“श्रीकृष्ण की पावन नगरी मथुरा में श्रीराम चर्चा का वो अनूठा और मार्मिक प्रसंग”
बात बीती शताब्दी के आख़िरी दशक की है। साल रहा होगा कोई 1991/92 का। हम सपत्नीक कृष्णनगरी के प्रवास पर थे और लखनऊ से मथुरा गए थे, एक कोई गुरुभाई और साथ थे, नाम व चेहरा भूल रहा हूँ। यदि पूरा नहीं भूला हूँ तो वह लखनऊ-सीतापुर मार्ग पर स्थित बक्शी का तालाब के देवरईकला गाँव निवासी श्री गिरिजा शंकर तिवारी जी थे। हम गायत्री तपोभूमि में ठहरे थे और वहाँ से अखण्ड ज्योति संस्थान को जाना था; सो रिक्शा वाले से पूछा। हमें लगा कि वह पैसा ज़्यादा माँग रहा है। अतः हमने १-२ अन्य रिक्शा चालकों से बात की। सबने लगभग एक जैसा उत्तर दिया। कुछ ने तो और ज्यादा मांग लिए थे।
गायत्री तपोभूमि के बाहर वहीं पर बायीं ओर ताँगा लिए हुए गहरे सांवले रंग के लम्बे से एक बुजुर्ग व्यक्ति खड़े थे। उन्होंने हमें आवाज़ लगायी- लल्ला! इधर आओ। हम उनकी ओर बढ़ गए, उनने पूछा- घीयामण्डी चलोगे? हमने कहा- हाँ। वह बोले- बैठ जाओ। पैसा कितना लोगे बाबा? हमने पूछा। उन्होंने बड़े प्यार से हमारी ओर देखा और आँखों के इशारे से कहा- बैठ जाओ। फिर मीठी सी बृजभाषा में वे बोले- लल्ला! गुरुदेव के शिष्य हो, हम ले चलेंगे। हम और प्रेमलता जी सामने की सीट पर बैठ गए और हमारे वो साथी पीछे की सीट पर उल्टी दिशा की ओर मुँह करके बैठे।
ताँगा चल पड़ा। तिक-तिक की आवाज़ करते हुए बाबा घोड़े को हांक रहे थे और ताँगा गति पकड़ता जा रहा था। हमारी इच्छा हुई कि बाबा से बातें करूँ. सो एक साथ तीन सवाल पूछ लिये- बाबा, आप मथुरा के ही हैं? नाम क्या है? कितने बरस हो गए ताँगा चलाते हुए? उन्होंने जवाब दिया- शंकर नाम है मेरा, मथुरा में जन्मा हूँ और 40-45 साल से ताँगा चला रहा हूँ। हमारी जिज्ञासा बढ़ी, पूछ लिया- आपने तो गुरुदेव पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य को अनेक बार देखा होगा?
बाबा बोले- हज़ारों बार। हमने अग़ला सवाल दागा- क्या कभी परम पूज्य गुरुदेव आपके ताँगे पर बैठे? बाबा चुप रहे। हमने फिर पूछ लिया- बाबा, बताओ ना! गुरुदेव आपके ताँगे पर कभी बैठे? तिक-तिक, ही-ही की आवाज के साथ सामने सड़क की ओर मुँह और हमारी ओर पीठ किए अपने आसन पर बैठे शंकर बाबा बोले- पचासों बार…!!! फिर हमारी ओर मुँह घुमाकर देखा और घरघराती आवाज़ में बोले- “लेकिन इस बार केवट चूक गया, वह अपने श्रीराम को पहचान नहीं पाया; वह तो ‘अठन्नी’ के चक्कर में पड़ा रह गया। हमने देखा था- उस समय शंकर बाबा की लाल-लाल आँखें गीली थीं और वह रो रहे थे। हम तीनों और वे बाबा फिर थोड़ी देर तक कुछ बोल नहीं पाए…!!!
बाबा ज़रा संयत हुए और बोले- आचार्य जी मुझे अठन्नी देते और मैं ले लेता। वह बोले- जब गुरुदेव मथुरा छोड़कर हरिद्वार चले गए, तब हमें उनका विराट स्वरूप समझ आया। तब हम बहुत पछताए। हमसे बोले- लल्ला! तब से उस गलती का प्रायश्चित कर रहा हूँ और यथासम्भव श्रीराम के वानर-भालू आप लोगों को ही इस ताँगे पर ले जाता हूँ। कोई ज़बरदस्ती कुछ दे देता है तो ले लेता हूँ अन्यथा यह हमारी ओर से गुरुजी की सेवा है, जिसे मैं शरीर चलते अन्तिम समय तक करता रहूँगा।
अस्ताचल की ओर जाते सूर्यदेव की ओर चाबुक/छड़ी से इशारा करके शंकर बाबा बोले- लल्ला, अब आँखें कमजोर हो गयी हैं, दिन की रोशनी में ही काम कर पाता हूँ। आप लोगों को छोड़कर घर चला जाऊँगा। उन्होंने बताया था कि बाद में हम जब हम कभी शांतिकुंज-हरिद्वार जाते तब ‘मथुरा से शंकर आया है’ सुनते ही गुरुदेव बुला लेते और माताजी से कुछ खिलाने को भी कहते। मथुरा को वापस चलते वक्त पूज्य गुरुदेव अठन्नी के कुछ सिक्के आग्रहपूर्वक मुझे ज़रूर देते।
हमें याद है- जब ताँगा घीयामण्डी पहुँचा था तब उन्होंने नीचे उतरकर हमें इशारे से गली में ‘अखण्ड ज्योति संस्थान’ का पता बताया था। बहुत आग्रह एवं हठ करने पर भी बाबा ने हम तीनों से किराया नहीं लिया था। और इस तरह हमारी छोटी सी लेकिन मथुरा की वह अभूतपूर्व स्थानीय यात्रा सम्पन्न हुई थी। मुझे वह भी याद है कि कालान्तर में कुछ वर्ष बाद जब हम पुनः मथुरा गए तब ताँगेवाले एक भाई से शंकर बाबा के बारे में पूछने पर पता चला था कि उनका देहान्त हो चुका है। शंकर बाबा की सूक्ष्म सत्ता को नम आँखों से नमन करता हूँ। विशेष रूप से हिमालयवासी अपनी दिव्य पावन गुरुसत्ता को आत्मीय नमन करता हूँ।
आइए, हम सब अपने पूर्वजों से शिक्षा लें और संकल्प करें कि अपने पुरखों, विशेष रूप से आध्यात्मिक महापुरुषों व संस्था संस्थापकों के उच्च सिद्धान्तों व आदर्शों को जीवन में जिएँगे ताकि वे अपने हम अंशजों के माध्यम से दिग-दिगंत तक जीवित रह सकें।
अच्छा हाँ…!!! नयी पीढ़ी के अपने साथियों को बता दूँ कि अठन्नी ‘पचास पैसा’ को कहा जाता था यानी आठ आना अर्थात आधा रुपया। छोटे दोस्तों, आपको एक बात और बताऊं- मेरा बचपन का नाम ‘लल्ला’ है, हमारे माता-पिता, परिवारीजन और ग्रामवासी मुझे इसी नाम से पुकारते थे। इसलिए शंकर बाबा का बार-बार मुझे लल्ला कहना मन को भाता था। हमने यह बात बाबा को बताई भी थी, तब उन्होंने कहा था- यह तो शहर ही लल्ला (कृष्ण-कन्हैया) का है। बालमित्रों, आप बताना कि आपने कभी ताँगा देखा है और आपने कभी ताँगे की सवारी की है?