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आतंकवाद सिर्फ विस्फोट नहीं, यह जहर है विचार का!

दिल्ली के लाल किले की प्राचीर पर फहराता तिरंगा भारत की आज़ादी, अस्मिता और अडिग लोकतंत्र का प्रतीक है। लेकिन जब इसी गौरवशाली धरोहर पर आतंक का साया पड़ा, तो वह विस्फोट केवल दीवारों को नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों के मन को भी झकझोर गया। लाल किला बम धमाका किसी एक आतंकी घटना का नाम भर नहीं था, यह उस विचारधारा की भयावह परिणति थी जो नफ़रत, असहिष्णुता और धार्मिक उन्माद को हथियार बनाकर राष्ट्र की आत्मा पर प्रहार करती है। इस घटना ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा किया कि आतंकवाद केवल गोलियों या बमों से नहीं, बल्कि उस मानसिकता से जन्म लेता है जो ‘विभाजन’ में विश्वास रखती है। आज जब न्यायिक प्रक्रिया अपने निष्कर्ष की ओर बढ़ रही है, तब यह ज़रूरी है कि हम इस हादसे को केवल एक आपराधिक प्रकरण नहीं, बल्कि एक वैचारिक युद्ध के रूप में देखें, जहां जीत भारत के एकजुट विवेक, साहस और सहिष्णुता की ही होनी चाहिए. 6 दिसंबर की कटाक्ष हमें याद दिलाती है कि आतंकवाद सिर्फ़ विस्फोट नहीं है, विचारधारा की रणनीति, प्रतीक स्थल पर वार, समय-निर्धारण की चाल है। लाल किला या राम मंदिर जैसे प्रतीक अब सिर्फ सांस्कृतिक धरोहर नहीं रह गए; वे सुरक्षा-विचार के रणभूमि बन चुके हैं। अगर हम सोचें कि हमारी सुरक्षा सिर्फ बंदूकों, बमों या चौकियों से पूरी हो जाएगी, तो हम भूल जाएंगे कि असली चुनौती क्या हम उस विचार-दौर को समझ पाए हैं जिसमें आतंकी घूम रहे हैं। यह साज़िश हमें न सिर्फ झकझोर कर गई है, बल्कि हमारे सामने रिव्यू का ऐलान कर रही है, हमें अपनी रक्षा प्रणाली, विचार-चेतना और राष्ट्र-संवेदना को एक नए रूप में तैयार करना होगा। देश जागा हुआ है। अब जरूरत है, भरोसा नहीं, प्रत्याशा की, भय नहीं, सतर्कता की; और असहाय नहीं, सक्रिय भागीदारी की।

सुरेश गांधी

फिरहाल, देश की राजधानी दिल्ली में हुए विस्फोट ने हमें बस एक बम धमाके की याद नहीं दी, बल्कि एक दहशतनाक साज़िश की झलक दिखाई, जो रंग बदल चुकी है। अब जांच के नवीन तथ्यों से सामने आ रहा है कि यह केवल ‘लाल किला’ के समीप हुआ हादसा नहीं था, बल्कि 6 दिसंबर बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी पर एक बड़े हमले की तैयारी थी, जिसके लक्षित स्थल में संभवतः राम मंदिर का उल्लेख भी था। जांचकर्ता अब इस दिशा में मिले सुरागों का विश्लेषण कर रहे हैं, फरीदाबाद मॉड्यूल, कश्मीर-हरियाणा-यूपी तक फैली नेटवर्क, और एक सफेदपोश आतंकी मॉड्यूल का निशान जो शिक्षित-प्रोफ़ेशनल लोगों से जुड़ा था। स्रोतों के मुताबिक, मुख्य संदेही डॉक्टर उमर नबी ने इस साजिश को दिसंबर की शुरुआत में अंजाम देने का इरादा जताया था। इस तथ्य ने इस धमाके को सिर्फ ‘सुरक्षा चूक’ नहीं, बल्कि विचारधारा और सामरिक तैयारी का प्रदर्शन बना कर रख दिया है। हम उन सवालों से सामना कर रहे हैं जिनसे हम अक्सर आंखें बंद रख लेते थेः क्या हमारी सुरक्षा-विचार प्रणाली पर्याप्त है? क्या सिर्फ बम और विस्फोट से खतरा खत्म हो जाता है? या असली लड़ाई विचारों, योजनाओं और समय के साथ होती है?

जांच में अब सामने आया है कि धमाके के पीछे सिर्फ लाल किला क्षेत्र नहीं बल्कि दूसरे संवेदनशील स्थल, विशेषकर राम मंदिर-सम्बन्धित अवसर को ध्यान में रखकर समय-निर्धारण किया गया था। कश्मीर में पुलवामा जिले का निवासी डॉ. उमर नबी, जिसने साधारण शिक्षण और चिकित्सा क्षेत्र से शुरुआत की थी, अब मुख्य संदिग्ध के रूप में खड़ा है। फरीदाबाद में मॉड्यूल के अन्दर 2,900 किग्रा से अधिक विस्फोटक सामग्री और टाइमर्स बरामद हुए हैं, यह संकेत है कि धमाका मात्र क्षण-भंगुर हमला नहीं, व्यापक योजना का हिस्सा था। जांच एजेंसियों ने कार के उपयोग, मस्जिद में तीन-घंटे ठहराव, इंटरनेट-ट्यूटोरियल्स द्वारा वीबीआईडी (वाहन आधारित विस्फोटक उपकरण) बनाने की कोडब्लॉक्स और हाई-प्रोफाइल प्रतीक स्थलों के आसपास जांच को प्रमुखता दी है। इस साजिश ने हमें यह याद दिलाया है कि आतंकवाद अब केवल गोलियों या बमों से सीमित नहीं रहा, यह विचार से युद्ध कर रहा है, उस विचार से जो समय-सारणी, प्रतीक और जनमानस को निशाना बनाता है। जब हम जैश-ए-मोहम्मद जैसे संगठनों की खुफिया सक्रियता और आतंकी मॉड्यूल की भारत-भीतरी जड़ों को देखते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि केवल बाहरी घुसपैठ नहीं बल्कि भीतरी रडार की कमजोरी भी एक बड़ा जोखिम है। लाल किला, राम मंदिर, बाबरी मस्जिद जैसे प्रतीक स्थल आतंकवाद के दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील हैं, इसलिए यहां की सुरक्षा सिर्फ तंत्र-निर्माण नहीं, वैचारिक जागरूकता, समय-निर्धारण की विवेचना और संकेत-शेयरिंग से जुड़ी होनी चाहिए।

हास्य नहीं कि आतंकी मॉड्यूल अब शिक्षित-पेशेवर लोगों को भरोसे में ले रहा है। उन्होंने विश्वविद्यालय परिसर, अध्यापन-स्थान, इंटरनेट प्लेटफार्म और सोशल ग्रुप्स को इस्तेमाल किया। इसने सुरक्षा तंत्र के दृष्टिकोण को चुनौती दी है। प्रतीक स्थलों की सुरक्षा को फिर-से समीक्षा की जानी चाहिए, सिर्फ कड़ी पुलिसिंग नहीं, बल्कि घड़ी-घड़ी की निगरानी, सीसीटीवी फुटेज-एनालिसिस और संदिग्ध ठहराव एवं व्यवहार-ट्रैकिंग। शिक्षा संस्थानों तथा मेडिकल-कॉलेजों में शोध-गीत के रूप में आतंक-जागरुकता को शामिल करना होगा, विशेषकर उन छात्रों-शिक्षकों के लिए जो ‘सफेदपोश’ नेटवर्क का हिस्सा बन सकते हैं। जन-भागीदारी को बढ़ावा देना होगा, साधारण नागरिकों को यह समझना चाहिए कि आतंक सिर्फ ‘घर से बाहर’ की समस्या नहीं है; जब किसी चिकित्सक-शिक्षक-युवा का रुख बदल जाए, तो समाज भी लक्ष्य बन जाता है। मीडिया और सूचना-तंत्र को स्पष्ट और संयमित रहना होगा, अफवाह या असत्य जानकारी आतंक को बढ़ावा देती है। सरकार को समय-निर्धारित वारदातों (जैसे 6 दिसंबर), प्रतीक स्थलों और त्योहार-कालीन सुरक्षा को प्राथमिकता देनी होगी, कोई भी योजनाबद्ध हमला “अचानक” नहीं होता, संकेत पहले मिलते हैं।

मतलब साफ है दिल्ली के प्रतिष्ठित स्मारक लाल किला के बगल में हुए कार बम धमाके ने सिर्फ इमारतों को नहीं हिलाया, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा की नींव को हिलाने की चेतावनी भी दी है। जब राजधानी के एक व्यस्त-सिग्नल पर धीमी गति से आ रही एक कार धमाके का केंद्र बन जाती है, तो यह सामान्य हादसे से कहीं आगे, वाद और विचार की लड़ाई बन जाती है। इस हमले के बाद सामने आए तथ्यों ने संकेत दिए हैं, यह कोई अचानक दुर्घटना नहीं, बल्कि लंबे समय से चल रही योजना का हिस्सा था. जिसमें शामिल थे डॉक्टर, दमकल की नहीं बल्कि आतंक की दुकान से जुड़े हाथ, और एक सफ़ेदपोश मॉड्यूल जिसने विश्वविद्यालय-कैंपस से निकलकर धमाके की सीमा तक कदम बढ़ाया। लाल किला सिर्फ एक पुरातात्विक स्थल नहीं है, यह हमारी आज़ादी, हमारे संविधान और हमारी एकता का प्रतीक है। इस स्थल के समीप विस्फोट का अर्थ इसलिए बढ़ जाता है। यह दर्शाता है कि आतंकवाद सिर्फ विरोधियों की गोली या बम नहीं, बल्कि नैतिक और वैचारिक अस्थिरता की चाबी है। विस्फोट के समय आई-20 कार धीमी गति से सिग्नल के पास आकर ठहरी थी, फिर धमाका हुआ, आसपास खड़ी गाड़ियां जल उठीं, मलबे में तब्दील हो गईं। शुरुआती जांचों से स्पष्ट हुआ है कि विस्फोटक अस्थिर था, आवश्यक शरैदान नहीं जुड़े थे. यानी इसे पूरी तरह हमले के लिए तैयार नहीं किया गया था। यह तथ्य हमें संकेत देता है कि हमले की योजना तो सख़्त थी, पर क्रियान्वयन में अधूरी तैयारी थी। अधूरापन अच्छा नहीं है–यह संभवतः हमारी सुरक्षा-प्रणाली की कमजोरी का ऐलान है। यह हमला किसी पुराने गैंग की पुरानी चाल नहीं थी। शुरुआती जांच से पता चला है कि मॉड्यूल में शामिल थे डॉक्टर, शिक्षित लोग, जिनका चिन्हित काम सिर्फ चिकित्सा या पढ़ाई नहीं, बल्कि कट्टर वैचारिक बदलाव का माध्यम बनना था। इस तरह का “सफेदपोश आतंकवाद” अब नए युग का चेहरा बन चुका है।

उदाहरण के लिए, दस्तावेज बताते हैं कि कार का चालक डॉ. उमर नबी, पुलवामा का निवासी, एक मेडिकल कॉलेज से शिक्षित रहा। बाद में वो फैरीदाबाद स्थित विश्वविद्यालय में था, और उसी मॉड्यूल से जुड़ता पाया गया, जिसने करीब 2,900 किलोग्राम विस्फोटक और अन्य सामग्री जुटाई थी। मतलब साफ है, खतरा सिर्फ बाहरी आतंकियों का नहीं, भीतरी आतंकी चेतना का भी है। जब शिक्षित, प्रतिष्ठित व्यक्ति इस दिशा में मुड़ते हैं, तो उनकी पहुंच और असर व्यापक होता है। सुरक्षा एजेंसियों की तरफ से एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष सामने आया है, विस्फोटक उपकरण पूरी तरह तैयार नहीं था। इसे या तो जल्दबाज़ी में असेंबल किया गया था, या योजना में बदलाव आया था। अधिकारी बताते हैं : विस्फोट स्थल पर गहरा गड्ढा नहीं बना। छर्रों के निशान नहीं मिले। कार धीमी गति से सिग्नल पर आकर ठहरी थी, कोई सीधे टक्कर नहीं दी गई थी। यह सब हमें यह संकेत देता है कि हमले का उद्देश्य बड़ा था, लेकिन क्रियान्वयन में चूक हुई। एक अन्य रूप से कहें तो हमें अलार्मेत किया गया था, लेकिन तैयारी उसी अनुरूप नहीं थी। यही चिंताजनक बात है। घटना के बाद सरकार ने त्वरित कार्रवाई की। अमित शाह द्वारा उच्चस्तरीय बैठक बुलायी गयी, हमला राष्ट्रीय सुरक्षा को हानी पहुँचाने वाला माना गया और मामला राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एएनआई) को सौंपा गया। साथ ही राजधानी के प्रमुख ट्रांज़िट पॉइंट्स, मेट्रो स्टेशन, हवाई अड्डे और रेलवे गेट्स पर सुरक्षा चेक बढ़ा दी गई. वाहन चेक, फेस रिकग्निशन, ज़ोन स्कैन, सब पर ध्यान गया। लेकिन इन कदमों के बीच एक महत्वपूर्ण सवाल बना हुआ है, क्या हमारी इंटेलिजेंस-नेटवर्क और निगरानी व्यवस्था पर्याप्त थी? जब इतनी बड़ी सामग्री जमा की जा सकती थी और इतने अधिकार वाले लोग शामिल हो सकते थे, तो कहां कमी हुई? यह सवाल न सिर्फ वक्त की मांग है, बल्कि नीति-निर्धारकों के लिए चेतावनी भी है।

आतंकवाद के पीछे का असली रणक्षेत्र

हमने अक्सर देखा है कि आतंकवाद सिर्फ बम और गोली से नहीं हमला करता, वह विचारों से भी हमला करता है। जब चिकित्सक, शिक्षक, युवक-युवतियाँ इस दिशा में मुड़ेंगे, तो उसकी पहुँच बेहद गहरी होती है। यहां हमें तीन बिंदुओं पर विचार करना होगा : प्रेरणा : आतंकी विचारधारा युवाओं में कैसे प्रवेश करती है? प्रक्रिया, कैसे संस्थाएं, नेटवर्क, इंटरनेट टेक्नोलॉजी इस दिशा में योगदान दे रही हैं? प्रतिक्रिया : हमारा सामाजिक-शिक्षात्मक जवाब क्या है? लाल किला धमाके को सिर्फ एक सुरक्षा चूक नहीं कह सकते, यह विचारधारा की चूक भी है, जहां हमने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया कि कैसे हमारे शिक्षण-संस्थान, चिंतन-मंच, इंटरनेट ग्रुप्स ऐसे एजेंडों का गढ़ बनते जा रहे हैं। इस घटना का सबसे महत्वपूर्ण सबक यह है, हमारे पास केवल रखवाली-युक्ति पर्याप्त नहीं है; हमें राष्ट्रीय चेतना-युक्त रखवाली चाहिए। कुछ विशेष सुझाव इस प्रकार हैं : तत्काल सुरक्षा कार्रवाईः संवेदनशील स्थलों की डबल-लोकेशन सुरक्षा, वाहनों की रैंकिंग, वरिष्ठ नागरिकों की आवाजाही में निगरानी। इंटेलिजेंस-अपग्रेडः डेटा एनालिटिक्स, सोशल मीडिया मॉनिटरिंग, और इनपुट-शेयरिंग सिस्टम राज्यों-केंद्रों में मजबूत होना चाहिए। शिक्षा-मीडिया पहलः स्कूलों-कॉलेजों में आतंकवाद-जागरुकता पाठ्यक्रम, सोशल मीडिया पर निरंतर आउटरीच। आम नागरिकों में सतर्कता का भाव जागरूक करना; “कुछ असामान्य दिखा तो संवाद करें”-समिति का गठन।

विचार-वलोकन : कट्टरता, अलगाववाद, धार्मिक उन्माद-विरोधी बातें को सार्वजनिक संवाद का केन्द्र बनाना, ताकि विचार पर हमले को रोका जा सके। लाल किला का विशाल प्रांगण शाम के समय एक शांत-खिंचा दृश्य प्रस्तुत कर रहा था, लेकिन उस शांत आकाश के नीचे एक विस्फोट ने हमें हिलाकर रख दिया। हमारे प्रतीक स्थल पर हमले का मतलब सिर्फ भवनों की चोट नहीं था, वह राष्ट्र की आत्मा पर वार था। लेकिन हमें यह याद रखना है कि आत्मा घायल नहीं होती, वह सशक्त होती है। आज हमें सिर्फ ठोस सुरक्षा-प्रोटोकॉल की नहीं, बल्कि ठोस विचार-सुरक्षा की आवश्यकता है। जब तक हम यह स्वीकार नहीं करते कि आतंकवादी सिर्फ गोली से नहीं, विचार से भी हमला करते हैं, तब तक हमारी तैयारी आधी-अधूरी रहेगी। लाल किला आज भी खड़ा है, स्मृति के साथ, चेतना के साथ, और प्रत्याशा के साथ। हमें उसकी दीवारों का खामोश संदेश सुनना होगा, हमें सजग रहना है, तैयार रहना है, और कभी नहीं झुकना है। इस हमले ने हमें डराया भी है, पर वही डर हमें जागने का मौका भी देता है। आइए, डर को सतर्कता में बदला जाए। हम सिर्फ आतंक को न समझें,, हम आतंकवाद की जड़ों का सामना करें। और सबसे बढ़कर. आइए, हम भारत के विचार-रक्षा-क्षेत्र को सुदृढ़ बनाएं, क्योंकि यहां से किसी बम से अधिक खतरनाक हमला होता है, विचारों का हमला।

लाल किला वह स्थान है, जहाँ से हर वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री तिरंगा फहराकर देशवासियों को संबोधित करते हैं। ऐसे प्रतीक स्थल पर हमला, पाकिस्तान प्रायोजित आतंक के मंसूबों की पोल खोलता है। बाद में जांच में स्पष्ट हुआ कि यह हमला लश्कर-ए-तैयबा के आतंकियों द्वारा किया गया था, जिनका उद्देश्य भारत की जनता के मनोबल को तोड़ना था। लाल किला हमला केवल एक आतंकी ‘एक्शन’ नहीं था, बल्कि उस लंबे एजेंडे का हिस्सा था जो भारत को अस्थिर करने के लिए सीमाओं के पार से रचा गया था। लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और हिजबुल मुजाहिदीन जैसे संगठनों ने 90 के दशक के अंत से ही भारत के प्रमुख सैन्य और सांस्कृतिक स्थलों को निशाना बनाना शुरू किया था। इनके पीछे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की गहरी भूमिका सामने आई। उद्देश्य थाकृभारत के मनोबल को गिराना, धार्मिक ध्रुवीकरण को बढ़ाना और देश की एकता पर वार करना। लेकिन लाल किला धमाका इस एजेंडे की असफल कोशिश साबित हुआ, क्योंकि देश न केवल एकजुट रहा बल्कि न्यायिक प्रणाली ने धैर्यपूर्वक अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया।

दिल्ली की दीवारों से निकला संदेश
लाल किला केवल एक ऐतिहासिक स्मारक नहीं है, बल्कि यह भारत की आत्मा का दर्पण है। जब उस दीवार पर गोलियों के निशान पड़े, तो वे हर भारतीय के दिल पर गहरे घाव बन गए। परंतु यही दीवारें आज भी खड़ी हैं, यह साबित करने के लिए कि भारत का इतिहास अजेय है। लाल किले की प्राचीर से जब प्रधानमंत्री स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र को संबोधित करते हैं, तो वह संदेश केवल उत्सव का नहीं, बल्कि दृढ़ संकल्प का होता है, हम हर हमले के बाद और मजबूत होकर उठते हैं।

आतंकवाद और राजनीति का दोहरापन
दुखद है कि कई बार आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दे भी राजनीतिक बहसों में उलझ जाते हैं। कभी मानवाधिकारों के नाम पर, तो कभी न्यायिक समीक्षा के बहाने, आतंक के दोषियों के प्रति सहानुभूति दिखाई जाती है। लेकिन राष्ट्रहित के प्रश्न पर कोई समझौता नहीं हो सकता। आतंक के प्रति “शून्य सहिष्णुता” की नीति केवल प्रशासनिक नारा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आवश्यकता है। लाल किला धमाके जैसे मामलों में हमें यह स्पष्ट संदेश देना होगा कि भारत का कानून, लोकतंत्र और जनता आतंकवाद को किसी भी रूप में बर्दाश्त नहीं करेगी।

युवा पीढ़ी के लिए सबक
आज के डिजिटल युग में आतंक का चेहरा बदल चुका है। अब यह सोशल मीडिया, साइबर स्पेस और वैचारिक प्रचार के ज़रिए युवाओं के मन में घुसपैठ करता है। लाल किला ब्लास्ट का सबक यही है कि आतंक के बीज अक्सर विचारों के स्तर पर बोए जाते हैं। अगर युवाओं को सही शिक्षा, रोजगार और राष्ट्र चेतना से जोड़ा जाए, तो आतंकवाद की जमीन ही बंजर हो जाएगी। राष्ट्रभक्ति, समरसता और विवेक की शिक्षा, यही आधुनिक भारत की असली ‘सुरक्षा नीति’ होनी चाहिए।

न्याय की जीत और यादों का दर्द
आज जबकि अदालत का फैसला स्पष्ट कर चुका है और दोषियों को दंड मिला है, फिर भी उस रात का दर्द मिटाया नहीं जा सकता। तीन जवानों के परिवार आज भी उस पीड़ा को याद करते हैं, जब उनके अपने देश की राजधानी में शहीद हो गए। उनकी शहादत ने हमें यह सिखाया कि स्वतंत्रता केवल मनाने की चीज़ नहीं, बल्कि उसे हर दिन सुरक्षित रखने का कर्तव्य है।

आतंक के खिलाफ राष्ट्रीय एकजुटता
भारत ने हमेशा आतंक के खिलाफ वैश्विक स्तर पर आवाज उठाई है। लाल किला ब्लास्ट के बाद भारत ने न केवल सुरक्षा तंत्र को मजबूत किया, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कूटनीतिक दबाव बनाया कि आतंकवाद को किसी भी रूप में पनाह न मिले। आज जब दुनिया फिर से उग्रवाद और चरमपंथ के दौर से गुजर रही है, तब भारत का अनुभव और सहिष्णुता बाकी देशों के लिए उदाहरण बन सकती है। लाल किला धमाके का असली सबक यही है, आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, लेकिन आतंक के खिलाफ लड़ाई धर्म, संविधान और मानवता की रक्षा की लड़ाई है।

हमारी चेतना का प्रहरी है लाल किला
लाल किला आज भी उसी शान से खड़ा है, जैसे शताब्दियों से खड़ा रहा है। उसकी दीवारों ने मुग़ल साम्राज्य का उत्थान-पतन देखा, अंग्रेज़ी हुकूमत की ज्यादतियाँ झेलीं, और अब आतंकवाद के वार भी सहे। लेकिन वह झुका नहीं। क्योंकि भारत की आत्मा अजर-अमर है। लाल किला धमाका हमें यह याद दिलाता है कि भारत केवल एक भूगोल नहीं, बल्कि एक विचार है कृ शांति का, सहिष्णुता का, और न्याय का। जो इस विचार को मिटाने की कोशिश करेगा, वह खुद इतिहास की राख में खो जाएगा। और यही इस घटना का सबसे बड़ा सबक है, आतंकवाद सिर्फ विस्फोट नहीं, बल्कि विचार का ज़हर है। और इस ज़हर का इलाज है, भारत की अखंड चेतना, उसकी एकता, और उसका अटूट विश्वास।

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