तात्या को लडाइयाँ लडनी पडी, परंतु यह छापामार योद्धा एक विलक्षण सूझ-बूझ से अंग्रेजों के घेरों और जालों के परे निकल गया। हजारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और चालीस-चालीस मील तक एक दिन में घोडों को दौडाया गया, परंतु तात्या टोपे को पकडने में कभी सफलता नहीं मिली।

भारत की स्वाधीनता के लिए तात्या का संघर्ष जारी था। एक बार फिर दुश्मन के विरुद्ध तात्या की महायात्रा शुरु हुई खरगोन से छोटा उदयपुर, बाँसवाडा, जीरापुर, प्रतापगढ, नाहरगढ होते हुए वे इन्दरगढ पहुँचे। इन्दरगढ में उन्हें नेपियर, शाबर्स, समरसेट, स्मिथ, माइकेल और हार्नर नामक ब्रिगेडियर और उससे भी ऊँचे सैनिक अधिकारियों ने हर एक दिशा से घेर लिया। बचकर निकलने का कोई रास्ता नहीं था, लेकिन तात्या में अपार धीरज और सूझ-बूझ थी। अंग्रेजों के इस कठिन और असंभव घेरे को तोडकर वे जयपुर की ओर भागे। देवास और शिकार में उन्हें अंग्रेजों से पराजित होना पडा। अब उन्हें निराश होकर परोन के जंगल में शरण लेने को विवश होना पडा।

परोन के जंगल में तात्या टोपे के साथ विश्वासघात हुआ। नरवर का राजा मानसिंह अंग्रेजों से मिल गया और उसकी गद्दारी के कारण तात्या 7 अप्रैल, 1859 को सोते में पकड लिए गये। रणबाँकुरे तात्या को कोई जागते हुए नहीं पकड सका। विद्रोह और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लडने के आरोप में 15 अप्रैल, 1859 को शिवपुरी में तात्या का कोर्ट मार्शल किया गया। कोर्ट मार्शल के सब सदस्य अंग्रेज थे। परिणाम जाहिर था, उन्हें मौत की सजा दी गयी।

शिवपुरी के किले में उन्हें तीन दिन बंद रखा गया। 18 अप्रैल को शाम चार बजे तात्या को अंग्रेज कंपनी की सुरक्षा में बाहर लाया गया और हजारों लोगों की उपस्थिति में खुले मैदान में फाँसी पर लटका दिया गया। कहते हैं तात्या फाँसी के चबूतरे पर दृढ कदमों से ऊपर चढे और फाँसी के फंदे में स्वयं अपना गला डाल दिया। इस प्रकार तात्या मध्यप्रदेश की मिट्टी का अंग बन गये।

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