–जयसिंह रावत
भारत वर्ष के दीर्घजीवी राजवंशों में से एक, पंवार वंश की रियासत टिहरी कभी हिमालयी रियासतों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण रियासत मानी जाती थी, इसलिए टिहरी नरेश को महाराजा का दर्जा हासिल था। टिहरी नरेश का प्रोटोकॉल 7 तोपों की सलामी का था। इसीलिए सभी हिमालयी रियासतों में इसका दबदबा भी था। इसी दबदबे के कारण हिमाचल प्रदेश के सबसे बड़े नेता डॉ. यशवंत परमार ने टिहरी को हिमाचल की शुरुआती 28 रियासतों से दूर ही रखा, जबकि भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से टिहरी संयुक्त प्रान्त की बजाय हिमाचल की रियासतों के करीब होने के साथ ही इन रियासतों से रोटी बेटी के संबंध भी थे और टिहरी नरेश कभी-कभी अपने छोटे आकार के पड़ोसियों की आर्थिक मदद भी करते थे। इस टिहरी रियासत के भारत संघ या संयुक्त प्रान्त (अब उत्तर प्रदेश) में विलय की प्रक्रिया भी इतिहास के पन्नों में गुम हो गयी, जिस कारण इस मुद्दे को लेकर कुछ भ्रांतियां भी रही हैं। हमारे उत्तराखण्ड की नयी पीढ़ी को विलय की उस ऐतिहासिक प्रक्रिया और राजपाठ छिन जाने के बाद भी राज परिवार की शाही स्थिति से अवगत कराने के लिए यह संक्षिप्त आलेख प्रस्तुत किया जा रहा है। ऐतिहासिक प्रमाणों सहित विस्तृत जानकारी के लिये मेरी पुस्तक ‘टिहरी राज्य के ऐतिहासिक जन विद्रोह’ देखी जा सकती है।
देशी रियासतों के विलय से पहले उनके साथ स्टैंड स्टिल समझौता हुआ जिसका अभिप्राय जो जैसा है वैसा ही रहेगा। उसके बाद इन्स्ट्रूमेंट आफ एक्सेशन समझौता हुआ जिसमें देशी शासकों को अपनी रियासत में कुछ शर्तों के साथ शासक बने रहने की थी। ये वही शर्तें थीं जो कि ब्रिटिश क्राउन के साथ पैरामौंट्सी के लिए थी। इसमें विदेश, रक्षा, रेलवे और संचार जैसे 18 मामले थे जिन पर देशी रियासतें अमल करने के लिए अधिकृत नहीं थीं। टिहरी के महाराजा ने इस समझाौते पर 8 अगस्त 1947 को हस्ताक्षर किये थे और गवर्नर जनरल में प्रति हस्ताक्षर 16 अगस्त 1947 को किये थे। रियासतों की यह वही स्थिति थी जो कि जो कि उनकी ब्रिटिश राज में थी। 15 अगस्त 1947 तक देश में लगभग 133 देशी राज्य भारत संघ में विलय की प्रक्रिया पूरी कर चुके थे, लेकिन टिहरी नरेश उसके बाद भी काफी समय तक राजपाठ के वापस मिलने की आस लगाये रहे। इसलिये उन्होंने दो साल बाद यह प्रक्रिया पूरी की। टिहरी विधानसभा ने तो रियासत को एक पृथक इकाई के रूप में बरकरार रखने का प्रस्ताव पारित कर दिया था।
इससे पहले 28 जनवरी 1948 को त्रिपक्षीय समझौते के तहत महाराजा के अधीन अन्तरिम सरकार और विधानसभा पर सहमति बन गयी थी। फिर भी महाराजा ने 18 मई 1949 को दिल्ली में रियासती मंत्रालय के सलाहकार वपल पंगुन्नी मेनन (वीपी मेनन) के साथ रियासत के विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर लिये। इस संधि के तहत टिहरी रियासत एक जिले के रूप में 1 अगस्त 1949 को संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) का अंग बन गयी। चूंकि टिहरी का महाराजा भी 7 तोपों की सलामी का हकदार था, इसलिए उस प्रोटोकाल के तहत उनको तीन लाख सालाना का राजभत्ता (प्रीवि पर्स) स्वीकृत हुआ। कुल आठ अनुच्छेद वाला यह विलय समझौता भारत के गवर्नर जनरल और महाराजा के बीच हुआ जिस पर गवर्नर जनरल की ओर से वी.पी. मेनन ने और टिहरी राज्य की ओर से महाराजा मानवेन्द्र शाह ने हस्ताक्षर किये। समझौते के अनुच्छेद 2 के तहत राजभत्ता की रकम उनके निजी स्टाफ के वेतन आदि आवासों के रख रखाव, विवाह आदि समारोहों के खर्चों के लिए दी गयी।
महाराजा को यह राशि प्रतिवर्ष चार समान किश्तों में बिल पेश करने पर अग्रिम प्राप्त होनी थी। इस समझौते के अनुच्छेद 3 के तहत राज परिवार की तमाम निजी सम्पत्तियों पर भी उनको स्वामित्व का अधिकार दिया गया, लेकिन इसके लिए महाराजा को 30 जून 1949 तक अपनी तमाम निजी चल-अचल सम्पत्तियों का ब्योरा भारत सरकार को देना था। इसमें आभूषणों के साथ ही नकद राशि का ब्योरा भी शामिल था। समझौते के अनुच्छेद 4 के तहत न केवल महाराजा को बल्कि महारानी, पूर्व नरेश नरेन्द्र शाह, राजमाता, युवराज और युवरानी को 15 अगस्त 1947 से पहले जो निजी विशेषाधिकार हासिल थे, वे भी रियासत के अन्दर तथा बाहर जारी रखे गये। अनुच्छेद-5 के तहत राजगद्दी के उत्तराधिकार की भी गारंटी दी गयी थी। मतलब यह कि प्रजातंत्र व्यवस्था कायम होने के बावजूद महाराजा का उत्तराधिकारी राजगद्दी पर बैठ सकता था, ताकि महाराजा के निधन के बाद सुविधायें और सम्मान उसके उत्तराधिकारी को मिल सके।
अनुच्छेद 6 में कहा गया था कि महाराजा के पूर्व के किसी भी कृत्य के लिए देश की किसी भी अदालत में उस पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता था। इस प्रावधान के चलते महाराजा तिलाड़ी और कीर्तिनगर के जैसे काण्डों में फंसने से बच गया। इसी प्रकार अनुच्छेद 8 के तहत किसी भी राज्यकर्मचारी पर उसके पूर्व के कृत्य के खिलाफ भारत सरकार कार्रवाई नहीं कर सकती थी। अनुच्छेद 7 में रियासत के कर्मचारियों की सेवाएं जारी रखने तथा उन पर लागू पेंशन और भत्ते जारी रखने की गारण्टी गवर्नर जनरल की ओर से विलीनीकरण समझौते में दी गयी थी।